शनिवार, 26 अप्रैल 2025

भागवत गीता: अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग) गुणों के प्रभाव और उनका फल (श्लोक 14-22)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग) के श्लोक 14 से श्लोक 22 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने तीनों गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के प्रभाव और उनसे ऊपर उठने के मार्ग का वर्णन किया है।


श्लोक 14

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते॥

अर्थ:
"जब सत्त्व गुण बढ़ा हुआ होता है और देहधारी मृत्यु को प्राप्त करता है, तो वह श्रेष्ठ लोकों में जाता है, जो पवित्र और ज्ञानियों के लोक हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि सत्त्व गुण में मृत्यु होने पर व्यक्ति उच्चतर लोकों में जाता है, जहाँ शुद्धता, ज्ञान और शांति का वास होता है। यह शुभ कर्मों और आत्मज्ञान का परिणाम है।


श्लोक 15

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥

अर्थ:
"रजस गुण में मृत्यु होने पर, व्यक्ति कर्म के प्रति आसक्त प्राणियों के बीच जन्म लेता है। तमस गुण में मृत्यु होने पर, वह अज्ञानमय योनियों में जन्म लेता है।"

व्याख्या:

  • रजस गुण में मृत्यु होने पर व्यक्ति भौतिक कर्मों और इच्छाओं में लिप्त योनियों में जन्म लेता है।
  • तमस गुण में मृत्यु होने पर व्यक्ति अज्ञानपूर्ण और अधम योनियों (पशु आदि) में जन्म लेता है।

श्लोक 16

कर्मणः सुकृतस्याहु: सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्॥

अर्थ:
"सात्त्विक कर्म का फल शुद्ध (निर्मल) और सुखद होता है, रजस का फल दुःख होता है, और तमस का फल अज्ञान होता है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि हर गुण का फल अलग होता है:

  • सत्त्व गुण शांति और शुद्धता लाता है।
  • रजस गुण तनाव और अशांति देता है।
  • तमस गुण अज्ञान और आलस्य को बढ़ावा देता है।

श्लोक 17

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥

अर्थ:
"सत्त्व से ज्ञान उत्पन्न होता है, रजस से लोभ, और तमस से प्रमाद (लापरवाही), मोह और अज्ञान उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक गुणों के प्रभाव को स्पष्ट करता है:

  • सत्त्व ज्ञान और विवेक को बढ़ाता है।
  • रजस भौतिक इच्छाओं और लोभ को उत्पन्न करता है।
  • तमस व्यक्ति को अज्ञान और भ्रम में डाल देता है।

श्लोक 18

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥

अर्थ:
"जो सत्त्व में स्थित हैं, वे ऊपर (उच्च लोकों) को जाते हैं। जो रजस में स्थित हैं, वे मध्य में रहते हैं। और जो तमस में स्थित हैं, वे निम्न लोकों (अधोगति) को जाते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि व्यक्ति के गुण उसकी गति (जीवन के बाद की अवस्था) को निर्धारित करते हैं:

  • सत्त्व गुण आत्मा को ऊर्ध्व (मोक्ष या उच्च लोकों) की ओर ले जाता है।
  • रजस गुण व्यक्ति को सांसारिक बंधनों में फँसाए रखता है।
  • तमस गुण अधोगति (निचली योनियाँ) को उत्पन्न करता है।

श्लोक 19

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥

अर्थ:
"जब व्यक्ति देखता है कि गुणों के सिवा अन्य कोई कर्ता नहीं है, और वह गुणों से परे मेरे स्वरूप को जानता है, तो वह मेरी स्थिति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि गुण ही सभी कर्मों के मूल कारण हैं। जब व्यक्ति इसे समझता है और भगवान के शुद्ध स्वरूप को जानता है, तो वह गुणों से परे जाकर मोक्ष को प्राप्त करता है।


श्लोक 20

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥

अर्थ:
"जो आत्मा इन तीन गुणों (सत्त्व, रजस और तमस) को पार कर लेता है, वह जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और दुःख से मुक्त होकर अमृत (मोक्ष) को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को त्रिगुणों से ऊपर उठना होगा। इन गुणों से मुक्त होने पर आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहर निकलकर शाश्वत आनंद (मोक्ष) प्राप्त करती है।


श्लोक 21

अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्गैस्त्रींगुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रींगुणानतिवर्तते॥

अर्थ:
"अर्जुन ने पूछा: हे प्रभु, किन लक्षणों से यह जाना जा सकता है कि कोई त्रिगुणों को पार कर गया है? ऐसे व्यक्ति का आचरण कैसा होता है और वह इन गुणों को कैसे पार करता है?"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि जो व्यक्ति त्रिगुणों को पार कर चुका है, उसे कैसे पहचाना जाए, उसका जीवन कैसा होता है, और वह इन गुणों से ऊपर कैसे उठता है। यह आत्मा की प्रगति का मार्ग जानने की जिज्ञासा है।


श्लोक 22

श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: हे पाण्डव, जो व्यक्ति सत्त्व के प्रकाश, रजस की क्रियाशीलता और तमस के मोह को प्राप्त होने पर घृणा नहीं करता और उनके दूर होने पर उन्हें चाहता भी नहीं, वह त्रिगुणों से ऊपर होता है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि गुणों से परे होने का लक्षण यह है कि व्यक्ति इन गुणों से प्रभावित नहीं होता। वह गुणों की उपस्थिति या अनुपस्थिति में समान रहता है।


सारांश (श्लोक 14-22):

  1. गुणों की मृत्यु के समय की गति:
    • सत्त्व गुण मृत्यु के बाद उच्च लोकों की प्राप्ति कराता है।
    • रजस गुण व्यक्ति को कर्मों में फँसाए रखता है।
    • तमस गुण व्यक्ति को अधोगति की ओर ले जाता है।
  2. गुणों का प्रभाव:
    • सत्त्व सुख और ज्ञान लाता है।
    • रजस कर्मों में उलझाता है।
    • तमस अज्ञान और प्रमाद बढ़ाता है।
  3. त्रिगुणों से मुक्ति:
    • गुणों को पार करके जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हुआ जा सकता है।
    • गुणों से ऊपर उठने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है।
  4. गुणातीत के लक्षण:
    • गुणों की उपस्थिति और अनुपस्थिति में समान भाव रखना।

शनिवार, 19 अप्रैल 2025

भागवत गीता: अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग) गुणों का परिचय (श्लोक 1-13)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 14 (गुणत्रय विभाग योग) के श्लोक 1 से 13 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने सत्व, रजस और तमस – इन तीन गुणों (प्रकृति के त्रिगुणों) के प्रभाव और उनके पार जाने के उपायों का वर्णन किया है।


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: मैं फिर से उस परम ज्ञान को बताऊँगा, जो सभी ज्ञानों में श्रेष्ठ है। इसे जानकर सभी ऋषि परम सिद्धि को प्राप्त हो गए।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को सर्वोच्च ज्ञान प्रदान करने की घोषणा करते हैं। यह ज्ञान प्रकृति और उसके गुणों का है, जिसे समझकर व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 2

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥

अर्थ:
"इस ज्ञान को प्राप्त करके मेरे समान स्वरूप को प्राप्त करने वाले साधक न तो सृष्टि के समय जन्म लेते हैं और न प्रलय के समय कष्ट पाते हैं।"

व्याख्या:
जो लोग प्रकृति और त्रिगुणों को समझ लेते हैं, वे जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं और भगवान की दिव्यता को प्राप्त करते हैं।


श्लोक 3

मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥

अर्थ:
"मेरा महान ब्रह्म (प्रकृति) वह गर्भ है, जिसमें मैं बीज स्थापित करता हूँ, और उससे सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि उनकी प्रकृति सृष्टि की आधारभूत शक्ति है, और वह स्वयं इसमें जीवन का बीज स्थापित करते हैं।


श्लोक 4

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, सभी योनियों (जीवों) में जो-जो रूप उत्पन्न होते हैं, उनके लिए प्रकृति माता है और मैं बीज देने वाला पिता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ सृष्टि के माता-पिता (प्रकृति और परमात्मा) के संबंध को स्पष्ट करते हैं। सभी जीव भगवान की कृपा और प्रकृति से उत्पन्न होते हैं।


श्लोक 5

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्॥

अर्थ:
"सत्त्व, रजस और तमस – ये तीन गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और अविनाशी आत्मा को शरीर में बाँधते हैं।"

व्याख्या:
तीनों गुण (सत्व – पवित्रता, रजस – क्रिया, और तमस – अज्ञान) आत्मा को शरीर और संसार से जोड़ते हैं।


श्लोक 6

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ॥

अर्थ:
"सत्त्व गुण पवित्र और प्रकाशमान होने के कारण सुख और ज्ञान के साथ आत्मा को बाँधता है।"

व्याख्या:
सत्त्व गुण आत्मा को सुख और ज्ञान से जोड़े रखता है, लेकिन यह भी मुक्ति में बाधा बन सकता है, क्योंकि यह बंधन पैदा करता है।


श्लोक 7

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्॥

अर्थ:
"रजस गुण राग (आसक्ति) से युक्त है और तृष्णा और कर्मों की लालसा को उत्पन्न करता है। यह आत्मा को कर्मों के बंधन में बाँधता है।"

व्याख्या:
रजस गुण व्यक्ति में भौतिक इच्छाएँ और कर्म करने की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है। यह गुण भौतिक जीवन में उलझाव बढ़ाता है।


श्लोक 8

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत॥

अर्थ:
"तमस गुण अज्ञान से उत्पन्न होता है और सभी प्राणियों को मोह में डाल देता है। यह प्रमाद (लापरवाही), आलस्य और निद्रा के साथ आत्मा को बाँधता है।"

व्याख्या:
तमस गुण अज्ञान, आलस्य और लापरवाही का कारण बनता है। यह आत्मा को अंधकार में बाँधता है और आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डालता है।


श्लोक 9

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत॥

अर्थ:
"सत्त्व गुण सुख से जोड़ता है, रजस गुण कर्म में लगाता है, और तमस ज्ञान को ढँककर प्रमाद (लापरवाही) से जोड़ता है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि तीनों गुण अलग-अलग प्रकार के बंधन उत्पन्न करते हैं: सत्त्व सुख का बंधन, रजस कर्मों का बंधन, और तमस अज्ञान और आलस्य का बंधन।


श्लोक 10

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा॥

अर्थ:
"हे भारत, कभी-कभी सत्त्व रजस और तमस को दबाकर प्रबल हो जाता है। इसी प्रकार, रजस सत्त्व और तमस को दबा सकता है, और तमस सत्त्व और रजस को दबा सकता है।"

व्याख्या:
तीनों गुण समय और परिस्थितियों के अनुसार एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। कभी एक गुण प्रबल हो जाता है, तो कभी दूसरा।


श्लोक 11

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत॥

अर्थ:
"जब इस शरीर के सभी द्वारों (इंद्रियों) में प्रकाश (ज्ञान) उत्पन्न होता है, तब समझना चाहिए कि सत्त्व गुण बढ़ गया है।"

व्याख्या:
सत्त्व गुण की वृद्धि से व्यक्ति में शुद्धता, शांति और ज्ञान का उदय होता है। उसकी इंद्रियाँ और मन निर्मल हो जाते हैं।


श्लोक 12

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, जब रजस गुण बढ़ता है, तो लोभ, क्रियाशीलता, कर्मों का आरंभ, अशांति और तृष्णा उत्पन्न होती है।"

व्याख्या:
रजस गुण की वृद्धि से व्यक्ति में भौतिक इच्छाएँ, असंतोष और निरंतर गतिविधियाँ बढ़ जाती हैं। वह शांत नहीं रह पाता।


श्लोक 13

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन॥

अर्थ:
"हे कुरुनंदन, जब तमस गुण बढ़ता है, तब अंधकार, निष्क्रियता, प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
तमस गुण की वृद्धि से व्यक्ति अज्ञान, आलस्य और भ्रम में डूब जाता है। उसकी आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति रुक जाती है।


सारांश (श्लोक 1-13):

  1. तीन गुणों का परिचय:
    • सत्त्व: शुद्धता और ज्ञान से जोड़ता है।
    • रजस: कर्म और इच्छाओं को बढ़ाता है।
    • तमस: अज्ञान, आलस्य और मोह का कारण बनता है।
  2. गुणों का प्रभाव:
    • सत्त्व सुख और शांति देता है।
    • रजस कर्मों में सक्रिय करता है लेकिन अशांति लाता है।
    • तमस आलस्य, प्रमाद और अज्ञान बढ़ाता है।
  3. गुणों का पारस्परिक प्रभाव:
    • गुण एक-दूसरे को प्रभावित और नियंत्रित करते हैं।
  4. मुक्ति का मार्ग:
    • इन गुणों को समझकर, और उनके प्रभावों से ऊपर उठकर, व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

शनिवार, 12 अप्रैल 2025

भगवद्गीता: अध्याय 14 - गुणत्रयविभाग योग

भगवद गीता – चतुर्दश अध्याय: गुणत्रयविभाग योग

(Gunatraya Vibhaga Yoga – The Yoga of the Division of the Three Gunas)

📖 अध्याय 14 का परिचय

गुणत्रयविभाग योग गीता का चौदहवाँ अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण प्रकृति के तीन गुणों (सत्व, रजस और तमस) की विशेषताओं और उनके प्रभावों को समझाते हैं। वे बताते हैं कि इन गुणों से ऊपर उठकर परमात्मा की भक्ति में स्थित रहना ही मोक्ष का मार्ग है।

👉 मुख्य भाव:

  • तीन गुण – सत्व, रजस और तमस।
  • गुणों के प्रभाव और उनके आधार पर व्यक्ति का आचरण।
  • गुणातीत (गुणों से परे) बनकर मोक्ष प्राप्त करना।

📖 श्लोक (14.20):

"गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥"

📖 अर्थ: जो जीव इन तीनों गुणों (सत्व, रजस और तमस) से परे हो जाता है, वह जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और सभी दुखों से मुक्त होकर अमृत (मोक्ष) को प्राप्त करता है।

👉 यह अध्याय हमें सिखाता है कि हमें सत्वगुण को अपनाकर, रजोगुण और तमोगुण से बचते हुए, भक्ति के द्वारा इन गुणों से ऊपर उठना चाहिए।


🔹 1️⃣ श्रीकृष्ण का उपदेश – परम ज्ञान

📌 1. भगवान का सर्वोच्च ज्ञान (Verses 1-3)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह ज्ञान सबसे श्रेष्ठ है, जिससे व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
  • परमात्मा संपूर्ण सृष्टि के मूल कारण हैं।

📖 श्लोक (14.3):

"मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥"

📖 अर्थ: मेरा महत् ब्रह्म (प्रकृति) गर्भधारण करती है, और उसमें मैं जीवों का बीज डालता हूँ। इस प्रकार संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है।

👉 भगवान स्वयं सृष्टि के पालनहार और सभी जीवों के मूल कारण हैं।


🔹 2️⃣ प्रकृति के तीन गुण – सत्व, रजस, और तमस

📌 2. तीनों गुणों का वर्णन (Verses 5-9)

भगवान बताते हैं कि प्रकृति के तीन गुण होते हैं –

गुण स्वरूप प्रभाव
सत्व (Satva) प्रकाश, ज्ञान और शुद्धता व्यक्ति को ज्ञान, शांति, और आनंद की ओर ले जाता है।
रजस (Rajas) गतिविधि, इच्छा और भोग व्यक्ति को लालसा, कर्म, और संघर्ष की ओर ले जाता है।
तमस (Tamas) अज्ञान, जड़ता और आलस्य व्यक्ति को आलस्य, भ्रम और अज्ञानता की ओर ले जाता है।

📖 श्लोक (14.6):

"तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ॥"

📖 अर्थ: सत्वगुण निर्मल (शुद्ध) है, ज्ञान और प्रकाश देने वाला है। यह व्यक्ति को सुख और ज्ञान से बाँधता है।

📖 श्लोक (14.7):

"रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्॥"

📖 अर्थ: रजोगुण इच्छाओं और आसक्ति से उत्पन्न होता है और यह व्यक्ति को कर्मों में बाँधता है।

📖 श्लोक (14.8):

"तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत॥"

📖 अर्थ: तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है और यह प्रमाद (लापरवाही), आलस्य और निद्रा के द्वारा जीव को बाँधता है।

👉 तीनों गुण व्यक्ति के स्वभाव और कर्मों को नियंत्रित करते हैं।


🔹 3️⃣ मृत्यु के समय गुणों का प्रभाव

📌 3. मृत्यु के समय जो गुण प्रधान होता है, वही अगले जन्म को निर्धारित करता है (Verses 14-15)

  • सत्व में मरने वाला व्यक्ति दिव्य लोकों को प्राप्त करता है।
  • रजस में मरने वाला व्यक्ति पुनः कर्मशील जन्म लेता है।
  • तमस में मरने वाला व्यक्ति निम्न योनि (जानवर, कीट, आदि) में जन्म लेता है।

📖 श्लोक (14.14):

"यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते॥"

📖 अर्थ: जब कोई व्यक्ति सत्वगुण में मृत्यु को प्राप्त करता है, तो वह उच्च लोकों को प्राप्त करता है।

👉 इसलिए, हमें अपने जीवन में सत्वगुण को अपनाने का प्रयास करना चाहिए।


🔹 4️⃣ गुणों से ऊपर उठकर मोक्ष प्राप्ति

📌 4. कैसे इन गुणों से मुक्त हुआ जाए? (Verses 19-20)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति सत्व, रजस, और तमस के प्रभाव से मुक्त हो जाता है, वही मोक्ष को प्राप्त करता है।
  • यह मुक्ति केवल भक्ति योग के माध्यम से संभव है।

📖 श्लोक (14.19):

"नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥"

📖 अर्थ: जब कोई यह समझता है कि कर्मों के कर्ता केवल गुण हैं और वह स्वयं उनसे परे है, तो वह मेरी दिव्य अवस्था को प्राप्त करता है।

👉 गुणों से परे जाकर व्यक्ति भगवान में स्थित हो सकता है।


🔹 5️⃣ गुणातीत बनने का मार्ग

📌 5. गुणातीत (गुणों से परे) व्यक्ति के लक्षण (Verses 22-25)

  • जो व्यक्ति सुख-दुःख में समान रहता है, मोह-माया से मुक्त होता है, और न भोगों में आसक्त होता है, न त्याग करता है, वह गुणातीत है।

📖 श्लोक (14.22-23):

"प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥"

📖 अर्थ: जो प्रकाश (सत्व), कर्म (रजस) और मोह (तमस) के होने पर द्वेष नहीं करता और उनके हटने पर भी उनकी इच्छा नहीं करता, वह गुणों से परे हो जाता है।

👉 गुणों से ऊपर उठने के लिए व्यक्ति को आत्मसंयम और भक्ति का पालन करना चाहिए।


🔹 6️⃣ भगवान में स्थित व्यक्ति ही सच्चा मुक्त आत्मा है

📌 6. जो भगवान की शरण में आता है, वह गुणों से मुक्त हो जाता है (Verse 26)

📖 श्लोक (14.26):

"मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥"

📖 अर्थ: जो व्यक्ति अनन्य भक्ति के द्वारा मेरी शरण में आता है, वह इन तीनों गुणों को पार करके ब्रह्म-स्थिति को प्राप्त करता है।

👉 इसका अर्थ है कि गुणों से मुक्त होने का सर्वोत्तम मार्ग भक्ति योग है।


🔹 7️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

1. सत्व, रजस और तमस – ये तीनों गुण हमारे कर्मों और स्वभाव को नियंत्रित करते हैं।
2. मृत्यु के समय जो गुण प्रधान होगा, उसी के अनुसार अगला जन्म होगा।
3. इन गुणों से परे जाकर ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
4. भक्ति योग के द्वारा ही व्यक्ति सच्ची मुक्ति (गुणातीत अवस्था) को प्राप्त कर सकता है।

शनिवार, 5 अप्रैल 2025

भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग योग) ज्ञान और अज्ञान के भेद (श्लोक 20-34)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 13 (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग) के श्लोक 20 से श्लोक 34 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति और पुरुष (आत्मा) के संबंध, संसार के कार्य, आत्मा का स्वरूप और मुक्ति के उपायों को समझाया है।


श्लोक 20

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्॥

अर्थ:
"प्रकृति (भौतिक संसार) और पुरुष (आत्मा) को अनादि मानो। विकार (परिवर्तन) और गुण (सत्व, रज, तम) प्रकृति से उत्पन्न होते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि प्रकृति और आत्मा दोनों ही अनादि (जिसका कोई आरंभ नहीं है) हैं। विकार (शरीर के परिवर्तन) और तीन गुण (सत्व, रजस, तमस) प्रकृति के ही परिणाम हैं।


श्लोक 21

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥

अर्थ:
"सृष्टि के कार्य और करण (इंद्रियाँ) को उत्पन्न करने में प्रकृति कारण है, और सुख-दुःख को भोगने वाला आत्मा (पुरुष) है।"

व्याख्या:
प्रकृति कर्म का आधार है और आत्मा इन कर्मों के फलों का अनुभव करती है। यह आत्मा और प्रकृति के बीच का संबंध है।


श्लोक 22

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥

अर्थ:
"आत्मा प्रकृति में स्थित होकर प्रकृति के गुणों को भोगता है। गुणों के प्रति आसक्ति ही अच्छे और बुरे जन्मों का कारण है।"

व्याख्या:
आत्मा प्रकृति के संपर्क में आने से सुख-दुःख का अनुभव करता है। यह संपर्क ही पुनर्जन्म और कर्मचक्र का आधार बनता है।


श्लोक 23

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥

अर्थ:
"शरीर में स्थित आत्मा (पुरुष) साक्षी, अनुमोदक, धारक, भोक्ता और महेश्वर (परमात्मा) है। इसे परमात्मा भी कहा जाता है।"

व्याख्या:
परमात्मा शरीर में रहते हुए साक्षी के रूप में कर्मों का निरीक्षण करता है, लेकिन वह स्वयं कर्मों में लिप्त नहीं होता। यह परमात्मा ही आत्मा का मार्गदर्शक है।


श्लोक 24

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥

अर्थ:
"जो पुरुष और प्रकृति को गुणों के साथ जान लेता है, वह चाहे जैसे भी कर्म करता हो, फिर जन्म नहीं लेता।"

व्याख्या:
जो व्यक्ति आत्मा और प्रकृति के भेद को समझ लेता है, वह कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है।


श्लोक 25

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥

अर्थ:
"कुछ लोग ध्यान द्वारा आत्मा को आत्मा में ही देखते हैं, कुछ सांख्य योग से और कुछ कर्म योग के द्वारा।"

व्याख्या:
मोक्ष के मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। कोई ध्यान (मेडिटेशन) के द्वारा आत्मा को जानता है, तो कोई सांख्य योग (तत्व ज्ञान) और कर्म योग के माध्यम से।


श्लोक 26

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः॥

अर्थ:
"जो लोग इस ज्ञान को नहीं समझते, वे दूसरों से सुनकर भगवान की भक्ति करते हैं। ऐसे श्रवण करने वाले भी मृत्यु के पार चले जाते हैं।"

व्याख्या:
भक्ति और ज्ञान का अभ्यास न कर पाने वाले लोग भी भगवान के नाम का श्रवण और भजन करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।


श्लोक 27

यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, जो भी स्थावर (अचल) और जंगम (चलायमान) सत्त्व उत्पन्न होता है, उसे क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के संयोग से जानो।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि सभी प्राणी शरीर और आत्मा के संयोग से उत्पन्न होते हैं। शरीर प्रकृति का और आत्मा परमात्मा का अंश है।


श्लोक 28

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति सभी प्राणियों में स्थित परमेश्वर को समान रूप से देखता है और नाशवान शरीर में अविनाशी आत्मा को देखता है, वही सच्चा दृष्टा है।"

व्याख्या:
सच्चा ज्ञानी वही है जो हर प्राणी में परमात्मा की समान उपस्थिति को देखता है और समझता है कि शरीर नाशवान है, पर आत्मा अविनाशी है।


श्लोक 29

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततः याति परां गतिम्॥

अर्थ:
"जो हर जगह परमात्मा को समान रूप से देखता है, वह स्वयं को (आत्मा को) नष्ट नहीं करता और इस प्रकार परम गति को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
समान दृष्टि रखने वाला व्यक्ति अहंकार और भ्रम से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है।


श्लोक 30

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति॥

अर्थ:
"जो यह देखता है कि सभी कर्म केवल प्रकृति के गुणों द्वारा किए जा रहे हैं और आत्मा अकर्ता (कर्म न करने वाला) है, वही सच्चा दृष्टा है।"

व्याख्या:
आत्मा केवल साक्षी है, वह कर्मों में लिप्त नहीं होती। कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं। इसे समझना मुक्ति का मार्ग है।


श्लोक 31

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तरं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥

अर्थ:
"जब व्यक्ति विभिन्न प्राणियों के अलग-अलग भावों को एक ही स्थान (परमात्मा) में देखता है और समझता है कि सबकुछ वहीं से विस्तारित हो रहा है, तब वह ब्रह्म को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि सभी प्राणी एक ही परमात्मा के अंश हैं। इसे समझने वाला व्यक्ति ब्रह्मज्ञान प्राप्त करता है।


श्लोक 32

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, परमात्मा अनादि और निर्गुण होने के कारण अविनाशी है। वह शरीर में स्थित होने पर भी न कुछ करता है और न कर्मों से लिप्त होता है।"

व्याख्या:
परमात्मा शरीर में स्थित होकर भी कर्मों से अछूता रहता है, क्योंकि वह निर्गुण और अनादि है।


श्लोक 33

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥

अर्थ:
"जैसे आकाश सर्वत्र विद्यमान होने पर भी किसी से लिप्त नहीं होता,

वैसे ही आत्मा शरीर में स्थित होने पर भी उससे लिप्त नहीं होती।"

व्याख्या:
आत्मा का स्वरूप आकाश की तरह है – सर्वव्यापी और निर्लिप्त।


श्लोक 34

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥

अर्थ:
"जैसे सूर्य पूरे संसार को प्रकाश देता है, वैसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) पूरे शरीर को प्रकाश देता है।"

व्याख्या:
आत्मा शरीर का चेतन तत्व है, जो शरीर को ज्ञान और अनुभव प्रदान करता है, जैसे सूर्य प्रकाश देता है।


सारांश (श्लोक 20-34):

  1. प्रकृति और पुरुष:
    • प्रकृति कर्म और विकारों का कारण है।
    • आत्मा सुख-दुःख का भोक्ता है।
  2. परमात्मा का स्वरूप:
    • वह साक्षी, अनुमोदक और निर्लिप्त है।
    • सभी में समान रूप से विद्यमान है।
  3. ज्ञान का मार्ग:
    • आत्मा और प्रकृति के भेद को समझना।
    • समान दृष्टि रखना और निर्लिप्तता को अपनाना।
  4. मुक्ति का साधन:
    • परमात्मा की सर्वव्यापकता को समझकर, प्रकृति के कर्मों में उलझे बिना जीवन जीना।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

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