भागवत गीता: अध्याय 1 (अर्जुनविषादयोग) कर्तव्य पर दुविधा (श्लोक 31-47) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 31
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च॥
अर्थ:
"हे कृष्ण, अपने स्वजनों को युद्ध में मारने के बाद मुझे कोई कल्याण नहीं दिखता। मैं विजय, राज्य, या सुखों की इच्छा नहीं करता।"
व्याख्या:
अर्जुन यह महसूस करते हैं कि अपने प्रियजनों की मृत्यु के बाद राज्य और सुख का कोई मूल्य नहीं रहेगा। यह उनके मोह और करुणा को दर्शाता है।
श्लोक 32-33
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च॥
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥
अर्थ:
"हे गोविंद, हमें राज्य, भोग, या जीवन की क्या आवश्यकता है, जब वे लोग जिनके लिए हम यह सब चाहते हैं, युद्ध के लिए तैयार खड़े हैं, और अपने जीवन और धन का त्याग करने को तत्पर हैं।"
व्याख्या:
अर्जुन के मन में यह विचार आता है कि जिनके लिए यह सब अर्जित किया जाना है, उनकी अनुपस्थिति में यह सब व्यर्थ है।
श्लोक 34-35
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥
अर्थ:
"गुरु, पितर, पुत्र, पितामह, मामा, श्वसुर, पौत्र, भाई और अन्य संबंधियों को मैं मारना नहीं चाहता, भले ही मुझे तीनों लोकों का राज्य मिल जाए, फिर पृथ्वी के राज्य का क्या कहना।"
व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन के गहरे मोह और युद्ध से पीछे हटने की मानसिकता को दर्शाता है। वह अपने संबंधियों की हत्या को किसी भी स्थिति में उचित नहीं मानते।
श्लोक 36
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानात्मबान्धवान्॥
अर्थ:
"हे जनार्दन, धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या खुशी मिलेगी? अपने स्वजनों को मारने से हम पाप के भागी बनेंगे।"
व्याख्या:
अर्जुन के मन में यह विश्वास होता है कि युद्ध से प्राप्त विजय केवल पाप और विनाश का कारण बनेगी।
श्लोक 37-38
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥
यदि ह्येतेऽप्यपश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥
अर्थ:
"इसलिए, हे माधव, हमें अपने स्वजनों और धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारना उचित नहीं है। अपने स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं? यदि लोभ से अंधे होकर ये लोग पाप और कुल के विनाश को नहीं समझते, तो हमें तो समझना चाहिए।"
व्याख्या:
अर्जुन धर्म और अधर्म के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करते हैं। उनका मानना है कि लोभ से प्रेरित होकर युद्ध करना विनाशकारी होगा।
श्लोक 39
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥
अर्थ:
"हे जनार्दन, हम जो कुल के विनाश से उत्पन्न दोष को समझते हैं, हमें इस पाप से क्यों नहीं बचना चाहिए?"
व्याख्या:
अर्जुन कुल विनाश और उसके सामाजिक और नैतिक परिणामों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं।
श्लोक 40-41
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः॥
अर्थ:
"कुल के विनाश से कुल के शाश्वत धर्म नष्ट हो जाते हैं, और धर्म के नष्ट होने से कुल में अधर्म बढ़ जाता है। हे कृष्ण, जब अधर्म बढ़ता है, तो कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं, और उनसे वर्णसंकर संतानों का जन्म होता है।"
व्याख्या:
अर्जुन यह समझाने का प्रयास करते हैं कि युद्ध से समाज और परिवार पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा। वर्णसंकरता सामाजिक व्यवस्था को नष्ट कर देगी।
श्लोक 42-43
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥
अर्थ:
"वर्णसंकरता कुल के विनाश और पाप का कारण बनती है। इससे पितरों का श्राद्ध आदि कर्म बाधित हो जाता है, और वे पतित हो जाते हैं। ऐसे पापों के कारण जाति और कुल के धर्म भी नष्ट हो जाते हैं।"
व्याख्या:
अर्जुन युद्ध के विनाशकारी प्रभावों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, विशेष रूप से सामाजिक और धार्मिक परंपराओं के क्षरण पर।
श्लोक 44-45
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥
अर्थ:
"हे जनार्दन, जिनका कुल धर्म नष्ट हो चुका है, वे नरक में जाते हैं। हम भी लोभ में आकर अपने स्वजनों को मारने का पाप करने जा रहे हैं।"
व्याख्या:
अर्जुन अपने निर्णय पर शोक व्यक्त करते हैं। वह सोचते हैं कि स्वजनों की हत्या से केवल नरक का मार्ग प्रशस्त होगा।
श्लोक 46
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥
अर्थ:
"यदि धृतराष्ट्र के पुत्र शस्त्रों से सुसज्जित होकर, बिना प्रतिरोध किए मुझे युद्ध में मार दें, तो यह मेरे लिए बेहतर होगा।"
व्याख्या:
अर्जुन ने पूरी तरह से अपने कर्तव्य से विमुख होकर युद्ध छोड़ने का निर्णय कर लिया है। वह अहिंसा का मार्ग अपनाने के लिए तैयार हैं।
श्लोक 47
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥
अर्थ:
"इस प्रकार कहकर अर्जुन ने अपने धनुष-बाण छोड़ दिए और रथ में बैठ गए, उनका मन शोक और करुणा से भर गया।"
व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन की मानसिक और शारीरिक असमर्थता को दर्शाता है। वह युद्ध के लिए तैयार नहीं हैं और पूरी तरह से अपने मनोबल को खो चुके हैं।
सारांश:
श्लोक 31 से 47 में अर्जुन के मनोवैज्ञानिक संघर्ष और मोह का विस्तार से वर्णन है। उनके मन में धर्म और अधर्म, कर्तव्य और मोह के बीच द्वंद्व है। यह अध्याय गीता के मुख्य संवाद के लिए आधार तैयार करता है।
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