शनिवार, 20 जनवरी 2024

भागवत गीता: अध्याय 1 (अर्जुनविषादयोग) अर्जुन का भ्रम और मोह (श्लोक 21-30)

यहां भागवत गीता: अध्याय 1 (अर्जुनविषादयोग) अर्जुन का भ्रम और मोह (श्लोक 21-30) का अर्थ और व्याख्या दी गई है:


श्लोक 21-22

अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्॥
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे॥

अर्थ:
अर्जुन ने कहा, "हे अच्युत (कृष्ण), कृपया मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में स्थापित करें ताकि मैं उन योद्धाओं को देख सकूं जो युद्ध के लिए उपस्थित हैं और यह जान सकूं कि मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना है।"

व्याख्या:
अर्जुन युद्ध की गंभीरता को समझने के लिए अपने शत्रुओं को देखना चाहते हैं। यह श्लोक उनकी युद्ध के प्रति जागरूकता और दुविधा को व्यक्त करता है।


श्लोक 23

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥

अर्थ:
"मैं उन लोगों को देखना चाहता हूं जो इस युद्ध में धृतराष्ट्र के पुत्र (दुर्योधन) का साथ देने के लिए एकत्र हुए हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन दुर्योधन और उसके समर्थकों को "दुर्बुद्धि" कहकर उनकी नीयत पर प्रश्न करते हैं। यह उनके मन में उत्पन्न आक्रोश और शोक को दर्शाता है।


श्लोक 24-25

सञ्जय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति॥

अर्थ:
संजय बोले: "गुडाकेश (अर्जुन) के इस प्रकार कहने पर, हृषीकेश (कृष्ण) ने दोनों सेनाओं के बीच में रथ स्थापित कर दिया। भीष्म, द्रोण और अन्य योद्धाओं के सामने रथ रखते हुए उन्होंने अर्जुन से कहा, 'देखो, ये सभी कौरव यहाँ एकत्र हुए हैं।'"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को उनकी इच्छा के अनुसार युद्धभूमि का अवलोकन करने का अवसर देते हैं। यह उनके मार्गदर्शन की शुरुआत है।


श्लोक 26-27

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥

अर्थ:
"वहाँ अर्जुन ने दोनों सेनाओं में खड़े अपने पितरों, पितामहों, गुरुओं, मामा, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, श्वसुरों और शुभचिंतकों को देखा।"

व्याख्या:
अर्जुन को युद्धभूमि में अपने ही परिवार और प्रियजनों को खड़ा देखकर शोक होता है। वह सोचते हैं कि युद्ध में इन सबका विनाश कैसे उचित हो सकता है।


श्लोक 28

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥

अर्थ:
"कृपया (करुणा) से अभिभूत होकर और शोकग्रस्त होकर अर्जुन ने कहा, 'हे कृष्ण, इन अपने लोगों को युद्ध के लिए खड़ा देखकर मेरा मन व्यथित हो रहा है।'"

व्याख्या:
अर्जुन मोह और करुणा के कारण दुविधा में पड़ जाते हैं। यह मानवता का सामान्य भाव है, जब व्यक्ति अपने प्रियजनों के प्रति ममता से भर जाता है।


श्लोक 29

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥

अर्थ:
"मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं, मेरा मुख सूख रहा है, मेरा शरीर काँप रहा है और मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन के शारीरिक लक्षण उनके आंतरिक भय और मानसिक अशांति को प्रकट करते हैं। यह श्लोक दर्शाता है कि शोक और मोह किस प्रकार व्यक्ति को कमजोर कर सकते हैं।


श्लोक 30

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥

अर्थ:
"मेरा गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से छूट रहा है, मेरी त्वचा जल रही है, मैं खड़ा नहीं रह पा रहा हूँ, और मेरा मन चक्कर खा रहा है।"

व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन की मानसिक और शारीरिक स्थिति को दर्शाता है। युद्ध की कल्पना से ही उनका साहस टूट रहा है। यह दर्शाता है कि कैसे मोह और करुणा व्यक्ति को अपने कर्तव्य से विमुख कर सकते हैं।


सारांश:

  • इन श्लोकों में अर्जुन के मानसिक द्वंद्व और युद्ध के परिणामों को लेकर उनकी दुविधा का वर्णन है।
  • अर्जुन अपने स्वजनों के प्रति मोह और कर्तव्य के बीच फँस जाते हैं।
  • यह अध्याय यह दर्शाता है कि शोक और भ्रम किस प्रकार व्यक्ति के मनोबल को कमजोर कर सकते हैं।

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