शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

भागवत गीता: अध्याय 12 (भक्ति योग) भक्ति के मार्ग का महत्व (श्लोक 1-5)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 12 (भक्ति योग) के श्लोक 1 से श्लोक 5 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है:


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: जो भक्त आपके साकार रूप की भक्ति करते हैं और जो अव्यक्त (निर्गुण) और अक्षर (न बदलने वाले) की आराधना करते हैं, उनमें से कौन योग में श्रेष्ठ है?"

व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन का प्रश्न है, जिसमें वह भगवान से पूछते हैं कि क्या साकार रूप (दृश्य, मूर्ति आदि) की भक्ति श्रेष्ठ है या अव्यक्त (निर्गुण ब्रह्म) की साधना। यह भक्तों के दो मार्गों – साकार उपासना और निर्गुण उपासना – के बीच की तुलना का आधार प्रस्तुत करता है।


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेताः ते मे युक्ततमाः मताः॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: जो लोग अपने मन को मुझमें लगाकर, मुझसे सदा जुड़े रहते हैं और परम श्रद्धा के साथ मेरी उपासना करते हैं, वे मुझे सबसे अधिक प्रिय और श्रेष्ठ योगी लगते हैं।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि साकार रूप की भक्ति, जिसमें भक्त भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रेम रखते हैं, श्रेष्ठ है। इसमें व्यक्ति भगवान के प्रति अपनी भावनाओं और ध्यान को केंद्रित करता है।


श्लोक 3-4

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यञ्च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥

अर्थ:
"जो लोग अव्यक्त, अनिर्देश्य, सर्वत्र व्याप्त, अचिंत्य, अचल और शाश्वत ब्रह्म की आराधना करते हैं, और अपने इंद्रियों को संयमित कर, सभी प्राणियों में समानता का भाव रखते हैं, वे भी मुझे प्राप्त करते हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह स्वीकार करते हैं कि निर्गुण ब्रह्म की साधना करने वाले योगी भी उन्हें प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन यह मार्ग कठिन है क्योंकि इसमें इंद्रियों पर नियंत्रण और सभी में समानता का दृष्टिकोण आवश्यक है।


श्लोक 5

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥

अर्थ:
"जिनका चित्त अव्यक्त (निर्गुण ब्रह्म) में लगा हुआ है, उनके लिए यह मार्ग अधिक कष्टप्रद है। क्योंकि अव्यक्त की साधना देहधारी प्राणियों के लिए कठिन है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म की साधना का मार्ग कठिन और श्रमसाध्य है, क्योंकि यह साकार रूप के बिना है और इसे साधने के लिए अत्यधिक आत्मसंयम और अभ्यास की आवश्यकता होती है। इसलिए, भगवान की साकार भक्ति करना सरल और अधिक प्रभावी है।


सारांश (श्लोक 1-5):

  1. अर्जुन ने भगवान से साकार और निर्गुण उपासना में श्रेष्ठता के बारे में पूछा।
  2. भगवान ने बताया कि साकार रूप की भक्ति, जिसमें भक्त भगवान के प्रति श्रद्धा और प्रेम रखते हैं, सरल और श्रेष्ठ है।
  3. निर्गुण ब्रह्म की साधना भी संभव है, लेकिन यह कठिन और कष्टप्रद है।
  4. भगवान की भक्ति का मार्ग उन लोगों के लिए अधिक उपयुक्त है जो भावनाओं और प्रेम के माध्यम से भगवान को प्राप्त करना चाहते हैं।

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