शनिवार, 30 मार्च 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) आदर्श कर्मयोगी के लक्षण (श्लोक 17-24)

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) आदर्श कर्मयोगी के लक्षण (श्लोक 17-24) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 17

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति आत्मा में रत है, आत्मा से तृप्त है और आत्मा में ही संतुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति सभी बाहरी कर्तव्यों और कर्मों से ऊपर होता है। वह आत्मा के आनंद में लीन रहता है और बाहरी कर्म उसके लिए बाध्यता नहीं होते।


श्लोक 18

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥

अर्थ:
"उस व्यक्ति का न तो कर्म में कोई प्रयोजन होता है और न ही अकर्म में। वह किसी भी प्राणी पर निर्भर नहीं रहता।"

व्याख्या:
आत्मज्ञानी व्यक्ति स्वतंत्र होता है। वह किसी भी कर्म या उसके परिणाम से प्रभावित नहीं होता और किसी भी भौतिक या सामाजिक संरचना पर निर्भर नहीं रहता।


श्लोक 19

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः॥

अर्थ:
"इसलिए, आसक्ति रहित होकर सदा अपने कर्तव्य का पालन करो। क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्म करने से व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्मयोग का सार है। आसक्ति से मुक्त होकर किया गया कर्म मोक्ष की ओर ले जाता है।


श्लोक 20

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥

अर्थ:
"जनक जैसे महान व्यक्ति भी कर्म के द्वारा सिद्धि को प्राप्त हुए। इसलिए, लोकसंग्रह (जनहित) के लिए तुम्हें कर्म करना चाहिए।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्म की सामाजिक और नैतिक भूमिका को स्पष्ट करता है। यहां तक कि सिद्ध महापुरुष भी समाज का मार्गदर्शन करने के लिए कर्म करते हैं।


श्लोक 21

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥

अर्थ:
"श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, अन्य लोग भी उसी का अनुकरण करते हैं। जो मानक वह स्थापित करते हैं, वही समाज के लोग अपनाते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक नेतृत्व और आदर्श की महत्ता को बताता है। श्रेष्ठ व्यक्तियों का आचरण समाज को प्रेरित करता है।


श्लोक 22

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥

अर्थ:
"हे पार्थ, तीनों लोकों में मेरे लिए कुछ भी करने योग्य नहीं है। फिर भी, मैं कर्म में लगा रहता हूँ।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि ईश्वर के लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं है, लेकिन वे लोककल्याण और सृष्टि के संचालन के लिए कर्म करते हैं। यह कर्मयोग का आदर्श रूप है।


श्लोक 23

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

अर्थ:
"यदि मैं कर्म में तत्पर न रहूँ, तो हे पार्थ, सभी मनुष्य मेरे मार्ग का अनुसरण करेंगे।"

व्याख्या:
ईश्वर का कर्म में लगा रहना यह सिखाता है कि कर्म समाज और सृष्टि के लिए आवश्यक है। अगर ईश्वर कर्म न करें, तो मनुष्य अनुशासनहीन हो जाएंगे।


श्लोक 24

उत्सीदेयुरिमे लोकाः न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥

अर्थ:
"यदि मैं कर्म न करूं, तो ये लोक नष्ट हो जाएंगे। मैं वर्णसंकरता का कारण बनूंगा और प्रजा का विनाश करूंगा।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि कर्म का त्याग सृष्टि के संतुलन को भंग कर देगा। इसीलिए, हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।


सारांश:

  • आत्मसाक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति कर्म में आसक्त नहीं होता, लेकिन वह लोकहित के लिए कर्म करता है।
  • श्रेष्ठ व्यक्तियों का आचरण समाज के लिए आदर्श बनता है।
  • श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि सभी को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, क्योंकि कर्म से ही सृष्टि का संतुलन बना रहता है।

शनिवार, 23 मार्च 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) यज्ञ और कर्म का संबंध (श्लोक 10-16)

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) यज्ञ और कर्म का संबंध (श्लोक 10-16) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 10

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥

अर्थ:
"सृष्टि के प्रारंभ में प्रजापति ने यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न करके कहा, ‘इस यज्ञ के द्वारा तुम繁 (वृद्धि) को प्राप्त करोगे और यह यज्ञ तुम्हारी इच्छाओं को पूर्ण करेगा।'"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि यज्ञ (समर्पण और सेवा) सृष्टि का आधार है। यज्ञ के माध्यम से मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है और सृष्टि का संतुलन बनाए रख सकता है।


श्लोक 11

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥

अर्थ:
"इस यज्ञ के द्वारा तुम देवताओं को संतुष्ट करो और देवता तुम्हारी आवश्यकताओं को पूर्ण करेंगे। इस प्रकार परस्पर सहयोग से तुम परम कल्याण को प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहां यज्ञ के सिद्धांत को समझाते हैं। यज्ञ के माध्यम से मनुष्य और देवताओं का परस्पर सहयोग सृष्टि को सुचारु रूप से चलाता है। यह संतुलन और समृद्धि का प्रतीक है।


श्लोक 12

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥

अर्थ:
"देवता यज्ञ द्वारा संतुष्ट होकर तुम्हें इच्छित भोग प्रदान करेंगे। लेकिन जो उनके द्वारा दी गई वस्तुओं का उपयोग उन्हें अर्पण किए बिना करता है, वह चोर कहलाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्म और उपभोग की नैतिकता को समझाता है। भोग को पहले यज्ञ (ईश्वर और समाज की सेवा) में अर्पित करना चाहिए। इसे न करना चौर्य कर्म के समान है।


श्लोक 13

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥

अर्थ:
"जो लोग यज्ञ के बाद बचा हुआ भोजन ग्रहण करते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन जो केवल अपने लिए भोजन बनाते हैं, वे पाप का भोग करते हैं।"

व्याख्या:
यज्ञ (समर्पण) से प्राप्त आहार शुद्ध और पवित्र होता है। केवल स्वार्थ के लिए भोग करना अधर्म है और यह पाप का कारण बनता है।


श्लोक 14

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥

अर्थ:
"सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ से होती है, और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक सृष्टि के चक्र को दर्शाता है। कर्म और यज्ञ सृष्टि के संचालन के लिए आवश्यक हैं।


श्लोक 15

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥

अर्थ:
"कर्म वेद से उत्पन्न होते हैं, और वेद अक्षर (परमात्मा) से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए, सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञ में सदा स्थित है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्म, यज्ञ, और ब्रह्म के बीच संबंध को दर्शाता है। सभी कर्म और यज्ञ ईश्वर की कृपा से संभव होते हैं।


श्लोक 16

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥

अर्थ:
"जो इस सृष्टि के चक्र का पालन नहीं करता और केवल इंद्रियों के सुख में लिप्त रहता है, वह पापमय जीवन जीता है और उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि सृष्टि के नियमों और कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है। केवल भौतिक सुखों में लिप्त रहना जीवन को व्यर्थ बना देता है।


सारांश:

  • यज्ञ (समर्पण और सेवा) सृष्टि के संतुलन और समृद्धि का आधार है।
  • यज्ञ के बिना भोग करना चोर की तरह है और पाप का कारण बनता है।
  • कर्म, यज्ञ, और ब्रह्म का परस्पर संबंध सृष्टि के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • सृष्टि के चक्र का पालन करना और इंद्रिय-आसक्ति से बचना आवश्यक है।

शनिवार, 16 मार्च 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) कर्मयोग का परिचय और महत्व (श्लोक 1-9)

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) कर्मयोग का परिचय और महत्व (श्लोक 1-9) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे जनार्दन, यदि आपकी दृष्टि में बुद्धि (ज्ञान) कर्म से श्रेष्ठ है, तो फिर मुझे इस घोर कर्म (युद्ध) में क्यों लगाते हैं, हे केशव?"

व्याख्या:
अर्जुन को कर्म और ज्ञान के बीच भ्रम हो रहा है। वह श्रीकृष्ण से स्पष्ट करना चाहते हैं कि यदि ज्ञान श्रेष्ठ है, तो उन्हें कर्म क्यों करना चाहिए।


श्लोक 2

व्यमिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥

अर्थ:
"आपके मिश्रित वचनों ने मेरी बुद्धि को भ्रमित कर दिया है। कृपया एक निश्चित बात बताइए, जिससे मैं कल्याण प्राप्त कर सकूं।"

व्याख्या:
अर्जुन चाहते हैं कि श्रीकृष्ण उन्हें सीधा और स्पष्ट मार्गदर्शन दें, ताकि वे यह समझ सकें कि उनके लिए सबसे अच्छा क्या है।


श्लोक 3

श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "हे निष्पाप, मैंने पहले भी बताया है कि इस संसार में दो प्रकार की निष्ठाएँ हैं। सांख्ययोगियों (ज्ञानी जनों) के लिए ज्ञानयोग और कर्मयोगियों के लिए कर्मयोग।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि दोनों मार्ग — ज्ञानयोग (आध्यात्मिक ज्ञान) और कर्मयोग (कर्तव्य पालन) — उचित हैं, और व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार उन्हें अपनाया जाता है।


श्लोक 4

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥

अर्थ:
"केवल कर्म का त्याग करने से कोई निष्कर्मता (कर्मबंधन से मुक्ति) प्राप्त नहीं करता। और न ही केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त होती है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि कर्म का त्याग किए बिना सिद्धि प्राप्त करना संभव नहीं है। केवल संन्यास धारण करना पर्याप्त नहीं है, कर्म करना भी आवश्यक है।


श्लोक 5

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥

अर्थ:
"कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। क्योंकि प्रकृति के गुणों द्वारा उसे कर्म करने के लिए विवश किया जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि कर्म स्वाभाविक है। यहाँ तक कि जो व्यक्ति निष्क्रिय रहने की कोशिश करता है, वह भी प्रकृति के गुणों से प्रेरित होकर किसी न किसी प्रकार का कर्म करता है।


श्लोक 6

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अपने कर्मेंद्रियों को रोककर बैठा रहता है, लेकिन मन से विषयों का चिंतन करता है, वह मूर्ख और कपटी कहलाता है।"

व्याख्या:
केवल बाह्य रूप से कर्म का त्याग करना पर्याप्त नहीं है। यदि मन विषयों में रमता है, तो वह त्याग झूठा और कपटपूर्ण है।


श्लोक 7

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, जो व्यक्ति मन से इंद्रियों को नियंत्रित करके कर्मयोग के मार्ग पर कार्य करता है और आसक्त नहीं रहता, वही श्रेष्ठ है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि सच्चा योगी वही है जो कर्म करता है, लेकिन उसके प्रति आसक्त नहीं होता। यह निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत है।


श्लोक 8

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥

अर्थ:
"तुम अपने नियत कर्म का पालन करो, क्योंकि कर्म अकर्म से श्रेष्ठ है। यहां तक कि तुम्हारी शरीर यात्रा भी कर्म के बिना संभव नहीं है।"

व्याख्या:
यह श्लोक कर्म करने की अनिवार्यता पर बल देता है। कर्म न केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए आवश्यक है, बल्कि यह समाज और धर्म का भी आधार है।


श्लोक 9

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥

अर्थ:
"यज्ञ (ईश्वर के प्रति समर्पण) के लिए किए गए कर्म के अतिरिक्त अन्य सभी कर्म इस संसार में बंधन का कारण बनते हैं। इसलिए, हे कौन्तेय, आसक्ति से मुक्त होकर कर्तव्य का पालन करो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण समझाते हैं कि कर्म तभी बंधनमुक्त होता है जब वह परमात्मा को समर्पित होकर किया जाए। निष्काम और निस्वार्थ कर्म ही मुक्ति का मार्ग है।


सारांश:

  • अर्जुन ने कर्म और ज्ञान के बीच स्पष्टता मांगी।
  • श्रीकृष्ण ने बताया कि ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों ही श्रेष्ठ हैं, लेकिन कर्म के बिना कोई भी सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता।
  • निष्काम कर्मयोग का पालन करते हुए, ईश्वर को समर्पित होकर कर्म करना ही सच्चा मार्ग है।

शनिवार, 9 मार्च 2024

भगवद्गीता: अध्याय 3 - कर्मयोग

भगवद गीता – तृतीय अध्याय: कर्मयोग

(Karma Yoga – The Yoga of Selfless Action)

📖 अध्याय 3 का परिचय

कर्मयोग गीता का तीसरा अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण निष्काम कर्म (स्वार्थरहित कर्म) का महत्व समझाते हैं। वे अर्जुन को बताते हैं कि ज्ञान और ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मयोग (निष्काम कर्म) है

👉 मुख्य भाव:

  • निष्काम भाव से कर्म करना, बिना फल की इच्छा किए।
  • कर्म से भागना उचित नहीं, बल्कि उसे ईश्वर को अर्पित करके करना चाहिए।
  • समाज के लिए कर्म करना और यज्ञ की भावना से कार्य करना ही श्रेष्ठ धर्म है।

📖 श्लोक (3.19):

"तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥"

📖 अर्थ: इसलिए बिना आसक्ति के सदा अपना कर्तव्य-कर्म कर, क्योंकि बिना आसक्ति से कर्म करने वाला व्यक्ति परम सिद्धि को प्राप्त करता है।

👉 यह अध्याय जीवन में कर्म की अनिवार्यता और सही तरीके से कर्म करने की विधि सिखाता है।


🔹 1️⃣ अर्जुन का प्रश्न और श्रीकृष्ण का उत्तर

📌 अर्जुन का प्रश्न (Verses 1-2)

अर्जुन पूछते हैं –

  • "हे कृष्ण! यदि ज्ञानयोग (बुद्धि का मार्ग) श्रेष्ठ है, तो फिर मुझे युद्ध रूपी कर्म क्यों करना चाहिए?"
  • "यदि मोक्ष ज्ञान से ही प्राप्त होता है, तो फिर कर्म करने की क्या आवश्यकता है?"

📖 श्लोक (3.2):

"व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥"

📖 अर्थ: हे कृष्ण! आपके शब्द मेरी बुद्धि को भ्रमित कर रहे हैं। कृपया मुझे निश्चित रूप से बताइए कि मेरे लिए क्या श्रेष्ठ है।

👉 अर्जुन को लगता है कि श्रीकृष्ण उसे एक तरफ कर्म करने के लिए कह रहे हैं और दूसरी तरफ ज्ञानयोग की प्रशंसा कर रहे हैं।


🔹 2️⃣ कर्मयोग का महत्व

📌 श्रीकृष्ण का उत्तर – कर्म ही श्रेष्ठ है (Verses 3-9)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि "इस संसार में दो मार्ग हैं – ज्ञानयोग और कर्मयोग।"
  • जो व्यक्ति अत्यधिक बुद्धिमान है, वह ध्यान और ज्ञान से मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
  • लेकिन अधिकतर लोगों के लिए कर्म करना ही श्रेष्ठ है।

📖 श्लोक (3.8):

"नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥"

📖 अर्थ: तू अपने कर्तव्य कर्म को कर, क्योंकि कर्म करना निष्क्रियता से उत्तम है। यदि तू कर्म नहीं करेगा, तो तेरा जीवन भी सुचारु रूप से नहीं चलेगा।

👉 इसका अर्थ है कि केवल ज्ञान के आधार पर कोई मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक कि वह कर्म न करे।


🔹 3️⃣ यज्ञ और कर्म का संबंध

📌 यज्ञभावना से कर्म करना (Verses 10-16)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि यज्ञ (त्याग और सेवा की भावना) से किया गया कर्म श्रेष्ठ है।
  • समस्त सृष्टि कर्म और यज्ञ के नियमों से बंधी हुई है।

📖 श्लोक (3.14):

"अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥"

📖 अर्थ: अन्न से सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं, वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है, और यज्ञ से वर्षा उत्पन्न होती है।

👉 इसका अर्थ है कि संसार में सब कुछ कर्म और यज्ञ के सिद्धांत पर चलता है, इसलिए कर्म करना अनिवार्य है।


🔹 4️⃣ कर्म से भागना उचित नहीं

📌 कर्म करने में ही मोक्ष है (Verses 17-26)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति केवल ध्यान में बैठा रहता है और कर्म नहीं करता, वह असली योगी नहीं है।
  • हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, जैसे श्रीकृष्ण स्वयं कर्म करते हैं।

📖 श्लोक (3.21):

"यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥"

📖 अर्थ: श्रेष्ठ पुरुष जैसा कर्म करता है, अन्य लोग भी उसका अनुसरण करते हैं।

👉 इसका अर्थ है कि यदि बड़े और ज्ञानी लोग भी कर्म न करें, तो समाज में अराजकता फैल जाएगी।


🔹 5️⃣ निष्काम कर्म का सिद्धांत

📌 बिना फल की चिंता किए कर्म करो (Verses 27-35)

  • कर्म करना हमारा अधिकार है, लेकिन फल हमारे हाथ में नहीं है।
  • इसलिए, हमें फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।

📖 श्लोक (3.30):

"मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥"

📖 अर्थ: अपने सभी कर्मों को मुझमें अर्पण कर, बिना किसी आशा और अहंकार के युद्ध कर।

👉 इसका अर्थ है कि कर्म करते समय उसे ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए, ताकि वह बंधन में न डाले।


🔹 6️⃣ रजोगुण और काम-क्रोध का नाश

📌 काम-क्रोध ही सबसे बड़े शत्रु हैं (Verses 36-43)

  • अर्जुन पूछते हैं कि "लोग जानते हुए भी अधर्म क्यों करते हैं?"
  • श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं कि "काम (इच्छा) और क्रोध (गुस्सा) ही सबसे बड़े शत्रु हैं।"
  • इन्हें नष्ट करने के लिए ज्ञान और ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।

📖 श्लोक (3.37):

"काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥"

📖 अर्थ: यह काम और क्रोध रजोगुण से उत्पन्न होते हैं। यह अत्यंत लोभी और पापी हैं, इन्हें अपना शत्रु समझो।

👉 इसका अर्थ है कि इच्छाओं और क्रोध पर नियंत्रण पाने से व्यक्ति मोक्ष की ओर बढ़ सकता है।


🔹 7️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. निष्काम कर्म ही सबसे श्रेष्ठ मार्ग है।
2. केवल ज्ञान से मोक्ष प्राप्त नहीं होता, कर्म करना भी आवश्यक है।
3. जो कर्म ईश्वर को समर्पित किया जाता है, वह बंधन नहीं देता।
4. इच्छाओं और क्रोध पर नियंत्रण पाना आवश्यक है।
5. समाज को सही दिशा देने के लिए श्रेष्ठ पुरुषों को कर्म करना चाहिए।

👉 यह अध्याय जीवन में सही कर्म करने की प्रेरणा देता है और बताता है कि कर्म से भागना उचित नहीं।


🔹 निष्कर्ष

1️⃣ कर्मयोग गीता का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसमें निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा दी गई है।
2️⃣ श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म करने से भागना उचित नहीं, बल्कि उसे समर्पण भाव से करना चाहिए।
3️⃣ इच्छाओं और क्रोध पर विजय प्राप्त करना ही आत्मा की उन्नति का मार्ग है।
4️⃣ इस अध्याय से हमें सीख मिलती है कि हमें जीवन में बिना किसी स्वार्थ के अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।

शनिवार, 2 मार्च 2024

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) स्थिरप्रज्ञ की अवस्था (श्लोक 54-72)

भागवत गीता: अध्याय 2 (सांख्ययोग) स्थिरप्रज्ञ की अवस्था (श्लोक 54-72) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 54

अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे केशव, स्थितप्रज्ञ (स्थिरबुद्धि) व्यक्ति की क्या पहचान है? समाधि में स्थित व्यक्ति कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, और कैसे चलता है?"

व्याख्या:
अर्जुन जानना चाहते हैं कि आत्म-ज्ञानी और स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति का बाहरी आचरण और आंतरिक स्वभाव कैसा होता है। यह श्लोक गीता के आत्मज्ञान की ओर मार्गदर्शन का आरंभ है।


श्लोक 55

श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "जब कोई व्यक्ति मन के सभी इच्छाओं को त्याग देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।"

व्याख्या:
स्थितप्रज्ञ वह है जो सभी भौतिक इच्छाओं को त्यागकर आत्मा के आनंद में स्थित हो जाता है।


श्लोक 56

दुःखेष्वनुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति दुःखों में व्याकुल नहीं होता, सुखों में आसक्त नहीं होता, और राग, भय तथा क्रोध से मुक्त रहता है, वह स्थिरबुद्धि और मुनि कहलाता है।"

व्याख्या:
स्थितप्रज्ञ व्यक्ति जीवन के सुख-दुःख के द्वंद्व से प्रभावित नहीं होता। वह शांत, निर्लिप्त और संतुलित रहता है।


श्लोक 57

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति हर स्थिति में आसक्त नहीं होता, चाहे शुभ हो या अशुभ, न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है।"

व्याख्या:
स्थितप्रज्ञ व्यक्ति हर परिस्थिति में समभाव बनाए रखता है। वह न तो किसी को विशेष प्रिय मानता है और न ही किसी से घृणा करता है।


श्लोक 58

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

अर्थ:
"जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जो व्यक्ति इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर नियंत्रित करता है, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।"

व्याख्या:
इंद्रिय-नियंत्रण आत्म-संयम की प्राथमिकता है। स्थितप्रज्ञ व्यक्ति अपनी इंद्रियों को विषयों से दूर रखता है।


श्लोक 59

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥

अर्थ:
"विषय (इच्छाएँ) उस व्यक्ति से दूर हो जाती हैं जो उनका त्याग करता है, लेकिन उनके प्रति रस (आसक्ति) बना रहता है। जब वह परम को देख लेता है, तब वह रस भी समाप्त हो जाता है।"

व्याख्या:
स्थितप्रज्ञ बनने के लिए केवल विषयों का त्याग पर्याप्त नहीं है, बल्कि परमात्मा के ज्ञान का अनुभव करना भी आवश्यक है।


श्लोक 60

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, प्रयासरत बुद्धिमान व्यक्ति का मन भी उसकी चंचल और बलवान इंद्रियों द्वारा विचलित हो जाता है।"

व्याख्या:
इंद्रियों का नियंत्रण कठिन है, लेकिन यह आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनिवार्य है।


श्लोक 61

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को संयमित करता है और मेरा (भगवान) आश्रय लेता है, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।"

व्याख्या:
ईश्वर की शरण में जाने से इंद्रिय-नियंत्रण और स्थिरबुद्धि बनना संभव है।


श्लोक 62-63

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

अर्थ:
"विषयों का ध्यान करने से आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्ति से कामना, कामना से क्रोध, क्रोध से भ्रम, भ्रम से स्मृति का नाश, स्मृति के नाश से बुद्धि का विनाश, और बुद्धि के विनाश से व्यक्ति का पतन होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि कैसे इच्छाएँ व्यक्ति को पतन की ओर ले जाती हैं। इंद्रिय-नियंत्रण के बिना आत्मिक उन्नति असंभव है।


श्लोक 64

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति राग (आसक्ति) और द्वेष से मुक्त होकर इंद्रियों को नियंत्रित करता है, वह प्रसन्नता प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
आत्म-संयम और आसक्ति का त्याग प्रसन्नता और शांति लाता है।


श्लोक 65

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥

अर्थ:
"प्रसन्न मन से सभी दुःख दूर हो जाते हैं, और ऐसी अवस्था में बुद्धि स्थिर हो जाती है।"

व्याख्या:
प्रसन्नता और शांति से बुद्धि में स्थिरता आती है, जो आत्मज्ञान की ओर ले जाती है।


श्लोक 66

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥

अर्थ:
"जिसके पास योग (संयम) नहीं है, उसकी बुद्धि स्थिर नहीं होती। जिसके पास स्थिर बुद्धि नहीं है, उसे शांति नहीं मिलती। और शांति के बिना सुख संभव नहीं है।"

व्याख्या:
शांति के बिना सुख की प्राप्ति असंभव है। शांति आत्म-संयम और स्थिर बुद्धि से आती है।


श्लोक 67

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥

अर्थ:
"चंचल इंद्रियों का अनुसरण करने वाला मन बुद्धि को वैसे ही विचलित कर देता है जैसे हवा जल में नौका को।"

व्याख्या:
इंद्रियों का नियंत्रण न होने पर मन स्थिर नहीं रह पाता और बुद्धि भ्रमित हो जाती है।


श्लोक 68

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

अर्थ:
"इसलिए, हे महाबाहु, जिसने अपनी इंद्रियों को उनके विषयों से पूरी तरह से वश में कर लिया है, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।"

व्याख्या:
इंद्रियों का संयम ही स्थिरबुद्धि बनने का मार्ग है।


श्लोक 69

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

अर्थ:
"जो सभी प्राणियों के लिए रात्रि है, उसमें संयमी जागरूक रहता है। और जिसमें सभी प्राणी जागते हैं, वह मुनि के लिए रात्रि है।"

व्याख्या:
आध्यात्मिक और सांसारिक दृष्टिकोण के अंतर को दिखाने वाला यह श्लोक है।


श्लोक 70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥

अर्थ:
"जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में मिलती हैं लेकिन समुद्र स्थिर रहता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति सभी इच्छाओं को अपने भीतर समाहित करता है, वह शांति प्राप्त करता है, इच्छाओं के पीछे भागने वाला नहीं।"

व्याख्या:
इच्छाओं के त्याग से स्थायी शांति प्राप्त होती है।


श्लोक 71

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति॥

अर्थ:
"जो सभी इच्छाओं को त्यागकर, आसक्ति और अहंकार से मुक्त होकर कार्य करता है, वह शांति प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
शांति प्राप्त करने के लिए त्याग, निर्लिप्तता और अहंकार का परित्याग आवश्यक है।


श्लोक 72

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥

अर्थ:
"हे पार्थ, यह ब्राह्मी अवस्था है। इसे प्राप्त करने के बाद व्यक्ति कभी मोहग्रस्त नहीं होता। इस स्थिति में मृत्यु के समय भी, वह ब्रह्म में लीन हो जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ब्राह्मी अवस्था (आध्यात्मिक ज्ञान की उच्चतम स्थिति) को समझाता है।


सारांश:

  • श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धि) की पहचान और गुण बताए।
  • इच्छाओं के त्याग, इंद्रिय-नियंत्रण और समता के अभ्यास से शांति और मुक्ति प्राप्त होती है।
  • यह अध्याय आत्मज्ञान और कर्मयोग के महत्व को उजागर करता है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...