शनिवार, 26 जुलाई 2025

भगवद्गीता: अध्याय 18 - मोक्ष संन्यास योग

भगवद गीता – अष्टादश अध्याय: मोक्ष संन्यास योग

(Moksha Sannyasa Yoga – The Yoga of Liberation and Renunciation)

📖 अध्याय 18 का परिचय

मोक्ष संन्यास योग गीता का अंतिम और सबसे विस्तृत अध्याय है। इसमें श्रीकृष्ण संन्यास (Sannyasa – त्याग) और मोक्ष (Moksha – मुक्ति) का रहस्य बताते हैं। वे अर्जुन को कर्मयोग, भक्ति और ज्ञान के माध्यम से सर्वोच्च मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं।

👉 मुख्य भाव:

  • संन्यास और त्याग का वास्तविक अर्थ।
  • कर्मों के तीन प्रकार – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
  • ज्ञान, कर्ता और बुद्धि के तीन गुण।
  • भगवान की भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति।
  • गीता का अंतिम और सर्वोच्च उपदेश।

📖 श्लोक (18.66):

"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"

📖 अर्थ: सभी धर्मों को त्यागकर मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम चिंता मत करो।

👉 यह श्लोक गीता का सार है और भक्ति को मोक्ष का सर्वोत्तम मार्ग बताता है।


🔹 1️⃣ अर्जुन का प्रश्न – संन्यास और त्याग क्या है?

📌 1. संन्यास और त्याग में क्या अंतर है? (Verses 1-6)

अर्जुन पूछते हैं –

  • संन्यास (Sannyasa) क्या है?
  • त्याग (Tyaga) क्या है?

📖 श्लोक (18.1):

"अर्जुन उवाच: संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥"

📖 अर्थ: हे महाबाहु! हे हृषीकेश! हे केशव! मैं संन्यास और त्याग का तत्व जानना चाहता हूँ।

👉 संन्यास और त्याग दोनों ही मोक्ष के लिए आवश्यक हैं, लेकिन इनका सही अर्थ समझना जरूरी है।


📌 2. श्रीकृष्ण का उत्तर – संन्यास और त्याग में अंतर

  • संन्यास – सभी कामनाओं से प्रेरित कर्मों का त्याग।
  • त्याग – सभी कर्मों के फल का त्याग।

📖 श्लोक (18.2):

"श्रीभगवानुवाच: काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः॥"

📖 अर्थ: ज्ञानी लोग सभी इच्छाओं से प्रेरित कर्मों का त्याग संन्यास कहते हैं, और सभी कर्मों के फल का त्याग त्याग कहा जाता है।

👉 सच्चा त्यागी वह है जो कर्म करता है लेकिन उसके फल की इच्छा नहीं करता।


🔹 2️⃣ कर्म के तीन प्रकार – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक

📌 3. कर्म तीन प्रकार के होते हैं (Verses 7-12)

कर्म का प्रकार कैसा होता है? परिणाम
सात्त्विक कर्म निष्काम भाव से किया जाता है। पवित्रता और मोक्ष की ओर ले जाता है।
राजसिक कर्म इच्छा और लाभ की आशा से किया जाता है। बंधन और पुनर्जन्म की ओर ले जाता है।
तामसिक कर्म अज्ञान और हठ से किया जाता है। विनाश और अंधकार की ओर ले जाता है।

📖 श्लोक (18.9):

"कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥"

📖 अर्थ: जो कर्म कर्तव्य मानकर बिना आसक्ति और फल की इच्छा के किया जाता है, वह सात्त्विक त्याग है।

👉 हमें सात्त्विक कर्म को अपनाना चाहिए और फल की चिंता छोड़ देनी चाहिए।


🔹 3️⃣ ज्ञान, कर्ता और बुद्धि के तीन प्रकार

📌 4. ज्ञान, कर्ता और बुद्धि भी तीन प्रकार की होती है (Verses 20-30)

विभाग सात्त्विक (शुद्ध) राजसिक (आसक्त) तामसिक (अज्ञान)
ज्ञान एकता को देखने वाला भेदभाव करने वाला अधर्म में विश्वास रखने वाला
कर्ता निष्काम, धैर्यवान, निडर लोभी, अहंकारी, अस्थिर आलसी, क्रूर, अज्ञानी
बुद्धि धर्म और अधर्म में भेद करने वाली धन, पद और भोग में आसक्त पाप और अधर्म को ही सत्य मानने वाली

📖 श्लोक (18.30):

"प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥"

📖 अर्थ: जो बुद्धि यह जानती है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं, क्या धर्म है और क्या अधर्म – वह सात्त्विक बुद्धि है।

👉 हमें सात्त्विक बुद्धि को अपनाना चाहिए और अधर्म से दूर रहना चाहिए।


🔹 4️⃣ भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति

📌 5. चार गुण जो मोक्ष की ओर ले जाते हैं (Verses 49-55)

  • आसक्ति का त्याग।
  • निष्काम कर्म।
  • शुद्ध बुद्धि।
  • ईश्वर की भक्ति।

📖 श्लोक (18.54):

"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥"

📖 अर्थ: जो ब्रह्मज्ञानी हो जाता है, वह न शोक करता है, न कुछ चाहता है, और सभी प्राणियों में समभाव रखता है। तभी वह मेरी परम भक्ति प्राप्त करता है।

👉 भक्ति से ही मोक्ष संभव है।


🔹 5️⃣ गीता का अंतिम और सर्वोच्च उपदेश

📌 6. गीता का सार – भगवान की शरण में जाओ (Verses 63-66)

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ।

📖 श्लोक (18.66):

"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"

📖 अर्थ: सभी धर्मों को त्यागकर मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम चिंता मत करो।

👉 यह गीता का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपदेश है – भगवान की भक्ति ही मोक्ष का सर्वोच्च मार्ग है।


🔹 निष्कर्ष

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. संन्यास का अर्थ कर्म का त्याग नहीं, बल्कि फल की आसक्ति का त्याग है।
2. कर्म, ज्ञान, कर्ता और बुद्धि के तीन भेद होते हैं – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
3. भक्ति से ही व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
4. गीता का अंतिम और सर्वोच्च संदेश – "भगवान की शरण में जाओ"।


🔹 गीता का सारांश

"कर्म करो, फल की चिंता मत करो। भगवान की भक्ति करो, वे तुम्हें मोक्ष देंगे।"

शनिवार, 19 जुलाई 2025

भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) तामसगुणयुक्त श्रद्धा (श्लोक 19-22), श्रद्धा के प्रभाव (श्लोक 23-28)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) के श्लोक 19 से श्लोक 28 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने तप और दान के तीन प्रकार (सात्त्विक, राजसिक, तामसिक) और "ॐ तत् सत्" के महत्व को समझाया है।


श्लोक 19

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो तप मूर्खतापूर्ण रूप से, आत्मा को कष्ट देकर या दूसरों को हानि पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता है, वह तामसिक तप कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक तप वह है जो न तो शास्त्रों के अनुरूप है और न ही आत्मा की शुद्धि के लिए किया जाता है। यह केवल दूसरों को हानि पहुँचाने या दिखावा करने के लिए किया जाता है। ऐसा तप आत्मा को अधोगति की ओर ले जाता है।


श्लोक 20

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥

अर्थ:
"जो दान कर्तव्य समझकर, योग्य समय, स्थान और पात्र को बिना किसी प्रतिफल की इच्छा के दिया जाता है, वह सात्त्विक दान कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक दान निष्काम भावना से दिया जाता है। इसमें देने वाले का उद्देश्य दूसरों की मदद करना होता है, न कि यश या लाभ प्राप्त करना।


श्लोक 21

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥

अर्थ:
"जो दान किसी प्रतिफल की इच्छा से, अथवा बदले में उपकार की अपेक्षा से या कठिनाईपूर्वक दिया जाता है, वह राजसिक दान कहलाता है।"

व्याख्या:
राजसिक दान स्वार्थ से प्रेरित होता है। यह दान दिखावे या भौतिक लाभ के उद्देश्य से दिया जाता है। इसमें देने वाले के मन में कष्ट या अनिच्छा होती है।


श्लोक 22

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो दान अनुचित समय, स्थान और अयोग्य व्यक्ति को, बिना सम्मान या अवहेलना के साथ दिया जाता है, वह तामसिक दान कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक दान असंवेदनशीलता और अज्ञान से प्रेरित होता है। यह दान न तो उपयुक्त पात्र को दिया जाता है और न ही इसमें कोई श्रद्धा या भावना होती है।


श्लोक 23

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥

अर्थ:
"'ॐ तत् सत्' – यह त्रिविध नाम ब्रह्म का है। इस नाम से ब्राह्मण, वेद और यज्ञ प्राचीनकाल में बनाए गए।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि "ॐ तत् सत्" ब्रह्म (परम सत्य) के प्रतीक हैं। यह नाम ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञों को पवित्र और शुद्ध बनाते हैं।


श्लोक 24

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता सततं ब्रह्मवादिनाम्॥

अर्थ:
"इसलिए, 'ॐ' कहकर यज्ञ, दान और तप जैसी विधिपूर्वक क्रियाएँ सदा ब्रह्मज्ञानी लोग करते हैं।"

व्याख्या:
"ॐ" उच्चारण से यज्ञ, दान और तप पवित्र हो जाते हैं। यह ब्रह्म का प्रतीक है और इसका स्मरण कर्मों को शुद्ध और श्रेष्ठ बनाता है।


श्लोक 25

तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥

अर्थ:
"'तत्' कहकर, बिना फल की इच्छा के, यज्ञ, तप और दान जैसी विविध क्रियाएँ मोक्ष की इच्छा रखने वाले लोग करते हैं।"

व्याख्या:
"तत्" शब्द का उपयोग निस्वार्थ भावना और मोक्ष की कामना के साथ किया जाता है। इसका उद्देश्य भगवान की कृपा प्राप्त करना होता है, न कि भौतिक लाभ।


श्लोक 26-27

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥

अर्थ:
"'सत्' का उपयोग अस्तित्व और शुद्धता के अर्थ में किया जाता है। हे पार्थ, प्रशंसनीय कर्मों में भी 'सत्' शब्द का उपयोग होता है। यज्ञ, तप और दान में स्थिरता को 'सत्' कहा जाता है, और जो कर्म भगवान के लिए किए जाते हैं, उन्हें भी 'सत्' कहा जाता है।"

व्याख्या:
"सत्" शब्द सत्य, शुद्धता और प्रशंसा का प्रतीक है। यह हर अच्छे कार्य (यज्ञ, तप, दान) को पवित्र करता है और इसे भगवान के प्रति समर्पित करता है।


श्लोक 28

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो यज्ञ, दान, तप और अन्य कर्म बिना श्रद्धा के किए जाते हैं, वे 'असत्' कहलाते हैं। न तो वे इस जीवन में और न ही मरने के बाद फल देते हैं।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण समझाते हैं कि बिना श्रद्धा और भावना के किए गए कर्म व्यर्थ होते हैं। वे न तो इस संसार में फल देते हैं और न ही मृत्यु के बाद किसी अच्छे परिणाम की ओर ले जाते हैं।


सारांश (श्लोक 19-28):

  1. तप के प्रकार:

    • सात्त्विक तप: आत्मा की शुद्धि के लिए, श्रद्धा से किया गया।
    • राजसिक तप: मान-सम्मान और दिखावे के लिए किया गया।
    • तामसिक तप: दूसरों को हानि पहुँचाने या आत्मा को कष्ट देने के लिए किया गया।
  2. दान के प्रकार:

    • सात्त्विक दान: निष्काम भाव से, योग्य पात्र को दिया गया।
    • राजसिक दान: फल की इच्छा से या बदले में उपकार की आशा से दिया गया।
    • तामसिक दान: अपात्र को, बिना श्रद्धा के या अपमान के साथ दिया गया।
  3. "ॐ तत् सत्" का महत्व:

    • "ॐ तत् सत्" ब्रह्म (परम सत्य) का प्रतीक है।
    • यह यज्ञ, तप और दान को शुद्ध और पवित्र बनाता है।
    • श्रद्धा और समर्पण के साथ किया गया कर्म ही सार्थक होता है।
  4. अश्रद्धा के साथ कर्म:

    • बिना श्रद्धा के किया गया यज्ञ, तप, और दान व्यर्थ होते हैं।
    • ऐसे कर्म न तो इस जीवन में और न ही मृत्यु के बाद किसी लाभ को प्रदान करते हैं।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण इस खंड में समझाते हैं कि श्रद्धा और समर्पण हर कर्म की सफलता और शुद्धता का आधार हैं। "ॐ तत् सत्" के माध्यम से किए गए कार्य परमात्मा के प्रति समर्पित होते हैं और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

शनिवार, 12 जुलाई 2025

भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) रजोगुणयुक्त श्रद्धा (श्लोक 11-18)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) के श्लोक 11 से 18 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ, तप और दान के तीन प्रकार (सात्त्विक, राजसिक, और तामसिक) का वर्णन किया है।


श्लोक 11

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥

अर्थ:
"जो यज्ञ शास्त्रों के अनुसार विधिपूर्वक किया जाता है और जिसमें फल की आकांक्षा नहीं होती, वह सात्त्विक यज्ञ कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक यज्ञ शुद्ध हृदय से, केवल कर्तव्य समझकर और बिना किसी भौतिक फल की इच्छा के किया जाता है। यह यज्ञ आत्मा की उन्नति और भगवान को प्रसन्न करने के लिए होता है।


श्लोक 12

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, जो यज्ञ फल की इच्छा से या केवल दिखावे के लिए किया जाता है, उसे राजसिक यज्ञ कहा गया है।"

व्याख्या:
राजसिक यज्ञ उन लोगों द्वारा किया जाता है जो भौतिक इच्छाओं, धन, मान-सम्मान, या किसी विशेष लाभ के लिए यज्ञ करते हैं। इसमें वास्तविक भक्ति का अभाव होता है।


श्लोक 13

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥

अर्थ:
"जो यज्ञ शास्त्रविधि के विरुद्ध होता है, जिसमें भोजन, मंत्र, दक्षिणा और श्रद्धा का अभाव होता है, उसे तामसिक यज्ञ कहते हैं।"

व्याख्या:
तामसिक यज्ञ बिना श्रद्धा, नियम और पवित्रता के किया जाता है। इसमें ईश्वर के प्रति भक्ति या आस्था नहीं होती और यह केवल दिखावे या अज्ञान के कारण किया जाता है।


श्लोक 14

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥

अर्थ:
"देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी जनों की पूजा, शुद्धता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा – ये सब शारीरिक तप कहलाते हैं।"

व्याख्या:
शारीरिक तप वह है जो शरीर से किया जाता है, जैसे ईश्वर, गुरु और विद्वानों की सेवा और पूजा। इसमें शुद्धता, संयम और अहिंसा का पालन होता है।


श्लोक 15

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियं हितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥

अर्थ:
"जो वाणी दूसरों को उद्वेग (परेशानी) न दे, सत्य हो, प्रिय और हितकारी हो, और जो स्वाध्याय (वेदों का अध्ययन) में लीन हो – वह वाणी का तप कहलाता है।"

व्याख्या:
वाणी का तप यह है कि व्यक्ति ऐसा बोलता है जो सत्य और मधुर हो, लेकिन किसी को कष्ट न पहुँचाए। स्वाध्याय और भक्ति से ऐसी वाणी का विकास होता है।


श्लोक 16

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥

अर्थ:
"मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्म-नियंत्रण, और भावों की शुद्धता – यह मन का तप कहलाता है।"

व्याख्या:
मानसिक तप का अर्थ है मन को शांत और प्रसन्न रखना। इसके लिए व्यक्ति को मौन रहना चाहिए, भावनाओं को नियंत्रित करना चाहिए और पवित्र विचारों को अपनाना चाहिए।


श्लोक 17

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥

अर्थ:
"जो तप श्रद्धा से और परम उद्देश्य (मोक्ष) को प्राप्त करने के लिए किया जाता है, और जिसमें किसी फल की इच्छा नहीं होती, वह सात्त्विक तप कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक तप शुद्ध मन और श्रद्धा से किया जाता है। इसमें भौतिक लाभ की कोई इच्छा नहीं होती और यह आत्मा की शुद्धि और भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए किया जाता है।


श्लोक 18

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥

अर्थ:
"जो तप आदर, मान-सम्मान और पूजा प्राप्त करने के लिए तथा दिखावे के लिए किया जाता है, वह राजसिक तप कहलाता है। यह अस्थिर और नाशवान होता है।"

व्याख्या:
राजसिक तप उन लोगों द्वारा किया जाता है जो केवल प्रशंसा, मान-सम्मान और भौतिक लाभ के लिए तप करते हैं। यह तप स्थायी फल नहीं देता और व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति की ओर नहीं ले जाता।


सारांश (श्लोक 11-18):

  1. यज्ञ के प्रकार:

    • सात्त्विक यज्ञ: बिना फल की आकांक्षा के, शास्त्रों के अनुसार किया गया यज्ञ।
    • राजसिक यज्ञ: दिखावे और भौतिक लाभ के लिए किया गया यज्ञ।
    • तामसिक यज्ञ: शास्त्रविरुद्ध और बिना श्रद्धा के किया गया यज्ञ।
  2. तप के प्रकार:

    • शारीरिक तप: गुरु, देवता, और विद्वानों की पूजा, शुद्धता और अहिंसा।
    • वाणी का तप: सत्य, प्रिय और हितकारी वाणी बोलना।
    • मानसिक तप: मन की शांति, आत्म-नियंत्रण, और पवित्रता।
  3. तप की श्रेणियाँ:

    • सात्त्विक तप: बिना किसी फल की इच्छा के, आत्मा की उन्नति के लिए किया गया तप।
    • राजसिक तप: मान-सम्मान और भौतिक लाभ के लिए किया गया तप।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि यज्ञ, तप, और दान जैसे कर्म तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) से प्रेरित होते हैं। सात्त्विक कर्म व्यक्ति को शुद्धता और मोक्ष की ओर ले जाते हैं, जबकि राजसिक और तामसिक कर्म बंधन और अधोगति का कारण बनते हैं।

शनिवार, 5 जुलाई 2025

भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) श्रद्धा का परिचय (श्लोक 1-2), सत्त्वगुणयुक्त श्रद्धा (श्लोक 3-10)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 17 (श्रद्धात्रय विभाग योग) के श्लोक 1 से 10 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने श्रद्धा के तीन प्रकार (सत्त्व, रजस और तमस) और भोजन की प्रकृति के बारे में विस्तार से बताया है।


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण, जो लोग शास्त्रों के नियमों को त्यागकर श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा कैसी होती है? क्या वह सत्त्व (पवित्रता), रजस (क्रियाशीलता) या तमस (अज्ञान) से प्रेरित होती है?"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि यदि कोई व्यक्ति शास्त्रों के निर्देशों का पालन न करते हुए भी श्रद्धा से पूजा करता है, तो उसकी श्रद्धा किस प्रकार की मानी जाएगी। यह प्रश्न श्रद्धा और उसके प्रभाव को समझने की जिज्ञासा से प्रेरित है।


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: देहधारी प्राणियों की श्रद्धा तीन प्रकार की होती है – सत्त्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी। अब मैं तुम्हें इनका वर्णन करता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि श्रद्धा मनुष्य के स्वभाव और गुणों पर निर्भर करती है। ये श्रद्धा सत्त्व (पवित्रता), रजस (भोग और क्रियाशीलता) और तमस (अज्ञान और आलस्य) से प्रेरित हो सकती है।


श्लोक 3

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥

अर्थ:
"हे भारत, प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव के अनुरूप होती है। मनुष्य श्रद्धा के अनुसार ही होता है; वह जैसा विश्वास करता है, वैसा ही बन जाता है।"

व्याख्या:
भगवान यह समझाते हैं कि व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव और गुणों को प्रकट करती है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के चरित्र और कर्मों का आधार होती है।


श्लोक 4

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः॥

अर्थ:
"सात्त्विक लोग देवताओं की पूजा करते हैं, राजसिक लोग यक्षों और राक्षसों की, और तामसिक लोग प्रेतों और भूतों की पूजा करते हैं।"

व्याख्या:
भगवान ने श्रद्धा के तीन प्रकार के आधार पर पूजा की प्रकृति का वर्णन किया है।

  • सात्त्विक श्रद्धा से व्यक्ति देवताओं की पूजा करता है।
  • राजसिक श्रद्धा से व्यक्ति शक्ति और भोग की इच्छा से यक्षों और राक्षसों की पूजा करता है।
  • तामसिक श्रद्धा से व्यक्ति प्रेत, भूत और नकारात्मक शक्तियों की पूजा करता है।

श्लोक 5-6

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतेग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥

अर्थ:
"जो लोग शास्त्रविहित न होकर घोर तप करते हैं, जो दंभ (ढोंग), अहंकार और इच्छाओं से युक्त हैं, और जो अपने शरीर और उसमें स्थित आत्मा को कष्ट देते हैं, ऐसे अज्ञानी लोगों को आसुरी स्वभाव वाला जानो।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो लोग दिखावे और अहंकार से प्रेरित होकर अनावश्यक कठोर तप करते हैं, वे केवल अपने शरीर और आत्मा को कष्ट देते हैं। ऐसे लोग आसुरी स्वभाव के होते हैं और उनके कर्म अधर्म की ओर ले जाते हैं।


श्लोक 7

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥

अर्थ:
"भोजन भी सभी के लिए तीन प्रकार का होता है। इसी प्रकार यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं। अब मैं तुम्हें उनके भेद समझाऊँगा।"

व्याख्या:
भगवान यह बताते हैं कि केवल श्रद्धा ही नहीं, बल्कि भोजन, यज्ञ, तप और दान भी सत्त्व, रजस और तमस के आधार पर तीन प्रकार के होते हैं।


श्लोक 8

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥

अर्थ:
"जो भोजन आयु, सत्त्व, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाता है, जो रसयुक्त, स्निग्ध (पौष्टिक), स्थिर (शरीर को स्थिर रखने वाला) और हृदय को प्रिय होता है, वह सात्त्विक भोजन है।"

व्याख्या:
सात्त्विक भोजन वह है जो शरीर और मन को शुद्ध करता है। यह पोषण देता है और व्यक्ति को स्वस्थ, सुखी और शांत बनाता है।


श्लोक 9

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुख्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥

अर्थ:
"जो भोजन कड़वा, खट्टा, नमकीन, बहुत गरम, तीखा, रूखा और जलन पैदा करने वाला हो, वह राजसिक भोजन है। ऐसा भोजन दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करता है।"

व्याख्या:
राजसिक भोजन तृष्णा और क्रियाशीलता को बढ़ाता है। यह भोजन शरीर को नुकसान पहुँचाता है और मानसिक अशांति पैदा करता है।


श्लोक 10

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥

अर्थ:
"जो भोजन बासी, बिना रस का, दुर्गंधयुक्त, बर्बाद किया हुआ, खराब हो चुका, या अपवित्र हो, वह तामसिक भोजन है।"

व्याख्या:
तामसिक भोजन शरीर और मन को दूषित करता है। यह आलस्य, अज्ञान और स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न करता है। ऐसे भोजन से व्यक्ति का आध्यात्मिक पतन होता है।


सारांश (श्लोक 1-10):

  1. श्रद्धा के तीन प्रकार:

    • सात्त्विक: पवित्र और शांतिपूर्ण।
    • राजसिक: भोग और शक्ति की इच्छा से प्रेरित।
    • तामसिक: अज्ञान और नकारात्मकता से भरा हुआ।
  2. भोजन के तीन प्रकार:

    • सात्त्विक भोजन: स्वास्थ्य और शांति को बढ़ावा देता है।
    • राजसिक भोजन: तृष्णा और अशांति उत्पन्न करता है।
    • तामसिक भोजन: आलस्य और अज्ञान को बढ़ाता है।
  3. तप और कर्म:

    • शास्त्रविहित कर्म और तप सच्चे धर्म का पालन करते हैं।
    • दिखावे और अहंकार से प्रेरित कर्म अधर्म की ओर ले जाते हैं।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि श्रद्धा, भोजन, यज्ञ, तप और दान सभी का प्रभाव व्यक्ति के स्वभाव और जीवन पर पड़ता है। सत्त्वगुण को अपनाने से जीवन पवित्र और शांतिपूर्ण बनता है, जबकि रजस और तमस गुण आत्मा को अधोगति की ओर ले जाते हैं।

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