शनिवार, 11 जनवरी 2025

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) अर्जुन का श्रीकृष्ण से अनुरोध (श्लोक 1-5)

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) अर्जुन का श्रीकृष्ण से अनुरोध (श्लोक 1-5) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: आपकी कृपा से, आपने जो आत्मा से संबंधित परम गोपनीय ज्ञान मुझे दिया है, उससे मेरा मोह समाप्त हो गया है।"

व्याख्या:
यह श्लोक दर्शाता है कि अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों से आत्मिक ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं और उनका मानसिक भ्रम अब समाप्त हो गया है। अर्जुन अपने हृदय में स्पष्टता और शांति महसूस कर रहे हैं।


श्लोक 2

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्॥

अर्थ:
"हे कमलनयन, मैंने आपसे विस्तार से प्राणियों की उत्पत्ति और विनाश के बारे में सुना है, और साथ ही आपकी अविनाशी महिमा को भी जाना है।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के उपदेशों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि उन्होंने भगवान से सृष्टि के चक्र (उत्पत्ति और विनाश) और भगवान की अनंत महिमा के बारे में जाना है।


श्लोक 3

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम॥

अर्थ:
"हे परमेश्वर, आपने जैसा अपने विषय में कहा, वह सत्य है। हे पुरुषोत्तम, मैं आपके उस ऐश्वर्यपूर्ण स्वरूप को देखना चाहता हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के प्रति श्रद्धा और विश्वास व्यक्त करते हुए उनसे उनके दिव्य विश्वरूप (संपूर्ण स्वरूप) को देखने की इच्छा प्रकट करते हैं। अर्जुन का यह प्रश्न भगवान की दिव्यता को प्रत्यक्ष अनुभव करने की उनकी उत्कंठा को दर्शाता है।


श्लोक 4

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम्॥

अर्थ:
"हे प्रभो, यदि आप मानते हैं कि मैं आपके उस रूप को देखने में सक्षम हूँ, तो हे योगेश्वर, कृपया मुझे अपना वह अविनाशी रूप दिखाइए।"

व्याख्या:
अर्जुन विनम्रता और समर्पण के साथ भगवान से निवेदन करते हैं कि यदि वे योग्य हैं, तो भगवान उन्हें अपना विश्वरूप दिखाएँ। यह अर्जुन की नम्रता और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण को प्रकट करता है।


श्लोक 5

श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: हे पार्थ, मेरे सैकड़ों और हजारों दिव्य रूपों को देखो, जो विभिन्न प्रकार, रंग और आकार के हैं।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को उनका अनुरोध स्वीकार करते हुए विश्वरूप के दर्शन का प्रस्ताव देते हैं। वे कहते हैं कि वे अर्जुन को अपनी अनंत और विविध महिमा दिखाएंगे। यह भगवान की अनंतता और उनकी सभी रूपों में विद्यमान दिव्यता को प्रकट करता है।


सारांश (श्लोक 1-5):

  1. अर्जुन ने भगवान के उपदेशों से अपने भ्रम के समाप्त होने और आत्मिक ज्ञान प्राप्त करने की बात कही।
  2. अर्जुन ने भगवान से उनके दिव्य ऐश्वर्यपूर्ण विश्वरूप के दर्शन करने की विनती की।
  3. भगवान ने अर्जुन की विनती स्वीकार की और उन्हें अपने अनंत और विविध दिव्य रूपों को देखने का अवसर दिया।
  4. यह श्लोक भक्त और भगवान के बीच के प्रेम, विश्वास और समर्पण को दर्शाता है।

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