शनिवार, 19 अप्रैल 2025

भागवत गीता: अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग) गुणों का परिचय (श्लोक 1-13)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग) के श्लोक 1 से 13 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने सत्व, रजस और तमस – इन तीन गुणों (प्रकृति के त्रिगुणों) के प्रभाव और उनके पार जाने के उपायों का वर्णन किया है।


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: मैं फिर से उस परम ज्ञान को बताऊँगा, जो सभी ज्ञानों में श्रेष्ठ है। इसे जानकर सभी ऋषि परम सिद्धि को प्राप्त हो गए।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को सर्वोच्च ज्ञान प्रदान करने की घोषणा करते हैं। यह ज्ञान प्रकृति और उसके गुणों का है, जिसे समझकर व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 2

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥

अर्थ:
"इस ज्ञान को प्राप्त करके मेरे समान स्वरूप को प्राप्त करने वाले साधक न तो सृष्टि के समय जन्म लेते हैं और न प्रलय के समय कष्ट पाते हैं।"

व्याख्या:
जो लोग प्रकृति और त्रिगुणों को समझ लेते हैं, वे जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं और भगवान की दिव्यता को प्राप्त करते हैं।


श्लोक 3

मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥

अर्थ:
"मेरा महान ब्रह्म (प्रकृति) वह गर्भ है, जिसमें मैं बीज स्थापित करता हूँ, और उससे सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि उनकी प्रकृति सृष्टि की आधारभूत शक्ति है, और वह स्वयं इसमें जीवन का बीज स्थापित करते हैं।


श्लोक 4

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, सभी योनियों (जीवों) में जो-जो रूप उत्पन्न होते हैं, उनके लिए प्रकृति माता है और मैं बीज देने वाला पिता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ सृष्टि के माता-पिता (प्रकृति और परमात्मा) के संबंध को स्पष्ट करते हैं। सभी जीव भगवान की कृपा और प्रकृति से उत्पन्न होते हैं।


श्लोक 5

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्॥

अर्थ:
"सत्त्व, रजस और तमस – ये तीन गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और अविनाशी आत्मा को शरीर में बाँधते हैं।"

व्याख्या:
तीनों गुण (सत्व – पवित्रता, रजस – क्रिया, और तमस – अज्ञान) आत्मा को शरीर और संसार से जोड़ते हैं।


श्लोक 6

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ॥

अर्थ:
"सत्त्व गुण पवित्र और प्रकाशमान होने के कारण सुख और ज्ञान के साथ आत्मा को बाँधता है।"

व्याख्या:
सत्त्व गुण आत्मा को सुख और ज्ञान से जोड़े रखता है, लेकिन यह भी मुक्ति में बाधा बन सकता है, क्योंकि यह बंधन पैदा करता है।


श्लोक 7

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्॥

अर्थ:
"रजस गुण राग (आसक्ति) से युक्त है और तृष्णा और कर्मों की लालसा को उत्पन्न करता है। यह आत्मा को कर्मों के बंधन में बाँधता है।"

व्याख्या:
रजस गुण व्यक्ति में भौतिक इच्छाएँ और कर्म करने की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है। यह गुण भौतिक जीवन में उलझाव बढ़ाता है।


श्लोक 8

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत॥

अर्थ:
"तमस गुण अज्ञान से उत्पन्न होता है और सभी प्राणियों को मोह में डाल देता है। यह प्रमाद (लापरवाही), आलस्य और निद्रा के साथ आत्मा को बाँधता है।"

व्याख्या:
तमस गुण अज्ञान, आलस्य और लापरवाही का कारण बनता है। यह आत्मा को अंधकार में बाँधता है और आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डालता है।


श्लोक 9

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत॥

अर्थ:
"सत्त्व गुण सुख से जोड़ता है, रजस गुण कर्म में लगाता है, और तमस ज्ञान को ढँककर प्रमाद (लापरवाही) से जोड़ता है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि तीनों गुण अलग-अलग प्रकार के बंधन उत्पन्न करते हैं: सत्त्व सुख का बंधन, रजस कर्मों का बंधन, और तमस अज्ञान और आलस्य का बंधन।


श्लोक 10

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा॥

अर्थ:
"हे भारत, कभी-कभी सत्त्व रजस और तमस को दबाकर प्रबल हो जाता है। इसी प्रकार, रजस सत्त्व और तमस को दबा सकता है, और तमस सत्त्व और रजस को दबा सकता है।"

व्याख्या:
तीनों गुण समय और परिस्थितियों के अनुसार एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। कभी एक गुण प्रबल हो जाता है, तो कभी दूसरा।


श्लोक 11

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत॥

अर्थ:
"जब इस शरीर के सभी द्वारों (इंद्रियों) में प्रकाश (ज्ञान) उत्पन्न होता है, तब समझना चाहिए कि सत्त्व गुण बढ़ गया है।"

व्याख्या:
सत्त्व गुण की वृद्धि से व्यक्ति में शुद्धता, शांति और ज्ञान का उदय होता है। उसकी इंद्रियाँ और मन निर्मल हो जाते हैं।


श्लोक 12

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, जब रजस गुण बढ़ता है, तो लोभ, क्रियाशीलता, कर्मों का आरंभ, अशांति और तृष्णा उत्पन्न होती है।"

व्याख्या:
रजस गुण की वृद्धि से व्यक्ति में भौतिक इच्छाएँ, असंतोष और निरंतर गतिविधियाँ बढ़ जाती हैं। वह शांत नहीं रह पाता।


श्लोक 13

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन॥

अर्थ:
"हे कुरुनंदन, जब तमस गुण बढ़ता है, तब अंधकार, निष्क्रियता, प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
तमस गुण की वृद्धि से व्यक्ति अज्ञान, आलस्य और भ्रम में डूब जाता है। उसकी आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति रुक जाती है।


सारांश (श्लोक 1-13):

  1. तीन गुणों का परिचय:
    • सत्त्व: शुद्धता और ज्ञान से जोड़ता है।
    • रजस: कर्म और इच्छाओं को बढ़ाता है।
    • तमस: अज्ञान, आलस्य और मोह का कारण बनता है।
  2. गुणों का प्रभाव:
    • सत्त्व सुख और शांति देता है।
    • रजस कर्मों में सक्रिय करता है लेकिन अशांति लाता है।
    • तमस आलस्य, प्रमाद और अज्ञान बढ़ाता है।
  3. गुणों का पारस्परिक प्रभाव:
    • गुण एक-दूसरे को प्रभावित और नियंत्रित करते हैं।
  4. मुक्ति का मार्ग:
    • इन गुणों को समझकर, और उनके प्रभावों से ऊपर उठकर, व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

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