बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

शिव तांडव स्तोत्रम्

 

शिव तांडव स्तोत्रम्

रचनाकार: रावण
भावार्थ: इस स्तोत्र में भगवान शिव के तांडव नृत्य, उनकी महिमा, शक्ति और सौंदर्य का अद्भुत वर्णन किया गया है।


॥ शिव तांडव स्तोत्रम् ॥

1.
जटाटवी-गलज्जल प्रवाह-पावित-स्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग-तुङ्ग-मालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्ड-ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥1॥

✅ अर्थ:
जिनकी जटाओं से बहने वाले गंगाजल से उनका गला पवित्र हो रहा है, जो अपने गले में बड़े-बड़े सर्पों की माला धारण किए हुए हैं और डमरू की गूंज के साथ प्रचंड तांडव कर रहे हैं, वे शिव हमें मंगल प्रदान करें।


2.
जटा-कटा-हसंभ्रम-भ्रमन्निलिम्प-निर्झरी-
विलोल-वीचि-वल्लरी-विराज-मान-मूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाट-पट्ट-पावके
किशोर-चन्द्र-शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥2॥

✅ अर्थ:
जिनकी जटाओं से गिरती हुई गंगा की लहरें उनके सिर पर शोभायमान हैं, जिनके ललाट पर अग्नि जल रही है और जिनके मस्तक पर अर्धचंद्र शोभा पा रहा है, मैं उन शिवजी की आराधना में लीन रहूं।


3.
धराधरेन्द्र-नन्दिनी-विलास-बन्धु-बन्धुर
स्फुरद्दिगन्त-सन्तति-प्रमोद-मान-मानसे।
कृपाकटाक्ष-धोरणी-निरुद्ध-दुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरेऽ मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥

✅ अर्थ:
जो गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती के प्रियतम हैं, जिनके कृपा-कटाक्ष से संसार के सभी संकट दूर हो जाते हैं और जो दिगम्बर रूप में स्थित हैं, मेरा मन उन्हीं शिवजी में आनंदित हो।


4.
जटा-भुजङ्ग-पिङ्गल-स्फुरत्फणामणि-प्रभा
कदम्ब-कुङ्कुम-द्रव-प्रलिप्त-दिग्वधूमुखे।
मदान्ध-सिन्धुर-स्फुरत्कराल-भाल-हव्यवत्
धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ॥4॥

✅ अर्थ:
जिनकी जटाओं में सुशोभित सर्पों के फणों की मणियों से निकलने वाली चमक दिशाओं को प्रकाशित कर रही है, जिनकी अग्नि से कामदेव भस्म हो गए थे, उन शिवजी को मेरा प्रणाम।


5.
ललाट-चत्वर-ज्वलद्धनञ्जय-स्फुलिङ्गभा
निपीत-पञ्चसायकं नमन्निलिम्प-नायकम्।
सुधा-मयूख-लेखया विराजमान-शेखरं
महाकपालिसम्पदे शिरोजटालमस्तु नः ॥5॥

✅ अर्थ:
जिनके ललाट की अग्नि में कामदेव भस्म हो गए थे, जो समस्त देवताओं के स्वामी हैं और जिनके मस्तक पर चंद्रमा शोभायमान है, वे महाकाल हमें समृद्धि प्रदान करें।


6.
कराल-भाल-पट्टिका-धगद्धगद्धगज्ज्वल
द्धनञ्जया-हुतीकृत-प्रचण्ड-पञ्च-सायक।
धराधरेन्द्र-नन्दिनी-कुचाग्र-चित्रपत्रक
प्रकल्प-नैक-शिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥6॥

✅ अर्थ:
जिनके भाल प्रदेश में भयंकर अग्नि प्रज्वलित है, जिनकी ज्वाला में कामदेव भस्म हो गए थे और जो माता पार्वती के हृदय में प्रेम की कला रचने वाले हैं, उन त्रिलोचन शिव में मेरी भक्ति बनी रहे।


7.
नवीन-मेघ-मण्डली-निरुद्ध-दुर्धर-स्फुरत्
कुहूनिशीथि-नीधि-नीलपङ्कजं दृशा।
विनिर्गमत्-क्रमस्फुरत्-कराल-भाल-हव्यवत्
धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ॥7॥

✅ अर्थ:
जो घने काले बादलों से आच्छादित आकाश के समान हैं, जिनकी दृष्टि चंद्रमा के समान शीतल है, और जिनके ललाट की अग्नि ने कामदेव को भस्म कर दिया था, उन शिवजी की मैं वंदना करता हूँ।


8.
स्फुरत्-कपोल-पीठिका-नितम्ब-बर्हि-पीत्म-
कुसुमोपहार-पार्वती-निसेविताऽशिवः।
तपस्यधिगतं ह्यहं न वेद वन्दनं
तनोतु नः शिवः शिवम् ॥8॥

✅ अर्थ:
जिनके कपोल और नितंबों पर अद्भुत आभा है, जो पार्वतीजी के प्रियतम हैं और जो निरंतर तपस्वियों द्वारा वंदित होते हैं, वे शिव हमें कल्याण प्रदान करें।


शिव तांडव स्तोत्र के पाठ के लाभ

  • इस स्तोत्र के नियमित पाठ से मानसिक शक्ति बढ़ती है।
  • यह सभी नकारात्मक ऊर्जाओं और भय को दूर करता है।
  • भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है और कष्टों से मुक्ति मिलती है।
  • मन को शांति और आध्यात्मिक बल मिलता है।

🙏 हर हर महादेव! 🙏 

शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

भागवत गीता: अध्याय 12 (भक्ति योग) सच्चे भक्त के गुण (श्लोक 6-12)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 12 (भक्ति योग) के श्लोक 6 से श्लोक 12 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है:


श्लोक 6-7

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युंसंसारसागरात्।
भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥

अर्थ:
"जो लोग अपने सभी कर्मों को मुझमें अर्पित करके, मुझे परम मानकर, अनन्य योग से मेरा ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मैं उन्हें मृत्यु और संसार के सागर से शीघ्र ही उबार लेता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो भक्त भगवान को अपना सबकुछ मानकर उनके प्रति पूर्ण समर्पण और श्रद्धा से कर्म करते हैं, वे संसार के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। भगवान स्वयं ऐसे भक्तों का उद्धार करते हैं और उन्हें मोक्ष प्रदान करते हैं।


श्लोक 8

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥

अर्थ:
"अपने मन और बुद्धि को मुझमें लगा दो। इसके बाद, तुम निश्चित रूप से मुझमें निवास करोगे। इसमें कोई संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को सीधा मार्ग दिखाते हैं – अपने मन और बुद्धि को भगवान में केंद्रित करके, भक्त भगवान में ही निवास करता है। यह भक्ति का सबसे सरल और निश्चित तरीका है।


श्लोक 9

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय॥

अर्थ:
"यदि तुम अपना मन मुझमें स्थिर नहीं कर सकते, तो हे धनंजय (अर्जुन), अभ्यास योग के माध्यम से मुझे प्राप्त करने की इच्छा करो।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि यदि भक्त अपने मन को स्थिर रूप से भगवान में केंद्रित करने में सक्षम नहीं है, तो उसे अभ्यास योग के माध्यम से भगवान की भक्ति करनी चाहिए। धीरे-धीरे अभ्यास करने से मन भगवान में लगने लगता है।


श्लोक 10

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि॥

अर्थ:
"यदि तुम अभ्यास योग में भी असमर्थ हो, तो मेरे लिए कर्म करते रहो। मेरे लिए कार्य करते हुए, तुम सिद्धि को प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
यदि भक्त मन को स्थिर नहीं कर सकता और अभ्यास भी नहीं कर पाता, तो उसे भगवान के लिए कार्य करना चाहिए। भगवान के लिए किया गया कर्म भी भक्त को मोक्ष की ओर ले जाता है।


श्लोक 11

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्॥

अर्थ:
"यदि तुम भगवान के लिए कर्म करने में भी असमर्थ हो, तो मेरे आश्रय में रहते हुए सभी कर्मों के फलों का त्याग करो। आत्मसंयम से ऐसा करते हुए तुम सिद्धि को प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि यदि भक्त भगवान के लिए कर्म भी नहीं कर सकता, तो उसे अपने सभी कर्मों के फल को त्याग देना चाहिए। यह त्याग और आत्मसंयम उसे आध्यात्मिक प्रगति की ओर ले जाएगा।


श्लोक 12

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥

अर्थ:
"अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, और ध्यान से कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से शांति प्राप्त होती है।"

व्याख्या:
भगवान भक्त को आध्यात्मिक प्रगति के क्रमिक चरणों का वर्णन करते हैं:

  1. अभ्यास से आत्मज्ञान प्राप्त होता है।
  2. ज्ञान से ध्यान की शक्ति बढ़ती है।
  3. ध्यान के माध्यम से व्यक्ति कर्मों के फल का त्याग करना सीखता है।
  4. यह त्याग अंततः शांति और मोक्ष की ओर ले जाता है।

सारांश (श्लोक 6-12):

  1. भगवान उन भक्तों को संसार के बंधनों से मुक्त करते हैं, जो उन्हें अनन्य भाव से भजते हैं।
  2. मन और बुद्धि को भगवान में लगाना भक्ति का सर्वोच्च मार्ग है।
  3. यदि यह संभव न हो, तो अभ्यास योग, भगवान के लिए कर्म करना, या कर्मफल का त्याग करना अन्य विकल्प हैं।
  4. त्याग और आत्मसंयम से शांति और मोक्ष प्राप्त होता है।
  5. भगवान का यह मार्गदर्शन हर प्रकार के व्यक्ति के लिए है, चाहे वह किसी भी स्तर पर हो।

शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

भागवत गीता: अध्याय 12 (भक्ति योग) भक्ति के मार्ग का महत्व (श्लोक 1-5)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 12 (भक्ति योग) के श्लोक 1 से श्लोक 5 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है:


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: जो भक्त आपके साकार रूप की भक्ति करते हैं और जो अव्यक्त (निर्गुण) और अक्षर (न बदलने वाले) की आराधना करते हैं, उनमें से कौन योग में श्रेष्ठ है?"

व्याख्या:
यह श्लोक अर्जुन का प्रश्न है, जिसमें वह भगवान से पूछते हैं कि क्या साकार रूप (दृश्य, मूर्ति आदि) की भक्ति श्रेष्ठ है या अव्यक्त (निर्गुण ब्रह्म) की साधना। यह भक्तों के दो मार्गों – साकार उपासना और निर्गुण उपासना – के बीच की तुलना का आधार प्रस्तुत करता है।


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेताः ते मे युक्ततमाः मताः॥

अर्थ:
"श्रीभगवान ने कहा: जो लोग अपने मन को मुझमें लगाकर, मुझसे सदा जुड़े रहते हैं और परम श्रद्धा के साथ मेरी उपासना करते हैं, वे मुझे सबसे अधिक प्रिय और श्रेष्ठ योगी लगते हैं।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि साकार रूप की भक्ति, जिसमें भक्त भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रेम रखते हैं, श्रेष्ठ है। इसमें व्यक्ति भगवान के प्रति अपनी भावनाओं और ध्यान को केंद्रित करता है।


श्लोक 3-4

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यञ्च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥

अर्थ:
"जो लोग अव्यक्त, अनिर्देश्य, सर्वत्र व्याप्त, अचिंत्य, अचल और शाश्वत ब्रह्म की आराधना करते हैं, और अपने इंद्रियों को संयमित कर, सभी प्राणियों में समानता का भाव रखते हैं, वे भी मुझे प्राप्त करते हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह स्वीकार करते हैं कि निर्गुण ब्रह्म की साधना करने वाले योगी भी उन्हें प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन यह मार्ग कठिन है क्योंकि इसमें इंद्रियों पर नियंत्रण और सभी में समानता का दृष्टिकोण आवश्यक है।


श्लोक 5

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥

अर्थ:
"जिनका चित्त अव्यक्त (निर्गुण ब्रह्म) में लगा हुआ है, उनके लिए यह मार्ग अधिक कष्टप्रद है। क्योंकि अव्यक्त की साधना देहधारी प्राणियों के लिए कठिन है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म की साधना का मार्ग कठिन और श्रमसाध्य है, क्योंकि यह साकार रूप के बिना है और इसे साधने के लिए अत्यधिक आत्मसंयम और अभ्यास की आवश्यकता होती है। इसलिए, भगवान की साकार भक्ति करना सरल और अधिक प्रभावी है।


सारांश (श्लोक 1-5):

  1. अर्जुन ने भगवान से साकार और निर्गुण उपासना में श्रेष्ठता के बारे में पूछा।
  2. भगवान ने बताया कि साकार रूप की भक्ति, जिसमें भक्त भगवान के प्रति श्रद्धा और प्रेम रखते हैं, सरल और श्रेष्ठ है।
  3. निर्गुण ब्रह्म की साधना भी संभव है, लेकिन यह कठिन और कष्टप्रद है।
  4. भगवान की भक्ति का मार्ग उन लोगों के लिए अधिक उपयुक्त है जो भावनाओं और प्रेम के माध्यम से भगवान को प्राप्त करना चाहते हैं।

शनिवार, 8 फ़रवरी 2025

भगवद्गीता: अध्याय 12 - भक्तियोग

भगवद गीता – द्वादश अध्याय: भक्तियोग

(Bhakti Yoga – The Yoga of Devotion)

📖 अध्याय 12 का परिचय

भक्तियोग भगवद गीता का बारहवाँ अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण भक्ति (भक्तियोग) को सर्वोच्च मार्ग बताते हैं। इस अध्याय में अर्जुन पूछते हैं कि क्या भगवान के निराकार रूप की उपासना श्रेष्ठ है या साकार रूप की? श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं कि साकार रूप में भक्ति करना सरल और श्रेष्ठ है।

👉 मुख्य भाव:

  • भगवान के साकार और निराकार रूप की उपासना में श्रेष्ठ कौन?
  • भक्ति का सर्वोच्च महत्व।
  • सच्चे भक्त के गुण।

📖 श्लोक (12.6-7):

"ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥"

📖 अर्थ: जो सभी कर्मों को मुझमें अर्पित कर, अनन्य भाव से मेरी भक्ति करते हैं, मैं स्वयं उन्हें मृत्यु और जन्म के चक्र से शीघ्र मुक्त कर देता हूँ।

👉 यह अध्याय स्पष्ट करता है कि भक्ति योग ही भगवान को प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग है।


🔹 1️⃣ अर्जुन का प्रश्न – साकार उपासना श्रेष्ठ या निराकार?

📌 1. अर्जुन का प्रश्न (Verse 1)

अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं –

  • जो भक्त आपके साकार रूप की भक्ति करते हैं और जो आपके निराकार (अव्यक्त) स्वरूप की उपासना करते हैं, उनमें से कौन श्रेष्ठ है?

📖 श्लोक (12.1):

"अर्जुन उवाच: एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥"

📖 अर्थ: अर्जुन बोले – जो साकार रूप में आपकी भक्ति करते हैं और जो निराकार (अव्यक्त) रूप की उपासना करते हैं, उनमें से श्रेष्ठ कौन है?

👉 अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर भगवान श्रीकृष्ण विस्तार से देते हैं।


🔹 2️⃣ श्रीकृष्ण का उत्तर – साकार भक्ति श्रेष्ठ है

📌 2. साकार (Personal Form) भक्ति श्रेष्ठ क्यों है? (Verses 2-5)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो भक्त प्रेम और श्रद्धा से उनके साकार रूप की भक्ति करते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ हैं।
  • जो निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे भी उन्हें प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन यह मार्ग कठिन है।

📖 श्लोक (12.2):

"श्रीभगवानुवाच: मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥"

📖 अर्थ: श्रीकृष्ण बोले – जो मन को मुझमें स्थिर कर, नित्य भक्ति करते हैं, वे मेरे अनुसार श्रेष्ठ योगी हैं।

📖 श्लोक (12.5):

"क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥"

📖 अर्थ: जिनका चित्त निराकार ब्रह्म में आसक्त है, उनके लिए यह मार्ग कठिन है, क्योंकि शरीरधारी जीव के लिए निराकार उपासना करना कठिन है।

👉 इसका अर्थ है कि भगवान को प्राप्त करने के लिए साकार रूप की भक्ति करना सरल और प्रभावी है।


🔹 3️⃣ भक्ति का सर्वोच्च महत्व

📌 3. अनन्य भक्ति करने वालों की रक्षा स्वयं भगवान करते हैं (Verses 6-7)

  • जो अनन्य भक्ति से भगवान का ध्यान करते हैं, उनकी रक्षा स्वयं भगवान करते हैं और उन्हें जन्म-मरण के बंधन से मुक्त कर देते हैं।

📖 श्लोक (12.7):

"तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥"

📖 अर्थ: जो भक्त अनन्य भाव से मेरी शरण में आते हैं, मैं स्वयं उन्हें जन्म-मरण के सागर से शीघ्र मुक्त कर देता हूँ।

👉 भगवान स्वयं अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और उनका उद्धार करते हैं।


🔹 4️⃣ भक्ति के विभिन्न मार्ग

📌 4. यदि कोई उच्च भक्ति नहीं कर सकता, तो क्या करे? (Verses 8-12)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि यदि कोई व्यक्ति पूर्ण भक्ति नहीं कर सकता, तो वह निम्नलिखित उपायों को अपना सकता है:
क्रम क्या करना चाहिए?
1️⃣ सर्वोच्च मार्ग मन को भगवान में पूर्ण रूप से लगाकर उनकी भक्ति करना।
2️⃣ दूसरा मार्ग यदि यह संभव न हो, तो ध्यान (Meditation) द्वारा भगवान को स्मरण करना।
3️⃣ तीसरा मार्ग यदि ध्यान संभव न हो, तो भगवान के लिए कर्म करना (सेवा, यज्ञ, दान)।
4️⃣ चौथा मार्ग यदि यह भी संभव न हो, तो अपने सभी कर्मों का फल भगवान को समर्पित करना।

📖 श्लोक (12.11):

"अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्॥"

📖 अर्थ: यदि तू यह भी करने में असमर्थ है, तो सभी कर्मों के फल का त्याग कर दे और आत्मसंयम के साथ जीवन व्यतीत कर।

👉 भगवान को प्राप्त करने के लिए कई मार्ग हैं, लेकिन सभी मार्ग भक्ति से जुड़े हैं।


🔹 5️⃣ सच्चे भक्त के गुण

📌 5. जो भक्त भगवान को प्रिय होते हैं, उनके गुण (Verses 13-20)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो भक्त निर्मल हृदय, अहंकार-रहित, सहनशील और निष्काम होते हैं, वे उन्हें अत्यंत प्रिय होते हैं।

📖 श्लोक (12.13-14):

"अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी॥"

"संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥"

📖 अर्थ: जो किसी से द्वेष नहीं करता, जो मित्रवत, करुणामय, अहंकार-रहित, सुख-दुःख में समान रहने वाला, क्षमाशील और संतोषी है, वह भक्त मुझे प्रिय है।

👉 भगवान को पाने के लिए भक्ति के साथ इन गुणों को अपनाना आवश्यक है।


🔹 6️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. भगवान की साकार भक्ति करना सरल और प्रभावी है।
2. जो भक्त अनन्य भाव से भक्ति करता है, भगवान उसकी रक्षा स्वयं करते हैं।
3. यदि उच्च स्तर की भक्ति संभव न हो, तो ध्यान, सेवा या कर्मफल का त्याग करना चाहिए।
4. सच्चे भक्त को अहंकार, द्वेष, क्रोध और लोभ से मुक्त होना चाहिए।
5. भगवान को वही भक्त प्रिय होते हैं, जो समता, शांति और प्रेम से युक्त होते हैं।


🔹 निष्कर्ष

1️⃣ भक्तियोग गीता का वह अध्याय है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण भक्ति के महत्व को समझाते हैं।
2️⃣ साकार रूप की भक्ति सरल और श्रेष्ठ है, जबकि निराकार भक्ति कठिन है।
3️⃣ जो भक्त भगवान में पूर्ण समर्पण करता है, उसका उद्धार स्वयं भगवान करते हैं।
4️⃣ भगवान को वही भक्त प्रिय होते हैं, जो अहंकार, लोभ और द्वेष से मुक्त होते हैं।

शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) भगवान का उपदेश और आशीर्वाद (श्लोक 31-46)

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) भगवान का उपदेश और आशीर्वाद (श्लोक 31-46) का अर्थ और व्याख्या

श्लोक 31

अख्याहि मे को भवानुग्ररूपो।
नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यम्।
न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्॥

अर्थ:
"हे उग्ररूप वाले देव, आप कौन हैं? मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कृपया मुझ पर कृपा करें। मैं आपके प्रारंभिक स्वरूप को जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति (कार्य) को नहीं समझ पा रहा हूँ।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप की विशालता और भयानकता देखकर अर्जुन भयभीत हो जाते हैं। वे भगवान से उनके रूप और उद्देश्य को स्पष्ट करने की प्रार्थना करते हैं।


श्लोक 32

श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो।
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे।
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: मैं समय (काल) हूँ, जो लोकों के विनाश के लिए बढ़ा हुआ हूँ। यहाँ आए सभी योद्धा, चाहे तुम्हारे बिना भी, नष्ट हो जाएंगे।"

व्याख्या:
भगवान अपने रूप को "काल" के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो सृष्टि का संहारक है। वे अर्जुन को बताते हैं कि महाभारत के युद्ध में सभी योद्धाओं का विनाश निश्चित है।


श्लोक 33

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व।
जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव।
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥

अर्थ:
"इसलिए, उठो और यश प्राप्त करो। अपने शत्रुओं को पराजित करो और समृद्ध राज्य का आनंद लो। इन योद्धाओं का वध पहले ही मेरे द्वारा तय किया जा चुका है। हे सव्यसाचिन, तुम केवल निमित्त मात्र हो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन से कहते हैं कि उन्हें युद्ध करना है, लेकिन वह केवल एक माध्यम हैं। भगवान ने पहले ही नियति तय कर दी है, और अर्जुन को केवल अपने कर्तव्य का पालन करना है।


श्लोक 34

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च।
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा।
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्॥

अर्थ:
"द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और अन्य महान योद्धा मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं। इसलिए, तुम इन्हें मारो और चिंता मत करो। युद्ध करो और शत्रुओं को पराजित करो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि उनका विजय निश्चित है क्योंकि उनके शत्रु पहले ही भगवान की योजना के तहत नष्ट हो चुके हैं।


श्लोक 35

संजय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य।
कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं।
सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य॥

अर्थ:
"संजय ने कहा: केशव के इन वचनों को सुनकर, अर्जुन (किरीटी) भयभीत और काँपते हुए, हाथ जोड़कर भगवान को बार-बार प्रणाम करते हुए, गदगद वाणी में बोले।"

व्याख्या:
भगवान के वचनों और विश्वरूप को देखकर अर्जुन भय और श्रद्धा से भर गए। उनकी विनम्रता और समर्पण भगवान के प्रति उनकी गहरी भक्ति को दर्शाते हैं।


श्लोक 36

अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या।
जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति।
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे हृषीकेश, आपके यश का वर्णन करना उचित है, जिससे यह जगत हर्षित और प्रसन्न होता है। राक्षस भयभीत होकर भागते हैं और सिद्धगण आपकी स्तुति करते हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के दिव्य स्वरूप और उनकी महिमा को स्वीकार करते हैं। भगवान की महिमा से दुष्ट प्राणी भयभीत होते हैं और भक्त प्रसन्न होते हैं।


श्लोक 37

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्।
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास।
त्वमक्षरं सत्यमसत्परं यत्॥

अर्थ:
"हे महात्मा, ब्रह्मा के भी आदिकर्ता, अनंत, देवताओं के स्वामी और जगत के निवास स्थान, आपको कौन प्रणाम न करे? आप अक्षय और सत्य हैं, जो इस सृष्टि के परे हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान की श्रेष्ठता और उनकी महिमा का वर्णन करते हैं। भगवान ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ और सृष्टि का आधार हैं।


श्लोक 38

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः।
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम।
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥

अर्थ:
"आप आदिदेव, पुरातन पुरुष और इस विश्व के परम आधार हैं। आप जानने वाले, जानने योग्य और परम धाम हैं। यह सम्पूर्ण विश्व आपके अनंत रूप से व्याप्त है।"

व्याख्या:
भगवान को सृष्टि के मूल और सर्वोच्च तत्व के रूप में वर्णित किया गया है। वे ही सबकुछ हैं और सबकुछ उनमें स्थित है।


श्लोक 39

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः।
प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः।
पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥

अर्थ:
"आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा, प्रजापति और प्रपितामह हैं। मैं आपको हजारों बार प्रणाम करता हूँ और बार-बार आपको प्रणाम करता हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान को सभी प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं का स्रोत मानकर बार-बार उनकी स्तुति और प्रणाम करते हैं।


श्लोक 40

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते।
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं।
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥

अर्थ:
"आपको आगे, पीछे और हर दिशा में प्रणाम। हे सर्वशक्तिमान, आपकी शक्ति और पराक्रम अनंत हैं। आप सबकुछ व्याप्त करते हैं, इसलिए आप ही सबकुछ हैं।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के सर्वव्यापक स्वरूप को स्वीकार करते हैं और उन्हें हर दिशा में प्रणाम करते हैं।


श्लोक 41-42

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं।
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं।
मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि।
विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं।
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥

अर्थ:
"हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा, मैंने आपको मित्र मानकर जो भी अज्ञानतावश, प्रेमवश या लापरवाही में कहा है, चाहे हँसी में, खेल में, शय्या पर, भोजन में या अन्यत्र – उन सभी के लिए मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप को देखकर अर्जुन को अपनी गलती का अहसास होता है। वे भगवान से क्षमा माँगते हैं कि उन्होंने उन्हें एक सामान्य मित्र समझकर कई बार असम्मानजनक बातें कीं।


श्लोक 43

पितासि लोकस्य चराचरस्य।
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो।
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥

अर्थ:
"आप इस चराचर संसार के पिता, पूज्य और महान गुरु हैं। तीनों लोकों में कोई भी आपके समान या आपसे श्रेष्ठ नहीं है। आपकी महिमा अप्रतिम है।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान को चराचर संसार का आधार और सभी के पूज्य गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं। वे बताते हैं कि उनकी महिमा की कोई तुलना नहीं है।


श्लोक 44

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं।
प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः।
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥

अर्थ:
"इसलिए मैं आपको प्रणाम करता हूँ और अपने शरीर को झुकाकर आपसे क्षमा की प्रार्थना करता हूँ। जैसे पिता पुत्र को, सखा सखा को, और प्रिय प्रियजन को सहन करता है, वैसे ही आप भी मुझे क्षमा करें।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से प्रार्थना करते हैं कि वे उन्हें अपनी शरण में लें और उनकी गलतियों को क्षमा करें। यह भगवान के प्रति अर्जुन के पूर्ण समर्पण और विनम्रता को दर्शाता है।


श्लोक 45-46

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा।
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं।
प्रसीद देवेश जगन्निवास॥
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तम्।
इच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन।
सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते॥

अर्थ:
"आपके इस अद्भुत रूप को देखकर मैं हर्षित हुआ हूँ, लेकिन मेरा मन भयभीत हो गया है। हे देवेश, हे जगन्निवास, कृपया मुझ पर कृपा करें और मुझे फिर से आपका चतुर्भुज रूप दिखाएँ। हे सहस्रबाहु, मैं आपको उसी रूप में देखना चाहता हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के विश्वरूप को देखकर उत्साहित होने के साथ-साथ भयभीत भी हैं। वे भगवान से अनुरोध करते हैं कि वे अपने शांत और चतुर्भुज रूप में प्रकट हों, जो अधिक सहज और प्रिय है।


सारांश (श्लोक 31-46):

  1. भगवान ने अपने विश्वरूप में स्वयं को "काल" (विनाश का रूप) बताया।
  1. अर्जुन ने देखा कि सभी योद्धा भगवान के मुख में प्रवेश कर रहे हैं।
  2. अर्जुन ने भगवान से क्षमा मांगी और उनकी महिमा का वर्णन किया।
  3. भगवान के भयंकर रूप को देखकर अर्जुन भयभीत हो गए और उनसे कृपा की प्रार्थना की।
  4. अर्जुन ने भगवान से अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट होने का अनुरोध किया।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...