शनिवार, 26 सितंबर 2020

श्रीकृष्ण जन्म कथा

श्रीकृष्ण भगवान की जन्म कथा बहुत ही रोचक, रहस्यमयी और चमत्कारिक है। यह कथा श्रीमद्भागवत पुराण, महाभारत और हरिवंश पुराण में विस्तार से वर्णित है।

कंस का आतंक और आकाशवाणी

मथुरा के राजा उग्रसेन का पुत्र कंस, अत्याचारी और क्रूर शासक था। उसने अपने पिता को बंदी बनाकर मथुरा का राजपद छीन लिया था। कंस की बहन देवकी का विवाह यदुवंशी वीर वसुदेव से हुआ। विवाह के समय कंस स्वयं देवकी को स्नेहपूर्वक विदा कर रहा था। तभी आकाशवाणी हुई:

"हे कंस! तेरी बहन देवकी का आठवां पुत्र तेरा वध करेगा।"

यह सुनकर कंस भयभीत और क्रोधित हो गया। उसने तुरंत देवकी को मारने का निर्णय लिया, लेकिन वसुदेव ने उसे यह आश्वासन देकर रोक दिया कि वे अपने सभी संतानों को कंस के हवाले कर देंगे।

देवकी और वसुदेव का कारावास

कंस ने देवकी और वसुदेव को कारावास में डाल दिया। देवकी की हर संतान को कंस जन्म लेते ही मार डालता था। उसने छह संतानों को निर्ममता से मार दिया। देवकी और वसुदेव अपने पुत्रों की मृत्यु से अत्यंत दुःखी थे, लेकिन उन्होंने भगवान विष्णु पर अपनी आस्था बनाए रखी।

सातवां और आठवां संतान

  1. सातवां संतान (बलराम): देवकी की सातवीं संतान को भगवान विष्णु की माया से योगमाया ने वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया। यह बालक आगे चलकर बलराम कहलाया।

  2. आठवां संतान (कृष्ण): जब देवकी के गर्भ में आठवां बालक आया, तो भगवान विष्णु ने वसुदेव और देवकी को दर्शन दिए। उन्होंने कहा,
    "मैं तुम्हारे पुत्र रूप में अवतार लूंगा और संसार से अधर्म का नाश करूंगा।"

कृष्ण का चमत्कारिक जन्म

आषाढ़ मास की अष्टमी तिथि को, रोहिणी नक्षत्र में, आधी रात के समय भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण रूप में जन्म लिया। उनका जन्म मथुरा के कारागार में हुआ। जैसे ही श्रीकृष्ण का जन्म हुआ,

  1. जेल के दरवाजे स्वतः खुल गए।
  2. पहरेदार गहरी निद्रा में सो गए।
  3. वसुदेव की बेड़ियां टूट गईं।

वसुदेव ने कृष्ण को एक टोकरी में रखा और यमुना नदी पार करके गोकुल में नंद बाबा और यशोदा के घर पहुंचाया। उस रात नंद और यशोदा के घर एक कन्या का जन्म हुआ था।

योगमाया का चमत्कार

वसुदेव ने श्रीकृष्ण को यशोदा के पास छोड़कर उनकी कन्या को लेकर वापस कारावास लौट आए। जब कंस ने उस कन्या को मारने का प्रयास किया, तो वह कन्या आकाश में उड़ गई और देवी के रूप में प्रकट होकर बोली:
"हे कंस! तुझे मारने वाला तो गोकुल में जन्म ले चुका है।"

यह सुनकर कंस और अधिक भयभीत हो गया और श्रीकृष्ण को मारने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन हर बार असफल रहा।

यहीं से कृष्ण की लीलाओं का आरंभ हुआ, जो आगे चलकर धर्म और सत्य की विजय का प्रतीक बनीं।

शनिवार, 19 सितंबर 2020

कृष्ण भगवान की सम्पूर्ण जीवन गाथा

 श्रीकृष्ण भगवान की सम्पूर्ण जीवन गाथा अत्यंत प्रेरणादायक, रहस्यमयी और दिव्य है। उनका जीवन भारतीय संस्कृति, धर्म और अध्यात्म का अद्वितीय उदाहरण है। श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है, और उनका जीवन न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से, बल्कि मानवता के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है।

जन्म कथा

कृष्ण का जन्म द्वापर युग में मथुरा नगरी में कंस के कारावास में हुआ। कंस ने अपनी बहन देवकी और उनके पति वसुदेव को बंदी बना लिया था क्योंकि उसे आकाशवाणी से पता चला था कि देवकी का आठवां पुत्र उसका वध करेगा। जब कृष्ण का जन्म हुआ, तो विष्णु की कृपा से वसुदेव जेल से बाहर निकल सके और उन्होंने कृष्ण को गोकुल में नंद बाबा और यशोदा के पास छोड़ दिया।

बाललीलाएँ

गोकुल में श्रीकृष्ण ने अपनी बाललीलाओं से सबका मन मोह लिया।

  1. माखन चोरी: कृष्ण का माखन चुराने का प्रेमपूर्ण स्वभाव उनकी बाल सुलभ लीलाओं का अद्भुत उदाहरण है।
  2. कालिया नाग का वध: यमुना नदी में विषैले कालिया नाग का दमन कर कृष्ण ने गोकुलवासियों को भय से मुक्त किया।
  3. गोवर्धन पूजा: इंद्र के क्रोध से बचाने के लिए कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उंगली पर उठा लिया और गोकुलवासियों को आश्रय दिया।

कंस वध

जब कृष्ण किशोर अवस्था में पहुंचे, तो कंस ने उन्हें मारने के लिए कई राक्षस भेजे, लेकिन कृष्ण ने सभी का वध कर दिया। अंततः मथुरा जाकर उन्होंने कंस का वध किया और अपने माता-पिता को कारावास से मुक्त कराया।

द्वारका नगरी की स्थापना

कृष्ण ने मथुरा को कंस के आतंक से मुक्त किया, लेकिन जरासंध के बार-बार आक्रमण से बचाने के लिए उन्होंने द्वारका नगरी की स्थापना की और इसे समुद्र के बीच में बसाया।

महाभारत में भूमिका

श्रीकृष्ण का जीवन महाभारत से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। उन्होंने पांडवों का साथ दिया और धर्म की स्थापना के लिए मार्गदर्शन किया। महाभारत के युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया, जिसमें कर्म, धर्म, भक्ति और ज्ञान का सार प्रस्तुत किया गया।

रुक्मिणी और अन्य विवाह

कृष्ण का विवाह रुक्मिणी से हुआ, जो उनकी परम भक्त थीं। इसके अलावा, उन्होंने सत्यभामा, जाम्बवती और अन्य राजकुमारियों से भी विवाह किया।

भगवान कृष्ण की शिक्षाएँ

श्रीकृष्ण ने अपने जीवन के माध्यम से और गीता के उपदेशों में कई महत्वपूर्ण संदेश दिए:

  1. कर्म का महत्व: फल की चिंता किए बिना कर्म करते रहना चाहिए।
  2. भक्ति योग: भगवान में अटूट भक्ति ही मोक्ष का मार्ग है।
  3. सांख्य योग: आत्मा अजर-अमर है, मृत्यु केवल शरीर का परिवर्तन है।

मोक्ष और देह त्याग

अपनी लीलाओं के अंत में, श्रीकृष्ण ने अपनी देह का त्याग किया। कहा जाता है कि एक बहेलिये के तीर से उनके पैर में चोट लगी और उन्होंने पृथ्वी से अपनी लीला समाप्त की।

श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन धर्म, भक्ति, कर्म और प्रेम का अद्वितीय उदाहरण है। उनकी शिक्षाएँ और लीलाएँ आज भी मानवता को प्रेरित करती हैं।

शनिवार, 12 सितंबर 2020

25. साधु का अंतिम बलिदान

 

साधु का अंतिम बलिदान

बहुत समय पहले, एक छोटे से गाँव में एक साधु महात्मा रहते थे जिनका नाम तारणी बाबा था। वे एक अत्यंत धार्मिक और तपस्वी व्यक्ति थे। उनका जीवन पूरी तरह से तप, ध्यान और साधना में व्यतीत होता था। तारणी बाबा के बारे में कहा जाता था कि उनका हर शब्द सत्य था, और उनकी शरण में आने वाला कोई भी व्यक्ति कभी खाली हाथ नहीं लौटता था। उनकी शरण में आने वाले लोग न केवल आध्यात्मिक शांति पाते, बल्कि उनकी समस्याओं का भी समाधान होता था।

तारणी बाबा का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि लोग उन्हें अपना मार्गदर्शक मानते थे। उनका सादगीपूर्ण जीवन, त्याग और संयम लोगों को आकर्षित करते थे। वे हमेशा अपनी साधना में लीन रहते थे, और उनके आश्रम में किसी भी प्रकार का ऐश्वर्य या विलासिता नहीं थी। साधना के प्रति उनका समर्पण इतना गहरा था कि वे किसी भी प्रकार की भौतिक सुख-सुविधाओं से दूर रहते थे।


गाँव में कठिनाई और बाबा का बलिदान

एक दिन गाँव में एक भयंकर संकट आ गया। आस-पास के क्षेत्रों में बाढ़ आ गई थी और बहुत से गाँवों में पानी घुस गया था। तारणी बाबा के आश्रम से कुछ ही दूरी पर एक बड़ी नदी थी, और वहाँ बाढ़ का खतरा था। गाँव के लोग डर के मारे घबराए हुए थे, क्योंकि उन्हें डर था कि अगर बाढ़ का पानी और बढ़ा, तो उनका गाँव पूरी तरह से बह सकता है।

गाँव के लोग तारणी बाबा के पास गए और उनसे मदद की प्रार्थना की। वे जानते थे कि बाबा का आशीर्वाद और दिव्य शक्ति उनके जीवन को बचा सकती है। बाबा ने उन्हें शांतिपूर्वक सुना और कहा,
"मनुष्य का धर्म है अपने कर्तव्यों को निभाना। यह संकट समय की परीक्षा है। हमें इस समय में धैर्य बनाए रखना चाहिए और संयम से काम लेना चाहिए। मैं कुछ समय के लिए ध्यान में लीन रहूँगा, और जब मेरी आवश्यकता होगी, तो मैं अवश्य सहायता करूंगा।"

गाँववालों ने उनकी बात मानी और अपना काम जारी रखा। लेकिन बाढ़ की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती चली गई, और अब गाँव के लोग पूरी तरह से डूबने की कगार पर थे। कुछ लोग नदी के किनारे से पानी निकालने की कोशिश कर रहे थे, कुछ तटबंधों को मजबूत करने में लगे थे, लेकिन सभी प्रयास विफल हो रहे थे।


साधु का अंतिम बलिदान

वह रात बाबा के लिए जीवन का सबसे कठिन क्षण था। जब गाँववालों की मदद करना असंभव हो गया और बाढ़ का पानी तेजी से बढ़ने लगा, तारणी बाबा ने फैसला किया कि वह अपनी साधना का अंतिम बलिदान देंगे। बाबा ने गाँववालों को बुलाया और कहा,
"आज से पहले मैंने हमेशा आशीर्वाद देने और मार्गदर्शन करने का कार्य किया है, लेकिन अब मैं अपनी साधना और तपस्या से इस संकट को समाप्त करने के लिए अपना बलिदान दूँगा।"

बाबा ने गाँव के पास एक पर्वत की चोटी पर जाकर बैठने का निर्णय लिया। वहाँ उन्होंने गहरी समाधि में बैठने की तैयारी की और अपनी आत्मा को प्रकृति के साथ जोड़ने का संकल्प लिया। समाधि के दौरान, उन्होंने अपनी आखिरी प्रार्थना की और अपनी पूरी शक्ति और आत्मा को गाँव की सुरक्षा में अर्पित कर दिया। वे मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगे,
"हे परमात्मा! इस गाँव के लोग दीन-हीन हैं, और वे इस संकट से बचने के योग्य नहीं हैं। मैं अपना बलिदान अर्पित करता हूँ, ताकि इस गाँव को बचाया जा सके।"

तारणी बाबा की तपस्या और बलिदान ने उस रात एक चमत्कारी प्रभाव डाला। जैसे ही बाबा की समाधि गहरी हुई, गाँव के पास की नदी का बहाव रुक गया। बाढ़ का पानी धीरे-धीरे कम होने लगा, और नदी के तटबंधों में कोई भी बड़ी दरार नहीं पड़ी। गाँववाले यह देखकर हैरान रह गए और उन्होंने बाबा की महानता को पहचाना।

अगले दिन जब गाँववाले बाबा के पास पहुँचे, तो वे उन्हें समाधि में बैठे हुए पाए। उनका शरीर निष्कलंक था, और उनका चेहरा शांति से भरा हुआ था। वे जान गए कि तारणी बाबा ने अपना अंतिम बलिदान दे दिया था और अब वे इस दुनिया से चले गए थे।


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या तारणी बाबा का बलिदान सही था? क्या किसी ने खुद को इस प्रकार बलिदान करना चाहिए, जब उनके द्वारा दी गई मदद से दूसरों को जीवनदान मिल सके?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"तारणी बाबा का बलिदान एक सर्वोच्च आत्मा की निशानी थी। उन्होंने अपनी आत्मा को भगवान और मानवता के लिए अर्पित किया। उनका बलिदान हमें यह सिखाता है कि जब किसी की मदद से लाखों लोगों की जान बचाई जा सकती है, तो उस व्यक्ति का जीवन सर्वोत्तम होता है। बाबा ने अपने आप को त्याग कर दूसरों की भलाई के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने यह साबित किया कि सच्चा बलिदान तब होता है जब कोई अपने स्वार्थ को त्याग कर समाज की भलाई के लिए अपना सब कुछ अर्पित कर देता है।"


कहानी की शिक्षा

  1. सच्चा बलिदान तब होता है जब हम अपनी इच्छाओं और स्वार्थ को पूरी तरह से त्यागकर दूसरों की भलाई के लिए कार्य करते हैं।
  2. जिंदगी में कभी-कभी हमें ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जो हमें अपनी आत्मा और समर्पण से करना पड़ते हैं, ताकि दूसरों की सहायता हो सके।
  3. धर्म, तपस्या और बलिदान के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति हमेशा आदर्श बनता है और उसकी जीवनशक्ति समाज के लिए एक प्रेरणा बनती है।

यह कहानी हमें यह सिखाती है कि सच्चा बलिदान न केवल अपने स्वार्थ को त्यागने का नाम है, बल्कि दूसरों की मदद करने के लिए अपनी सारी शक्तियों और समर्पण को अर्पित करना है। तारणी बाबा का बलिदान हमेशा के लिए हमारे दिलों में एक अमिट छाप छोड़ता है। 

शनिवार, 5 सितंबर 2020

24. राजा का धर्म संकट

 

राजा का धर्म संकट

बहुत समय पहले की बात है, एक छोटे से राज्य का एक न्यायप्रिय राजा था, जिसका नाम राजा सुमित्र था। राजा सुमित्र का दिल बहुत ही साफ और धर्मपरायण था। वह हमेशा अपने राज्य और प्रजा की भलाई के लिए फैसले करता था, और उसकी नीतियाँ हमेशा सच्चाई और न्याय पर आधारित होती थीं। उसकी प्रजा उसे एक आदर्श शासक मानती थी। राजा सुमित्र का एक ही उद्देश्य था—अपने राज्य को सुखी और समृद्ध बनाना, और इसके लिए वह किसी भी बलिदान को तैयार था।


धर्म संकट

एक दिन राजा सुमित्र के राज्य में एक बहुत गंभीर संकट उत्पन्न हो गया। राज्य के पास बहुत ही सीमित संसाधन थे, और अचानक राज्य के पास एक बड़ी आपदा आ गई। राज्य में भयंकर सूखा पड़ा, जिससे जलस्रोतों का पानी सूख गया और फसलें खराब हो गईं। राज्य की प्रजा भूख और प्यास से परेशान हो गई, और कई लोग बुरी हालत में पहुँच गए।

राजा सुमित्र ने एक दिन अपने दरबार में सभी प्रमुखों और मंत्रियों को बुलाया और राज्य की कठिन परिस्थिति के बारे में चर्चा की। वे सभी एक ही निर्णय पर पहुंचे कि राज्य के प्रमुख जलस्रोत को अन्य राज्यों से जोड़ने के लिए एक बड़ी योजना बनाई जाए, जिससे पानी की समस्या हल हो सके। लेकिन इस योजना को लागू करने के लिए बड़ी राशि की आवश्यकता थी, और राज्य के खजाने में उतना पैसा नहीं था।

राजा सुमित्र ने अपने खजाने की पूरी स्थिति देखी और पाया कि खजाने में बहुत कम पैसा बचा था। इसके अलावा, राज्य में पहले ही बहुत सारे खर्चे थे, और अगर उन्होंने इस योजना को लागू किया, तो यह खजाने को पूरी तरह से खाली कर सकता था।

राजा के सामने एक बड़ा धर्म संकट खड़ा हो गया। एक ओर तो राज्य की जनता थी, जो पानी और खाद्य पदार्थों के लिए तरस रही थी, और दूसरी ओर राजा को यह चिंता थी कि यदि उसने खजाने का सारा पैसा खर्च कर दिया, तो राज्य की वित्तीय स्थिति और भी बिगड़ सकती है।


राजा का निर्णय

राजा सुमित्र एक रात देर तक सोचता रहा। वह जानता था कि उसे एक सच्चे शासक की तरह अपने कर्तव्यों का पालन करना है। उसने अपने मंत्रियों से कहा:
"अगर हमारे पास धन नहीं है, तो हम इसे उधार लेने के लिए दूसरों से मांग सकते हैं, लेकिन हमें किसी भी हालत में अपनी प्रजा को दुखी नहीं होने देना चाहिए। मेरा धर्म यह है कि मैं अपनी प्रजा की भलाई के लिए हर संभव प्रयास करूँ।"

राजा ने इस संकट से उबरने के लिए राज्य के विभिन्न क्षेत्रों से दान माँगने का निर्णय लिया। उसने राज्य के सभी बड़े व्यापारियों, धनवानों और अच्छे नागरिकों से अपील की कि वे कुछ धन दान करें, ताकि जलस्रोत को जोड़ने की योजना पूरी की जा सके। राजा ने यह भी वादा किया कि जो भी दान करेगा, उसे राज्य की तरफ से सम्मानित किया जाएगा।

राजा सुमित्र की इस अपील का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ा। राज्य के लोग और व्यापारी एकजुट हो गए और पर्याप्त धन इकट्ठा कर लिया, जिससे जलस्रोत को जोड़ने की योजना को पूरा किया जा सका। जलस्रोतों की स्थिति बेहतर हो गई, और राज्य में पानी की आपूर्ति शुरू हो गई। समय के साथ, राज्य की स्थिति में सुधार हुआ और लोग फिर से खुशहाल जीवन जीने लगे।


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या राजा सुमित्र का निर्णय सही था? क्या उसे धर्म के नाम पर अपनी संपत्ति और राज्य की वित्तीय स्थिति को जोखिम में डालना चाहिए था?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"राजा सुमित्र का निर्णय बहुत ही साहसिक और धर्मपूर्ण था। एक शासक का पहला कर्तव्य अपनी प्रजा की भलाई करना है, और यही धर्म है। अगर शासक अपनी प्रजा के दुखों को देखकर कोई कदम नहीं उठाता, तो वह अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है। राजा सुमित्र ने अपने राज्य की भलाई के लिए न केवल अपनी संपत्ति को बल्कि अपने राजकाज को भी जोखिम में डाला, और यही एक सच्चे धर्मनिष्ठ शासक की पहचान होती है।"


कहानी की शिक्षा

  1. धर्म का पालन हमेशा प्रजा की भलाई और उनके हितों के लिए करना चाहिए।
  2. सच्चे शासक को कभी भी अपने कर्तव्यों से पीछे नहीं हटना चाहिए, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों।
  3. धन और संपत्ति से बढ़कर किसी शासक का कर्तव्य अपनी प्रजा के प्रति जिम्मेदारी निभाना होता है।

यह कहानी हमें यह सिखाती है कि धर्म का पालन न केवल शब्दों से, बल्कि अपने कर्तव्यों को सही तरीके से निभाने से होता है। सच्चे धर्म का पालन करने वाला शासक कभी भी अपने लोगों को दुखी नहीं होने देता, और उसकी नीतियाँ सच्चाई, न्याय और समृद्धि की ओर ले जाती हैं। 

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...