यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 42 से श्लोक 53 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने चार वर्णों के स्वाभाविक गुणों और कर्तव्यों, कर्म योग की महिमा, और आत्म-उन्नति के मार्ग को समझाया है।
श्लोक 42
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥
अर्थ:
"शांति, इंद्रिय-संयम, तप, शुद्धता, सहनशीलता, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता – ये ब्राह्मण के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं।"
व्याख्या:
ब्राह्मण के कर्तव्य आत्मिक और आध्यात्मिक गुणों को अपनाना है। वह ज्ञान, तप और संयम से समाज का मार्गदर्शन करता है।
श्लोक 43
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥
अर्थ:
"शूरवीरता, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध में न भागना, दान और नेतृत्व क्षमता – ये क्षत्रिय के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं।"
व्याख्या:
क्षत्रिय का धर्म है समाज की रक्षा करना, दूसरों की भलाई के लिए नेतृत्व करना और युद्ध में अपने कर्तव्य से पीछे न हटना।
श्लोक 44
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥
अर्थ:
"कृषि, गौ-पालन और व्यापार – ये वैश्य के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं। सेवा करना – यह शूद्र का स्वभावज कर्म है।"
व्याख्या:
वैश्य का धर्म है आर्थिक गतिविधियों के माध्यम से समाज का पोषण करना, जबकि शूद्र का कर्तव्य सेवा और सहायता प्रदान करना है।
श्लोक 45
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिर्णिर्तं सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥
अर्थ:
"अपने-अपने कर्तव्यों में आसक्त होकर मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है। अब मैं बताता हूँ कि स्वभाव के अनुसार कर्म करते हुए कैसे सिद्धि प्राप्त की जाती है।"
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना ही मनुष्य का धर्म है। अपने कर्तव्य का पालन करने से आत्मा की उन्नति और सिद्धि प्राप्त होती है।
श्लोक 46
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥
अर्थ:
"जिससे सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जो पूरे जगत में व्याप्त है, उस परमात्मा की पूजा अपने कर्मों के माध्यम से करने से मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
कर्म के माध्यम से भगवान की आराधना करने से व्यक्ति आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करता है। अपने कार्य को भगवान का अर्पण मानकर करना सच्चा धर्म है।
श्लोक 47
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥
अर्थ:
"अपना धर्म (कर्तव्य), चाहे वह अपूर्ण हो, दूसरों के धर्म (कर्तव्य) को पूर्ण रूप से निभाने से श्रेष्ठ है। स्वभाव से निर्धारित कर्म को करते हुए व्यक्ति पाप से बचता है।"
व्याख्या:
भगवान सिखाते हैं कि अपने स्वभाव के अनुसार धर्म का पालन करना सर्वोत्तम है। दूसरों का धर्म अपनाने से दोष और पाप उत्पन्न हो सकते हैं।
श्लोक 48
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥
अर्थ:
"हे कौन्तेय, स्वाभाविक कर्म को, चाहे उसमें दोष हो, त्यागना नहीं चाहिए। जैसे अग्नि धुएँ से ढकी होती है, वैसे ही सभी कर्म कुछ दोषों से घिरे होते हैं।"
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि कोई भी कर्म पूर्णतया निर्दोष नहीं होता। इसलिए अपने स्वाभाविक कर्तव्यों को अपनाकर करना ही उचित है।
श्लोक 49
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति सभी जगह आसक्ति से मुक्त, आत्मसंयमी और इच्छारहित है, वह संन्यास के माध्यम से परम नैष्कर्म्य सिद्धि (कर्म से मुक्त होने की सिद्धि) को प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
सच्चा संन्यास वह है जिसमें व्यक्ति कर्म करता है लेकिन आसक्ति और इच्छाओं से मुक्त रहता है। यह स्थिति आत्मज्ञान और मोक्ष का मार्ग है।
श्लोक 50
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥
अर्थ:
"हे कौन्तेय, जिस प्रकार से सिद्धि प्राप्त करने के बाद व्यक्ति ब्रह्म को प्राप्त करता है, उसे मैं संक्षेप में समझाता हूँ। यह ज्ञान की सर्वोच्च स्थिति है।"
व्याख्या:
भगवान अर्जुन को समझाते हैं कि आत्मा की सिद्धि और ब्रह्म के साथ एकत्व को कैसे प्राप्त किया जा सकता है।
श्लोक 51-53
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
अर्थ:
"शुद्ध बुद्धि और धैर्य से युक्त होकर, आत्मा को नियंत्रित करते हुए, इंद्रिय विषयों (शब्द आदि) को त्यागकर, राग और द्वेष से मुक्त होकर,
एकांतप्रिय, कम खाने वाला, वाणी, शरीर और मन को नियंत्रित करने वाला, ध्यान में लीन, वैराग्य अपनाने वाला,
अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और संग्रह (मोह) का त्याग करने वाला व्यक्ति, 'निर्मम' और शांत होकर ब्रह्म को प्राप्त करने योग्य हो जाता है।"
व्याख्या:
भगवान यहाँ ब्रह्म प्राप्ति के लिए योगी के लक्षण बताते हैं।
- शुद्ध बुद्धि और संयम अपनाना।
- इंद्रिय विषयों, राग-द्वेष, और भौतिक इच्छाओं से मुक्त होना।
- ध्यान, वैराग्य, और आत्मसंयम को अपनाना।
- अहंकार, क्रोध, और मोह का त्याग करना।
इन गुणों से व्यक्ति ब्रह्म भाव को प्राप्त करता है।
सारांश (श्लोक 42-53):
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वर्ण और कर्तव्य:
- प्रत्येक वर्ण के स्वाभाविक गुण और कर्तव्य उनके स्वभाव के आधार पर निर्धारित होते हैं।
- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र के कर्तव्य समाज की उन्नति के लिए आवश्यक हैं।
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स्वधर्म और कर्म का महत्व:
- स्वधर्म (अपने कर्तव्य) का पालन करना ही सच्चा धर्म है।
- अपने स्वाभाविक कर्म को करना, भले ही उसमें दोष हो, परम सिद्धि की ओर ले जाता है।
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सिद्धि और ब्रह्म प्राप्ति:
- शुद्ध बुद्धि, आत्मसंयम, और वैराग्य से व्यक्ति ब्रह्म प्राप्त कर सकता है।
- अहंकार, राग-द्वेष, और मोह का त्याग ब्रह्म ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है।
मुख्य संदेश:
भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि समाज के प्रत्येक वर्ग का अपना विशेष कर्तव्य है। अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना ही धर्म है। ध्यान, वैराग्य, और आत्मसंयम से व्यक्ति ब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है। यह मोक्ष का मार्ग है।