शनिवार, 28 दिसंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान के अवतार और उनके गुण (श्लोक 31-42)

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान के अवतार और उनके गुण (श्लोक 31-42) तक का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 31

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।

अर्थ:
"मछलियों में मैं मकर हूँ और नदियों में मैं गंगा हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपनी महिमा को बताते हुए कहते हैं कि वे मछलियों में सबसे श्रेष्ठ मकर (मगरमच्छ) हैं, और पवित्र नदियों में गंगा का प्रतीक हैं। यह उनकी श्रेष्ठता और पवित्रता को दर्शाता है।


श्लोक 32

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्॥

अर्थ:
"सृष्टि के आरंभ, मध्य और अंत में मैं ही हूँ। विद्याओं में अध्यात्म विद्या (आत्मा का ज्ञान) हूँ और तर्क करने वालों में मैं तर्क शक्ति हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे सृष्टि के हर चरण में उपस्थित हैं। वे आत्मा के ज्ञान (अध्यात्म) के रूप में विद्या के मूल और तर्क की शक्ति के रूप में वाणी के केंद्र हैं।


श्लोक 33

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः॥

अर्थ:
"अक्षरों में मैं 'अ' हूँ। समासों में मैं द्वंद्व समास हूँ। मैं अक्षय काल (शाश्वत समय) हूँ और सृष्टि का धारण करने वाला और उसका आधार हूँ।"

व्याख्या:
भगवान 'अ' को सभी ध्वनियों का आधार बताते हैं। समासों में द्वंद्व समास, जो दो शब्दों का जोड़ है, उनकी श्रेष्ठता दर्शाता है। वे शाश्वत समय और सृष्टि के आधार हैं।


श्लोक 34

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा॥

अर्थ:
"मैं मृत्यु हूँ, जो सब कुछ हर लेती है, और उत्पत्ति का कारण भी हूँ। स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री (समृद्धि), वाणी, स्मृति, मेधा (बुद्धि), धैर्य और क्षमा हूँ।"

व्याख्या:
भगवान जीवन और मृत्यु दोनों का आधार बताते हैं। वे स्त्रियों में श्रेष्ठ गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जैसे कि सौंदर्य, बुद्धि और सहनशीलता।


श्लोक 35

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥

अर्थ:
"सामवेद के मंत्रों में मैं बृहत्साम हूँ। छंदों में मैं गायत्री हूँ। महीनों में मैं मार्गशीर्ष (अगहन) हूँ और ऋतुओं में मैं वसंत ऋतु हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपने आप को वेदों, छंदों, समय और ऋतुओं के सर्वोत्तम रूपों से जोड़ते हैं। वसंत ऋतु आनंद और सौंदर्य का प्रतीक है।


श्लोक 36

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥

अर्थ:
"धोखा देने वालों में मैं जुआ हूँ। तेजस्वी व्यक्तियों का तेज, विजय, दृढ़ता और सतोगुण का आधार भी मैं ही हूँ।"

व्याख्या:
भगवान उन तत्वों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जो संसार में प्रभावशाली हैं, चाहे वे अच्छे हों या बुरे। वे सभी गुणों और कर्मों का स्रोत हैं।


श्लोक 37

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः॥

अर्थ:
"वृष्णि वंश में मैं वासुदेव (श्रीकृष्ण) हूँ। पाण्डवों में मैं अर्जुन हूँ। ऋषियों में मैं व्यास हूँ और कवियों में मैं शुक्राचार्य हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपने आप को अपने दिव्य अवतारों और श्रेष्ठतम व्यक्तियों, जैसे वासुदेव, अर्जुन, व्यास और शुक्राचार्य, के रूप में प्रस्तुत करते हैं।


श्लोक 38

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥

अर्थ:
"सजा देने वालों में मैं दंड हूँ। विजय चाहने वालों में मैं नीति हूँ। रहस्यों में मैं मौन हूँ और ज्ञानी लोगों में मैं ज्ञान हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अनुशासन, न्याय, रहस्य और ज्ञान के सर्वोच्च स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शक्ति और बुद्धि का आधार हैं।


श्लोक 39

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, मैं सभी प्राणियों का बीज हूँ। ऐसा कुछ भी नहीं है जो मेरे बिना चल या अचल हो।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे सृष्टि के हर जीवित और निर्जीव वस्तु का मूल हैं। वे ही सबका आधार और स्रोत हैं।


श्लोक 40

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया॥

अर्थ:
"हे परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नहीं है। मैंने यहाँ केवल संक्षेप में अपनी विभूतियों का वर्णन किया है।"

व्याख्या:
भगवान अपनी अनंत महिमा को स्वीकार करते हैं। यह श्लोक उनकी अनंतता और दिव्यता को दर्शाता है।


श्लोक 41

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥

अर्थ:
"जो भी विभूतिमान, समृद्ध और शक्तिशाली वस्तु या व्यक्ति है, उसे मेरे तेज के अंश से उत्पन्न मानो।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि संसार में जो भी अद्वितीय और श्रेष्ठ है, वह उनकी महिमा का केवल एक अंश है।


श्लोक 42

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, इतनी बातों को जानने से क्या लाभ? यह सारा जगत मेरे एक छोटे से अंश से ही स्थापित है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि उनकी अनंत महिमा को समझना मनुष्य के लिए संभव नहीं है। यह सम्पूर्ण सृष्टि उनके छोटे से अंश से संचालित हो रही है।


सारांश (श्लोक 31-42):

  1. भगवान हर श्रेष्ठ और दिव्य वस्तु या गुण के रूप में प्रकट होते हैं।
  2. वे जीवन के हर क्षेत्र में, चाहे वह प्रकृति, धर्म, ज्ञान, या शक्ति हो, उपस्थित हैं।
  3. उनकी विभूतियाँ अनंत हैं और सारा जगत उनके एक छोटे से अंश से संचालित होता है।
  4. भगवान अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह उनकी दिव्यता को समझकर भक्ति में लीन हो जाए।

शनिवार, 21 दिसंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान का अद्वितीय रूप (श्लोक 21-30)

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान का अद्वितीय रूप (श्लोक 21-30) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 21

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥

अर्थ:
"आदित्यों (सूर्य देवताओं) में मैं विष्णु हूँ। ज्योतियों (प्रकाश स्रोतों) में मैं तेजस्वी सूर्य हूँ। मरुतों (वायु देवताओं) में मैं मरीचि हूँ, और नक्षत्रों में मैं चंद्रमा हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे प्रत्येक श्रेणी में सर्वोच्च और दिव्य रूप हैं। वे सृष्टि के महान और चमकदार तत्वों, जैसे सूर्य और चंद्रमा, के रूप में प्रकट होते हैं।


श्लोक 22

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥

अर्थ:
"वेदों में मैं सामवेद हूँ। देवताओं में मैं वासव (इंद्र) हूँ। इंद्रियों में मैं मन हूँ और प्राणियों में मैं चेतना हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की महिमा को दर्शाता है। वे सामवेद के रूप में मधुरता, इंद्र के रूप में बल, मन के रूप में चेतना का केंद्र, और प्राणियों की चेतना के रूप में विद्यमान हैं।


श्लोक 23

रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्॥

अर्थ:
"रुद्रों में मैं शंकर हूँ। यक्षों और राक्षसों में मैं कुबेर हूँ। वसुओं में मैं अग्नि (पावक) हूँ और पर्वतों में मैं मेरु हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपनी दिव्यता के प्रतीकों को बताते हैं। शंकर, कुबेर, अग्नि और मेरु के माध्यम से वे सृष्टि के शक्ति, धन, ऊर्जा और स्थिरता के स्रोत को प्रकट करते हैं।


श्लोक 24

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥

अर्थ:
"हे पार्थ, पुरोहितों में मैं बृहस्पति हूँ। सेनापतियों में मैं स्कंद (कार्तिकेय) हूँ और जलाशयों में मैं सागर हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे पुरोहितों के ज्ञान, सेनापतियों के नेतृत्व, और सागर की विशालता और गहराई के रूप में प्रकट होते हैं।


श्लोक 25

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥

अर्थ:
"महर्षियों में मैं भृगु हूँ। वाणियों में मैं 'ओम' हूँ। यज्ञों में मैं जपयज्ञ हूँ और स्थावरों (अचल वस्तुओं) में मैं हिमालय हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ ज्ञान, शक्ति और स्थिरता के विभिन्न रूपों को व्यक्त करते हैं। 'ओम' उनके दिव्य स्वरूप का प्रतीक है। जपयज्ञ सरल और प्रभावी साधन है, और हिमालय स्थिरता का प्रतीक है।


श्लोक 26

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः॥

अर्थ:
"सभी वृक्षों में मैं अश्वत्थ (पीपल) हूँ। देवर्षियों में मैं नारद हूँ। गंधर्वों में मैं चित्ररथ हूँ और सिद्धों में मैं कपिल मुनि हूँ।"

व्याख्या:
भगवान उन चीजों का वर्णन करते हैं जो अपनी श्रेणी में अद्वितीय हैं। पीपल स्थायित्व और पवित्रता का प्रतीक है। नारद भक्ति का प्रतीक हैं, चित्ररथ संगीत और कला के प्रतीक हैं, और कपिल मुनि ज्ञान के स्रोत हैं।


श्लोक 27

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्॥

अर्थ:
"घोड़ों में मैं उच्चैःश्रवा हूँ, जो समुद्रमंथन से उत्पन्न हुआ। हाथियों में मैं ऐरावत हूँ और मनुष्यों में मैं राजा (नराधिप) हूँ।"

व्याख्या:
भगवान सृष्टि की श्रेष्ठताओं को अपना स्वरूप बताते हैं। उच्चैःश्रवा और ऐरावत दिव्यता के प्रतीक हैं, और राजा नेतृत्व और शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है।


श्लोक 28

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः॥

अर्थ:
"आयुधों में मैं वज्र हूँ। गायों में मैं कामधेनु हूँ। संतान उत्पन्न करने वालों में मैं कामदेव हूँ और सर्पों में मैं वासुकी हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रेष्ठताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। वज्र शक्ति का प्रतीक है, कामधेनु इच्छाओं की पूर्ति का, कामदेव सृजन का और वासुकी शक्ति और नेतृत्व का प्रतीक है।


श्लोक 29

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्॥

अर्थ:
"नागों में मैं अनन्त (शेषनाग) हूँ। जलचरों में मैं वरुण हूँ। पितरों में मैं अर्यमा हूँ और नियंत्रकों में मैं यम हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यह दर्शाते हैं कि वे सभी श्रेणियों में सबसे श्रेष्ठ हैं। शेषनाग संतुलन और धैर्य का प्रतीक हैं। वरुण जल का राजा है, अर्यमा पितरों का मार्गदर्शक है, और यम धर्म और अनुशासन के प्रतीक हैं।


श्लोक 30

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहमनन्तश्चास्मि नागिनाम्॥

अर्थ:
"दैत्यों में मैं प्रह्लाद हूँ। गणनाकारों में मैं समय हूँ। पशुओं में मैं सिंह (मृगेन्द्र) हूँ और नागों में मैं अनन्त (शेषनाग) हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे दैत्यों में भी प्रह्लाद जैसे भक्त के रूप में प्रकट होते हैं। समय सृष्टि का नियंत्रक है, और सिंह शक्ति और नेतृत्व का प्रतीक है।


सारांश (श्लोक 21-30):

  1. भगवान हर श्रेणी में सबसे श्रेष्ठ और दिव्य रूप में प्रकट होते हैं।
  2. वे सृष्टि के शक्ति, स्थिरता, भक्ति और ज्ञान के हर पहलू का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  3. भगवान बताते हैं कि उनकी विभूतियाँ (महिमा) अनगिनत हैं, लेकिन उन्होंने मुख्य रूपों का वर्णन किया।
  4. अर्जुन को भगवान की इन विभूतियों का चिंतन करके उनकी दिव्यता को समझने का मार्ग दिखाया गया।

शनिवार, 14 दिसंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान की विभूतियाँ (श्लोक 8-20)

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान की विभूतियाँ (श्लोक 8-20) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 8

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥

अर्थ:
"मैं ही सबका उद्गम हूँ और मुझसे ही सब कुछ संचालित होता है। जो बुद्धिमान यह जानते हैं, वे मेरे प्रति भक्ति और भावपूर्ण श्रद्धा से मेरी आराधना करते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे सृष्टि के मूल कारण हैं। जो ज्ञानी उनके इस सत्य को समझते हैं, वे भगवान की भक्ति करते हैं और उनसे जुड़े रहते हैं।


श्लोक 9

मच्चित्तः मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥

अर्थ:
"जो मेरे प्रति चित्त और प्राण लगाए रखते हैं, वे परस्पर मेरा गुणगान करते हुए और मेरी चर्चा करते हुए संतुष्ट और आनंदित होते हैं।"

व्याख्या:
भक्त अपने मन और प्राण भगवान में समर्पित करते हैं। वे उनकी कथा और गुणगान के माध्यम से प्रसन्न और आनंदित रहते हैं। यह श्लोक भक्तों के आनंदपूर्ण जीवन को दर्शाता है।


श्लोक 10

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥

अर्थ:
"जो भक्त सदा मुझसे जुड़े रहते हैं और प्रेमपूर्वक मेरी भक्ति करते हैं, उन्हें मैं वह बुद्धियोग प्रदान करता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त कर सकें।"

व्याख्या:
भगवान अपने भक्तों को ज्ञान और दिशा प्रदान करते हैं, जिससे वे उनकी ओर अग्रसर हो सकें। उनकी भक्ति में लगा हुआ व्यक्ति ईश्वर की कृपा से मोक्ष प्राप्त करता है।


श्लोक 11

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भाजवत॥

अर्थ:
"उन पर अनुकंपा करने के लिए मैं उनके भीतर स्थित होकर उनके अज्ञान के अंधकार को ज्ञान के दीपक से नष्ट कर देता हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की करुणा और कृपा को दर्शाता है। भगवान अपने भक्तों के अज्ञान को मिटाने के लिए उनके भीतर ज्ञान का प्रकाश जलाते हैं।


श्लोक 12-13

अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे॥

अर्थ:
अर्जुन ने कहा: "आप परम ब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र, शाश्वत पुरुष, दिव्य, आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापक हैं। सभी ऋषि, जैसे नारद, असित, देवल, और व्यास, ऐसा ही कहते हैं, और स्वयं आप भी यही कह रहे हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान की महिमा और उनकी दिव्यता को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि भगवान स्वयं शाश्वत, अजन्मा और सर्वोच्च सत्ता हैं। यह श्लोक भगवान के प्रति अर्जुन की श्रद्धा और विश्वास को प्रकट करता है।


श्लोक 14

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥

अर्थ:
"हे केशव, जो कुछ आप मुझे बता रहे हैं, उसे मैं सत्य मानता हूँ। आपकी वास्तविकता को न तो देवता जानते हैं और न ही दानव।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के वचनों को पूर्ण सत्य मानते हैं। वे कहते हैं कि भगवान की दिव्यता को समझ पाना देवताओं और दानवों के लिए भी संभव नहीं है।


श्लोक 15

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥

अर्थ:
"हे पुरुषोत्तम, आप स्वयं ही अपने स्वरूप को जानते हैं। आप भूतों के सृजक, भूतों के स्वामी, देवताओं के देवता, और समस्त जगत के स्वामी हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। भगवान स्वयं अपनी वास्तविकता को जानते हैं क्योंकि वे सृष्टि के मूल और सर्वोच्च देवता हैं।


श्लोक 16

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥

अर्थ:
"आप कृपया अपनी सभी दिव्य विभूतियों को विस्तार से बताइए, जिनके द्वारा आप इन सभी लोकों को व्याप्त करते हुए स्थित हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से उनकी विभूतियों (दिव्य महिमाओं) का वर्णन सुनने की इच्छा प्रकट करते हैं। यह अर्जुन की भगवान को गहराई से जानने की जिज्ञासा को दर्शाता है।


श्लोक 17

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥

अर्थ:
"हे योगेश्वर, मैं आपको सदा कैसे जान सकता हूँ और किन-किन भावों में आपका चिंतन कर सकता हूँ?"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि वे भगवान का सदा ध्यान कैसे करें और उनकी विभूतियों के किस-किस रूप में भगवान को देख सकते हैं।


श्लोक 18

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥

अर्थ:
"हे जनार्दन, कृपया विस्तार से अपनी योगशक्ति और विभूतियों का वर्णन करें। आपकी अमृतमयी बातें सुनने में मेरी तृप्ति नहीं होती।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान की बातों को अमृत के समान मानते हैं और उनसे उनकी विभूतियों के विस्तार में वर्णन की विनती करते हैं।


श्लोक 19

श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: हे कुरुश्रेष्ठ, मैं तुम्हें अपनी दिव्य विभूतियों को संक्षेप में बताऊंगा, क्योंकि मेरी विभूतियों का कोई अंत नहीं है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि उनकी महिमा और विभूतियाँ अनंत हैं। वे अर्जुन को उनकी प्रमुख विभूतियों के बारे में बताएंगे।


श्लोक 20

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥

अर्थ:
"हे गुडाकेश (अर्जुन), मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं ही सभी प्राणियों का आरंभ, मध्य और अंत हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे प्रत्येक जीव के भीतर आत्मा के रूप में स्थित हैं और वे ही सृष्टि के आरंभ, मध्य और अंत का कारण हैं।


सारांश (श्लोक 8-20):

  1. भगवान सृष्टि का मूल कारण और सभी प्राणियों के जीवन का आधार हैं।
  2. ज्ञानी भक्त भगवान के स्वरूप को समझकर उनकी भक्ति में लीन हो जाते हैं।
  3. भगवान अपने भक्तों के अज्ञान को ज्ञान के दीपक से मिटाते हैं।
  4. अर्जुन भगवान की महिमा सुनने के लिए उत्सुक हैं और उनकी विभूतियों का वर्णन विस्तार से चाहते हैं।
  5. भगवान कहते हैं कि उनकी विभूतियाँ अनंत हैं और वे सृष्टि के प्रत्येक पहलू में व्याप्त हैं।

शनिवार, 7 दिसंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान का दिव्य रूप (श्लोक 1-7)

भागवत गीता: अध्याय 10 (विभूति योग) भगवान का दिव्य रूप (श्लोक 1-7) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: हे महाबाहु (अर्जुन), फिर से मेरा परम वचन सुनो, जिसे मैं तुम्हारे लिए कह रहा हूँ, क्योंकि तुम मेरे प्रिय हो और मैं तुम्हारा कल्याण चाहता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि वह उसे एक बार फिर अपने दिव्य ज्ञान और महिमा का वर्णन करेंगे। यह प्रेम और मित्रता का एक उदाहरण है, जहाँ भगवान अर्जुन के हित के लिए ज्ञान दे रहे हैं।


श्लोक 2

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥

अर्थ:
"मेरा मूलस्वरूप न तो देवता जानते हैं और न ही महर्षि। क्योंकि मैं ही देवताओं और महर्षियों का आदि कारण हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपनी सर्वज्ञता और सर्वोच्चता को स्पष्ट करते हैं। वे देवताओं और महर्षियों के भी सृष्टिकर्ता हैं, इसलिए वे भगवान के पूर्ण स्वरूप को नहीं जान सकते।


श्लोक 3

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

अर्थ:
"जो मुझे अजन्मा, अनादि और समस्त लोकों का स्वामी जानता है, वह अज्ञानी नहीं है और वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के दिव्य स्वरूप को पहचानने के महत्व को दर्शाता है। जो व्यक्ति भगवान को अजन्मा और अनादि मानकर उनकी शरण में आता है, वह संसार के भ्रम और पापों से मुक्त हो जाता है।


श्लोक 4-5

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥

अर्थ:
"बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह (भ्रम का न होना), क्षमा, सत्य, आत्मसंयम, मन की शांति, सुख, दुःख, सृजन, विनाश, भय, अभय, अहिंसा, समभाव, संतोष, तप, दान, यश और अपयश – ये सभी भूतों (प्राणियों) में अलग-अलग प्रकार से मुझसे ही उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
भगवान स्पष्ट करते हैं कि सभी गुण, चाहे वे सकारात्मक हों या नकारात्मक, उनकी शक्ति और माया से उत्पन्न होते हैं। वे सृष्टि के हर पहलू का मूल कारण हैं।


श्लोक 6

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥

अर्थ:
"सप्त ऋषि, चार कुमार और चौदह मनु मेरे मन से उत्पन्न हुए हैं। इन्हीं के द्वारा यह समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि सृष्टि के आरंभ में उन्होंने अपने मन से सप्त ऋषियों, चार कुमारों, और मनुओं को उत्पन्न किया। ये प्राचीन ऋषि और मनु सृष्टि के मूलभूत रचयिता हैं।


श्लोक 7

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥

अर्थ:
"जो मेरी इन विभूतियों (महिमाओं) और योगशक्ति को तत्व से जानता है, वह अविचल योग के साथ मुझसे जुड़ जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की महिमा और उनकी योगशक्ति को पहचानने के महत्व को बताता है। जो व्यक्ति भगवान के स्वरूप को समझता है, वह उनकी भक्ति में स्थिर हो जाता है और आत्मिक शांति को प्राप्त करता है।


सारांश (श्लोक 1-7):

  1. भगवान अर्जुन को अपनी महिमा और दिव्यता का ज्ञान देने के लिए तत्पर हैं।
  2. भगवान अजन्मा और अनादि हैं, और सभी देवता और महर्षि उनके द्वारा उत्पन्न हुए हैं।
  3. भगवान के दिव्य स्वरूप को पहचानने से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो सकता है।
  4. सभी गुण (सकारात्मक और नकारात्मक) भगवान के द्वारा उत्पन्न होते हैं।
  5. सप्त ऋषि, मनु और प्राचीन ऋषि भगवान की इच्छा से सृष्टि का आधार बने।
  6. जो व्यक्ति भगवान की विभूतियों को समझता है, वह उनकी भक्ति में स्थिर हो जाता है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...