शनिवार, 30 नवंबर 2024

भगवद्गीता: अध्याय 10 - विभूति योग

भगवद गीता – दशम अध्याय: विभूति योग

(Vibhuti Yoga – The Yoga of Divine Glories)

📖 अध्याय 10 का परिचय

विभूति योग भगवद गीता का दसवाँ अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण अपनी दिव्य विभूतियों (Divine Glories) का विस्तार से वर्णन करते हैं। वे अर्जुन को बताते हैं कि संपूर्ण सृष्टि में जो भी महान, शक्तिशाली और दिव्य है, वह केवल उनकी महिमा का अंश मात्र है।

👉 मुख्य भाव:

  • भगवान का सर्वज्ञान और सर्वशक्तिमान स्वरूप
  • श्रद्धा और भक्ति से ही भगवान को जाना जा सकता है
  • भगवान की विभूतियाँ (Divine Glories) सृष्टि के हर उत्तम रूप में प्रकट होती हैं

📖 श्लोक (10.20):

"अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥"

📖 अर्थ: हे अर्जुन! मैं सभी जीवों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं सभी भूतों का आदि, मध्य और अंत हूँ।

👉 यह अध्याय हमें भगवान की सर्वव्यापकता और उनकी दिव्य शक्तियों का ज्ञान कराता है।


🔹 1️⃣ भगवान के दिव्य गुण और भक्ति का महत्व

📌 1. भगवान की सर्वज्ञता और उनकी महिमा (Verses 1-7)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे ही संपूर्ण ब्रह्मांड के स्रष्टा, पालनहार और संहारकर्ता हैं।
  • केवल श्रद्धावान भक्त ही उनकी महिमा को समझ सकते हैं।

📖 श्लोक (10.3):

"यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥"

📖 अर्थ: जो मुझे अजन्मा, अनादि और संपूर्ण लोकों का स्वामी जानता है, वह मोह से मुक्त होकर सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

👉 भगवान को जानने से ही जन्म-मरण के बंधनों से मुक्ति संभव है।


🔹 2️⃣ भगवान भक्तों को विशेष ज्ञान प्रदान करते हैं

📌 2. भगवान स्वयं भक्तों को दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं (Verses 8-11)

  • जो भक्त सच्चे प्रेम से भगवान की भक्ति करते हैं, उन्हें स्वयं भगवान विशेष ज्ञान (दिव्य बुद्धि) प्रदान करते हैं।

📖 श्लोक (10.10):

"तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥"

📖 अर्थ: जो भक्त सदा प्रेमपूर्वक मेरी भक्ति में लगे रहते हैं, उन्हें मैं वह दिव्य बुद्धि प्रदान करता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त कर सकें।

👉 सच्ची भक्ति करने से भगवान स्वयं भक्तों को सही मार्ग दिखाते हैं।


🔹 3️⃣ अर्जुन की जिज्ञासा और भगवान की विभूतियाँ

📌 3. अर्जुन भगवान की महिमा जानना चाहते हैं (Verses 12-18)

  • अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हैं कि "हे कृष्ण! कृपया अपनी महान विभूतियों (Divine Glories) का वर्णन करें।"
  • वे स्वीकार करते हैं कि केवल भगवान ही स्वयं को पूर्ण रूप से जान सकते हैं।

📖 श्लोक (10.14):

"सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥"

📖 अर्थ: हे केशव! जो कुछ भी आप कह रहे हैं, मैं उसे पूर्ण सत्य मानता हूँ। आपकी वास्तविक महिमा को न देवता जानते हैं, न ही दानव।

👉 केवल भगवान ही अपनी वास्तविक शक्ति को पूर्ण रूप से जानते हैं।


🔹 4️⃣ भगवान की प्रमुख विभूतियाँ

📌 4. श्रीकृष्ण की 20 महत्वपूर्ण विभूतियाँ (Verses 19-42)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि उनकी महिमा सृष्टि के प्रत्येक महान, दिव्य और शक्तिशाली वस्तु या व्यक्ति में प्रकट होती है।
  • वे स्वयं को प्रत्येक वर्ग के श्रेष्ठतम व्यक्ति या वस्तु के रूप में प्रकट करते हैं।

📖 श्लोक (10.41):

"यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्॥"

📖 अर्थ: जो कुछ भी तेजस्वी, प्रभावशाली और दिव्य है, उसे मेरी ही शक्ति का एक अंश जानो।

👉 संसार में जो भी दिव्य, महान और शक्तिशाली है, वह भगवान की ही झलक है।


🔹 श्रीकृष्ण की कुछ महत्वपूर्ण विभूतियाँ

वर्ग भगवान की विभूति
ऋषियों में नारद, व्यास, शुकदेव
देवताओं में इंद्र
सिद्धों में कपिल मुनि
वेदों में सामवेद
यज्ञों में जप-यज्ञ (मंत्र जप)
नदियों में गंगा
पर्वतों में हिमालय
वृक्षों में पीपल
पशुओं में सिंह
पक्षियों में गरुड़
युद्धनीतियों में नीति (नीतिशास्त्र)
दैत्यों में प्रह्लाद
शस्त्रधारियों में राम
नक्षत्रों में चंद्रमा
सांस्कृतिक कलाओं में नृत्य और संगीत

👉 भगवान की विभूतियाँ सृष्टि के प्रत्येक श्रेष्ठतम तत्व में विद्यमान हैं।


🔹 5️⃣ भगवान की अपार शक्ति का सारांश

📌 5. भगवान की शक्ति अनंत है (Verses 42)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनकी विभूतियाँ अनंत हैं और इस पूरी सृष्टि को उन्होंने केवल अपने एक अंश से धारण कर रखा है।

📖 श्लोक (10.42):

"अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥"

📖 अर्थ: हे अर्जुन! इतनी विभूतियों को जानकर क्या करोगे? मैंने तो इस समस्त जगत को अपने एक छोटे से अंश से धारण कर रखा है।

👉 भगवान की महिमा अनंत है, और उन्होंने पूरी सृष्टि को केवल अपने एक अंश से धारण किया हुआ है।


🔹 6️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. भगवान की महिमा संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है।
2. भक्ति के माध्यम से ही भगवान को सच्चे रूप में जाना जा सकता है।
3. भगवान स्वयं अपने भक्तों को दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं।
4. संसार की हर महान वस्तु और शक्ति भगवान की ही झलक है।
5. भगवान ने पूरे ब्रह्मांड को अपने केवल एक अंश से धारण किया है।


🔹 निष्कर्ष

1️⃣ विभूति योग गीता का वह अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण अपनी अनंत शक्तियों और विभूतियों का वर्णन करते हैं।
2️⃣ संसार में जो कुछ भी दिव्य, शक्तिशाली और महान है, वह भगवान की ही महिमा का अंश है।
3️⃣ भगवान की भक्ति करने वाले भक्तों को वे स्वयं दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं।
4️⃣ संपूर्ण ब्रह्मांड भगवान की ऊर्जा से व्याप्त है, और उन्होंने इसे अपने केवल एक अंश से धारण किया है।

शनिवार, 23 नवंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) भक्तों के गुण और भगवान के प्रति भक्ति (श्लोक 27-34)

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) भक्तों के गुण और भगवान के प्रति भक्ति (श्लोक 27-34) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 27

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, जो कुछ भी तुम करते हो, जो खाते हो, जो यज्ञ करते हो, जो दान देते हो और जो तप करते हो, वह सब मुझे अर्पण करो।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जीवन के हर कर्म को भगवान को अर्पण करना चाहिए। यह मानसिकता व्यक्ति को अहंकार और फलासक्ति से मुक्त करती है और उसे भगवान के प्रति समर्पित करती है।


श्लोक 28

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥

अर्थ:
"इस प्रकार, शुभ और अशुभ कर्मों के फलों से मुक्त होकर, संन्यास योग में स्थित होकर, तुम मुझमें समर्पित हो जाओगे और मुझ तक पहुँचोगे।"

व्याख्या:
यह श्लोक समझाता है कि जब व्यक्ति अपने सभी कर्म भगवान को अर्पित करता है, तो वह शुभ और अशुभ कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है। यह मुक्ति उसे भगवान के दिव्य धाम तक पहुँचाती है।


श्लोक 29

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥

अर्थ:
"मैं सभी प्राणियों के प्रति समान हूँ। न कोई मुझे प्रिय है, न कोई अप्रिय। लेकिन जो भक्त मुझे भक्ति से पूजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ।"

व्याख्या:
भगवान सभी प्राणियों के प्रति समान भाव रखते हैं। लेकिन भक्ति के कारण भक्त और भगवान का गहरा संबंध बनता है, जो उन्हें और करीब ले आता है।


श्लोक 30

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥

अर्थ:
"यदि कोई व्यक्ति बहुत दुराचारपूर्ण आचरण वाला हो, लेकिन वह अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है, तो उसे साधु ही समझा जाना चाहिए, क्योंकि उसने सही निश्चय किया है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भक्ति के महान महत्व को दर्शाता है। भक्ति से व्यक्ति के दुष्कर्म मिट सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति सच्चे हृदय से भगवान की भक्ति करता है, तो वह साधु के रूप में स्वीकार्य है।


श्लोक 31

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥

अर्थ:
"वह (दुराचारी) शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शांति को प्राप्त करता है। हे कौन्तेय, यह जान लो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।"

व्याख्या:
भगवान अपने भक्तों को आश्वासन देते हैं कि सच्ची भक्ति से कोई भी व्यक्ति, चाहे उसका अतीत कैसा भी रहा हो, धर्मात्मा बन सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 32

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो लोग पाप योनि में जन्मे हैं, जैसे स्त्रियाँ, वैश्य, और शूद्र, वे भी मेरी शरण लेकर परमगति को प्राप्त कर सकते हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह कहते हैं कि उनकी भक्ति के लिए किसी की जाति, लिंग, या जन्म मायने नहीं रखता। हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी परिस्थिति में हो, उनकी शरण में जाकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 33

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥

अर्थ:
"तो फिर वे पुण्य आत्मा, ब्राह्मण और भक्तराजर्षि क्यों नहीं (मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं)? इसलिए, इस अस्थायी और दुखमय संसार में आकर, मेरी भक्ति करो।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि यदि असामान्य परिस्थितियों वाले लोग मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, तो श्रेष्ठ जन्म वाले और भक्त निश्चित रूप से भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। यह संसार अस्थायी और दुखमय है, इसलिए भक्ति ही सच्चा समाधान है।


श्लोक 34

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥

अर्थ:
"मुझमें मन लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार, मुझमें एकीकृत होकर, तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
यह श्लोक भक्ति योग का सार है। भगवान अपने भक्तों से प्रेम और समर्पण के साथ अपनी भक्ति करने को कहते हैं। भक्ति, पूजा, और भगवान में मन लगाने से मोक्ष प्राप्त होता है।


सारांश (श्लोक 27-34):

  1. सभी कर्मों को भगवान को अर्पण करने से व्यक्ति कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है।
  2. भगवान सभी के प्रति समान हैं, लेकिन भक्ति करने वालों से उनका विशेष संबंध बनता है।
  3. भक्ति योग में प्रवेश करने वाला व्यक्ति, चाहे उसका अतीत कैसा भी हो, मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
  4. जाति, लिंग, या सामाजिक स्थिति के बावजूद, हर व्यक्ति भगवान की भक्ति के द्वारा परमगति प्राप्त कर सकता है।
  5. यह संसार अस्थायी और दुखमय है, और भगवान की भक्ति ही इसे पार करने का मार्ग है।

शनिवार, 16 नवंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) भगवान की दिव्य विभूतियाँ और भक्ति (श्लोक 20-26)

 भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) भगवान की दिव्य विभूतियाँ और भक्ति (श्लोक 20-26) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 20

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा।
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकम्।
अश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥

अर्थ:
"जो लोग वेदों के तीन भागों (त्रैविद्या) को जानते हैं, सोम रस का पान करके और यज्ञों द्वारा मुझे पूजते हैं, वे पापों से मुक्त होकर स्वर्ग की प्राप्ति की कामना करते हैं। वे स्वर्गलोक में पहुँचकर दिव्य भोगों का आनंद लेते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक उन लोगों का वर्णन करता है जो वेदों के कर्मकांडीय ज्ञान का पालन करते हैं और स्वर्ग की प्राप्ति के लिए यज्ञ आदि करते हैं। वे पुण्य अर्जित करके स्वर्गीय सुखों का आनंद लेते हैं, लेकिन यह स्थिति स्थायी नहीं है।


श्लोक 21

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं।
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना।
गतागतं कामकामा लभन्ते॥

अर्थ:
"स्वर्ग के विशाल लोक का भोग करने के बाद, जब उनके पुण्य समाप्त हो जाते हैं, तो वे फिर से मर्त्यलोक (पृथ्वी) पर लौट आते हैं। इस प्रकार, जो कामना के वश होकर त्रयीधर्म का पालन करते हैं, वे जन्म-मरण के चक्र में फँसे रहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि स्वर्गलोक में पुण्य के आधार पर सुख भोगने के बाद व्यक्ति को फिर से जन्म लेना पड़ता है। यह सुख अस्थायी है, और स्वर्ग भी मोक्ष का स्थान नहीं है। केवल भगवान की भक्ति ही इस चक्र से मुक्त कर सकती है।


श्लोक 22

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

अर्थ:
"जो भक्त मुझमें अनन्य भाव से चिंतन और भक्ति करते हैं, उनके लिए मैं योग (आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तुओं की रक्षा) का पालन करता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपने भक्तों को आश्वासन देते हैं कि वे उन सभी की जिम्मेदारी लेते हैं जो उन्हें पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ याद करते हैं। वे उनकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं और उनकी सुरक्षा का भी ध्यान रखते हैं।


श्लोक 23

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥

अर्थ:
"जो अन्य देवताओं के भक्त हैं और श्रद्धा से उनकी पूजा करते हैं, वे भी वास्तव में मेरी ही पूजा करते हैं, लेकिन यह अविधिपूर्वक (अनजाने में) होता है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी अंततः भगवान की ही पूजा कर रहे होते हैं, क्योंकि भगवान ही सबका मूल हैं। लेकिन यह पूजा सीधे भगवान तक नहीं पहुँचती, क्योंकि यह विधिपूर्वक नहीं होती।


श्लोक 24

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥

अर्थ:
"मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता (उपभोग करने वाला) और स्वामी हूँ। लेकिन जो लोग मेरे इस सत्य को नहीं जानते, वे चक्र (जन्म-मरण के चक्र) में गिर जाते हैं।"

व्याख्या:
भगवान स्पष्ट करते हैं कि सभी यज्ञ और धार्मिक कृत्य अंततः उन्हें ही समर्पित हैं। लेकिन जो लोग इस सत्य को नहीं समझते और भौतिक लाभ के लिए यज्ञ करते हैं, वे जन्म और मृत्यु के चक्र में फँसे रहते हैं।


श्लोक 25

देवव्रता देवान् पितृव्रता पितॄन्यान्ति।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥

अर्थ:
"जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं को प्राप्त होते हैं। जो पितरों की पूजा करते हैं, वे पितरों को प्राप्त होते हैं। जो भूत-प्रेतों की पूजा करते हैं, वे उन्हें प्राप्त होते हैं। लेकिन जो मेरी भक्ति करते हैं, वे मुझे प्राप्त होते हैं।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि हर पूजा का फल उसी दिशा में जाता है। लेकिन केवल भगवान की भक्ति ही आत्मा को शाश्वत और सर्वोच्च लक्ष्य (मोक्ष) तक पहुंचाती है। अन्य प्रकार की पूजा अस्थायी फल देती है और व्यक्ति को भौतिक चक्र में बांधकर रखती है।


श्लोक 26

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति मुझे भक्ति से पत्ता, फूल, फल, या जल अर्पित करता है, मैं उस भक्तिपूर्ण अर्पण को स्वीकार करता हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की करुणा और सरलता को दर्शाता है। वे अपने भक्तों से केवल प्रेम और भक्ति की अपेक्षा करते हैं, न कि भौतिक संपत्ति की। सच्चे हृदय से किया गया छोटा सा अर्पण भी उन्हें प्रिय है।


सारांश (श्लोक 20-26):

  1. स्वर्ग के सुख अस्थायी हैं: जो लोग यज्ञ और कर्मकांड के माध्यम से स्वर्ग प्राप्त करते हैं, वे पुण्य समाप्त होने पर फिर से संसार में लौट आते हैं।
  2. भक्ति योग सर्वोत्तम है: भगवान अपने भक्तों के योग (आवश्यकता) और क्षेम (सुरक्षा) का ध्यान रखते हैं।
  3. अन्य पूजा भगवान तक अप्रत्यक्ष रूप से पहुँचती है: जो लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी भगवान की ही पूजा करते हैं, लेकिन यह पूजा भगवान को सीधे नहीं पहुंचती।
  4. सच्ची भक्ति सरल और हृदय से होती है: भगवान प्रेम और भक्ति से किए गए किसी भी अर्पण को स्वीकार करते हैं।

शनिवार, 9 नवंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) सृष्टि और भगवान का कार्य (श्लोक 11-19)

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) सृष्टि और भगवान का कार्य (श्लोक 11-19) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 11

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥

अर्थ:
"मूर्ख लोग मेरी इस मानुषी देह को देखकर मेरी अवहेलना करते हैं। वे मेरे परे दिव्य स्वरूप और समस्त प्राणियों के स्वामी होने को नहीं समझते।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि अज्ञानी लोग उन्हें केवल एक साधारण मनुष्य समझते हैं और उनके दिव्य स्वरूप को नहीं पहचानते। उनकी योगमाया के कारण, वे उनके वास्तविक स्वरूप को समझने में असमर्थ रहते हैं।


श्लोक 12

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः॥

अर्थ:
"जिनकी आशाएँ, कर्म, और ज्ञान व्यर्थ हैं, वे लोग राक्षसी और आसुरी प्रकृति में स्थित होते हैं और मोह में पड़ जाते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जो लोग भगवान के प्रति श्रद्धा नहीं रखते, वे व्यर्थ प्रयास करते हैं। उनका ज्ञान और कर्म निष्फल हो जाता है, क्योंकि वे राक्षसी (अहंकारयुक्त) और आसुरी (भौतिकता में लिप्त) स्वभाव को अपनाते हैं।


श्लोक 13

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥

अर्थ:
"हे पार्थ, महात्मा लोग दैवी प्रकृति को अपनाकर मेरी भक्ति करते हैं। वे मुझे भूतों का आदि और अविनाशी जानकर अनन्य मन से मेरी आराधना करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक महात्माओं की विशेषताओं को बताता है। वे दैवी गुणों से युक्त होकर भगवान के अविनाशी और शाश्वत स्वरूप को समझते हैं और एकाग्र मन से उनकी भक्ति करते हैं।


श्लोक 14

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥

अर्थ:
"महात्मा सदा मेरा गुणगान करते हुए, दृढ़ निश्चय के साथ मेरी भक्ति करते हैं। वे मेरी नम्रतापूर्वक पूजा करते हैं और मुझसे सदा जुड़े रहते हैं।"

व्याख्या:
महात्माओं की भक्ति नित्य और अखंड होती है। वे भगवान के प्रति समर्पित रहते हैं, उनके नाम का जाप करते हैं और हर समय उनकी आराधना में लीन रहते हैं।


श्लोक 15

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥

अर्थ:
"कुछ लोग ज्ञान यज्ञ के माध्यम से मुझे उपासते हैं। वे मुझे एकत्व (एक रूप), पृथक्त्व (अलग-अलग रूपों), और अनेक रूपों में विश्व के रूप में देखते हैं।"

व्याख्या:
भगवान विभिन्न भक्तों के उपासना के तरीकों का वर्णन करते हैं। कुछ भक्त उन्हें ब्रह्म (निर्गुण), भगवन् (सगुण), और विश्व (सर्वव्यापक रूप) के रूप में पूजते हैं।


श्लोक 16

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥

अर्थ:
"मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही क्रतु (विधान यज्ञ) हूँ, मैं ही स्वधा (पितरों का आह्वान) हूँ, मैं ही औषधि (जड़ी-बूटी) हूँ। मैं ही मंत्र, मैं ही घी, मैं ही अग्नि और मैं ही हवन सामग्री हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान हर यज्ञ और उसके सभी तत्वों के मूल हैं। सभी धार्मिक कृत्य भगवान के स्वरूप में ही निहित हैं, और उनकी पूजा ही हर यज्ञ का अंतिम उद्देश्य है।


श्लोक 17

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च॥

अर्थ:
"मैं इस जगत का पिता, माता, पालनकर्ता और पितामह (पूर्वज) हूँ। मैं जानने योग्य, पवित्र, ओंकार और वेदों (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद) का आधार हूँ।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे इस संसार के सृजन, पालन और संहार के मूल आधार हैं। वे वेदों के मर्म और सभी धार्मिक ज्ञान के केंद्र हैं।


श्लोक 18

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥

अर्थ:
"मैं ही सबका गंतव्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, निवास स्थान, शरण, सच्चा मित्र, सृष्टि का उद्गम, प्रलय, आधार, आश्रय और अविनाशी बीज हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के विविध दिव्य स्वरूपों को दर्शाता है। वे सभी प्राणियों के लिए शरणस्थल और मार्गदर्शक हैं। वे सृष्टि का आरंभ, मध्य और अंत हैं।


श्लोक 19

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥

अर्थ:
"मैं ही तपन करता हूँ, मैं ही वर्षा करता हूँ। मैं ही इसे रोकता और उत्पन्न करता हूँ। हे अर्जुन, मैं ही अमृत (जीवन), मृत्यु, सत्य और असत्य हूँ।"

व्याख्या:
भगवान अपनी सर्वव्यापकता और सृष्टि में अपनी भूमिका को समझाते हैं। वे ही सभी प्रक्रियाओं के कारण हैं – जीवन और मृत्यु, निर्माण और विनाश, सत्य और असत्य। यह उनकी दिव्यता और सर्वशक्तिमान स्वरूप को प्रकट करता है।


सारांश:

  1. भगवान के स्वरूप को न पहचानने वाले अज्ञानी लोग उनकी अवमानना करते हैं।
  2. महात्मा लोग दैवी प्रकृति को अपनाकर नित्य भक्ति करते हैं और भगवान के दिव्य स्वरूप को पहचानते हैं।
  3. भगवान यज्ञ, वेद, मंत्र, और सभी धार्मिक कृत्यों के मूल हैं।
  4. वे इस संसार के सृजन, पालन और प्रलय के कारण हैं।
  5. भगवान जीवन और मृत्यु, सत्य और असत्य, और हर प्रक्रिया के मूल आधार हैं।

शनिवार, 2 नवंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) राजविद्या और राजगुह्य का उद्घाटन (श्लोक 1-10)

भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) राजविद्या और राजगुह्य का उद्घाटन (श्लोक 1-10) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: मैं तुम्हें यह सबसे गोपनीय ज्ञान (राजविद्या) और अनुभवसहित विज्ञान बताने जा रहा हूँ। इसे जानकर तुम अशुभ (संसार के बंधनों) से मुक्त हो जाओगे।"

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि वह उसे सबसे पवित्र और गोपनीय ज्ञान देने वाले हैं, जिसमें केवल सिद्धांत (ज्ञान) ही नहीं, बल्कि उसका व्यावहारिक अनुभव (विज्ञान) भी शामिल है। यह ज्ञान मोक्ष का मार्ग है।


श्लोक 2

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥

अर्थ:
"यह ज्ञान राजविद्या (ज्ञानों में राजा) और राजगुह्य (गोपनीय रहस्यों में सबसे श्रेष्ठ) है। यह पवित्र, परम उत्तम, प्रत्यक्ष अनुभव करने योग्य, धर्मयुक्त, सुलभ और अविनाशी है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि यह ज्ञान न केवल उच्च और पवित्र है, बल्कि व्यावहारिक रूप से अनुभव किया जा सकता है। यह धर्म के अनुरूप और आत्मा को स्थायी सुख प्रदान करने वाला है।


श्लोक 3

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥

अर्थ:
"हे परंतप (अर्जुन), जो लोग इस धर्म (ज्ञान) में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते और मृत्यु तथा संसार के चक्र में फँसे रहते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि भगवान में श्रद्धा और विश्वास के बिना व्यक्ति संसार के जन्म-मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो सकता। श्रद्धा ही भगवान की भक्ति का आधार है।


श्लोक 4

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मस्तानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥

अर्थ:
"यह सम्पूर्ण जगत मेरी अव्यक्त मूर्ति (दिव्य स्वरूप) से व्याप्त है। सभी प्राणी मुझमें स्थित हैं, लेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के सर्वव्यापक और निराकार स्वरूप को दर्शाता है। भगवान सभी जगह मौजूद हैं, लेकिन वे सृष्टि से अलग रहते हुए भी उसे संचालित करते हैं।


श्लोक 5

न च मस्तानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥

अर्थ:
"और फिर भी, ये सभी प्राणी मुझमें स्थित नहीं हैं। यह मेरा दिव्य योग है। मैं भूतों का पालनकर्ता हूँ, लेकिन उनमें स्थित नहीं हूँ। मेरा आत्मा सबका आधार है।"

व्याख्या:
भगवान अपनी योगमाया (दैवी शक्ति) के माध्यम से सृष्टि का संचालन करते हैं। वे संसार के सभी प्राणियों का पालन करते हैं, लेकिन वे सृष्टि में बंधे नहीं हैं।


श्लोक 6

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मयि स्थितानि पृथिवि॥

अर्थ:
"जैसे वायु, जो सर्वत्र व्याप्त है, आकाश में स्थित रहती है, वैसे ही सभी प्राणी मुझमें स्थित रहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान इस श्लोक में एक उदाहरण देकर बताते हैं कि जैसे वायु आकाश में रहती है लेकिन आकाश पर निर्भर नहीं होती, वैसे ही सृष्टि उनके भीतर है, लेकिन वे उससे अप्रभावित रहते हैं।


श्लोक 7

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, कल्प के अंत में, सभी प्राणी मेरी प्रकृति में विलीन हो जाते हैं और कल्प के आरंभ में, मैं उन्हें पुनः उत्पन्न करता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि सृष्टि एक चक्र के रूप में चलती है। कल्प (ब्रह्मा के दिन) के अंत में प्रलय होता है और सभी प्राणी भगवान की प्रकृति में विलीन हो जाते हैं। जब सृष्टि पुनः आरंभ होती है, तो वे सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं।


श्लोक 8

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥

अर्थ:
"मैं अपनी प्रकृति को अधीन करके इस सम्पूर्ण सृष्टि को बार-बार उत्पन्न करता हूँ। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन होकर जन्म लेते हैं।"

व्याख्या:
भगवान यह बताते हैं कि सृष्टि और प्रलय उनकी प्रकृति के माध्यम से होती है। सभी प्राणी प्रकृति के नियमों के अधीन रहते हैं और भगवान की इच्छा से संचालित होते हैं।


श्लोक 9

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥

अर्थ:
"हे धनञ्जय, ये कर्म मुझे बाँधते नहीं हैं, क्योंकि मैं इन कर्मों में अनासक्त और उदासीन (अप्रभावित) रहता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि सृष्टि का संचालन उनके द्वारा होता है, लेकिन वे इन कर्मों से बंधित नहीं होते। उनकी स्थिति कर्मों से परे और पूर्णतः स्वतंत्र है।


श्लोक 10

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥

अर्थ:
"मेरे अधीन रहते हुए प्रकृति चल-अचल सम्पूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करती है। हे कौन्तेय, इस कारण से यह संसार चक्र में चलता रहता है।"

व्याख्या:
भगवान अपनी स्थिति को सृष्टि के संचालक के रूप में स्पष्ट करते हैं। वे प्रकृति को संचालित करते हैं, जिससे संसार का निर्माण, पालन और प्रलय होता है।


सारांश:

  1. भगवान सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान हैं, लेकिन सृष्टि के कर्मों से अप्रभावित रहते हैं।
  2. सृष्टि और प्रलय प्रकृति के माध्यम से भगवान की इच्छा से होते हैं।
  3. इस ज्ञान और अनुभव को जानकर व्यक्ति संसार के बंधनों से मुक्त हो सकता है।
  4. भगवान के अधीन सब कुछ चलता है, लेकिन वे स्वयं कर्मों के बंधन से परे हैं।
  5. यह ज्ञान मोक्ष का मार्ग प्रदान करता है और व्यक्ति को सृष्टि के रहस्यों को समझने में सक्षम बनाता है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

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