शनिवार, 31 मई 2025

भागवत गीता: अध्याय 15 (पुरुषोत्तम योग) पुरुषोत्तम का दर्शन (श्लोक 13-20)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 15 (पुरुषोत्तम योग) के श्लोक 13 से श्लोक 20 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी सर्वव्यापकता, संसार को पोषण देने वाली शक्ति, और आत्मा के साथ अपने संबंध को स्पष्ट किया है। उन्होंने अंत में अपने परम पुरुषोत्तम स्वरूप का वर्णन किया है।


श्लोक 13

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥

अर्थ:
"मैं पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी ऊर्जा से सभी प्राणियों को धारण करता हूँ और चंद्रमा के रूप में सभी औषधियों का पोषण करता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि वे पृथ्वी और चंद्रमा में स्थित होकर सृष्टि को स्थिरता और पोषण प्रदान करते हैं। औषधियों और खाद्य पदार्थों की वृद्धि चंद्रमा की ऊर्जा से होती है, और यह ऊर्जा भगवान का स्वरूप है।


श्लोक 14

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥

अर्थ:
"मैं ही प्राणियों के शरीर में स्थित वैश्वानर (पाचन अग्नि) हूँ। प्राण और अपान के साथ मिलकर मैं चार प्रकार के भोजन को पचाता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान शरीर में स्थित पाचन शक्ति (वैश्वानर) के रूप में भोजन को पचाने और ऊर्जा प्रदान करने का कार्य करते हैं। चार प्रकार के भोजन का मतलब चबाने, पीने, चूसने और निगलने योग्य भोजन है।


श्लोक 15

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो।
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो।
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥

अर्थ:
"मैं ही सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और विस्मृति उत्पन्न होती है। मैं ही वेदों द्वारा जानने योग्य हूँ, और मैं ही वेदों का रचयिता और वेदों का जानने वाला हूँ।"

व्याख्या:
भगवान हृदय में स्थित आत्मा के रूप में स्मृति और ज्ञान प्रदान करते हैं। वे ही वेदों का सार हैं और वेदों के अंतिम उद्देश्य भी। इस श्लोक में भगवान की सर्वव्यापकता और वेदों के साथ उनके गहरे संबंध का वर्णन किया गया है।


श्लोक 16

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥

अर्थ:
"इस संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं: क्षर (नाशवान) और अक्षर (अविनाशी)। सभी भौतिक प्राणी क्षर हैं, और आत्मा अक्षर कहलाती है।"

व्याख्या:
भगवान संसार के दो स्वरूप बताते हैं:

  1. क्षर (नाशवान): सभी भौतिक प्राणी जो जन्म लेते हैं और नाशवान होते हैं।
  2. अक्षर (अविनाशी): आत्मा, जो अमर और अचल है।

श्लोक 17

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युधाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥

अर्थ:
"तीसरा पुरुष (उत्तम पुरुष) परमात्मा है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके उन्हें धारण करता है। वह अविनाशी और ईश्वर है।"

व्याख्या:
तीसरा और सर्वोच्च पुरुष परमात्मा (भगवान) हैं, जो सृष्टि के भीतर और बाहर दोनों में स्थित हैं। वे सभी जीवों और लोकों का पालन करते हैं।


श्लोक 18

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥

अर्थ:
"क्योंकि मैं क्षर (नाशवान) से परे और अक्षर (अविनाशी) से भी श्रेष्ठ हूँ, इसलिए संसार और वेदों में मुझे पुरुषोत्तम (सर्वोच्च पुरुष) के रूप में जाना गया है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि वे न केवल भौतिक संसार (क्षर) और आत्मा (अक्षर) से श्रेष्ठ हैं, बल्कि वे परम तत्व (पुरुषोत्तम) हैं। वेदों में उनकी महिमा इसी रूप में वर्णित है।


श्लोक 19

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति मुझे पुरुषोत्तम (सर्वोच्च पुरुष) के रूप में जानता है, वह भ्रम से मुक्त होकर मुझे सभी भावों से भजता है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो उन्हें पुरुषोत्तम के रूप में पहचानता है, वह सच्चा ज्ञानी है। ऐसा व्यक्ति सभी भौतिक भ्रमों से मुक्त होकर भगवान की अनन्य भक्ति करता है।


श्लोक 20

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥

अर्थ:
"हे निष्पाप अर्जुन, यह सबसे गोपनीय शास्त्र मैंने तुम्हें बताया है। इसे जानने के बाद व्यक्ति ज्ञानी और कृतकृत्य (संपूर्ण) हो जाता है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि यह ज्ञान अत्यंत गोपनीय और महत्वपूर्ण है। इसे समझकर व्यक्ति सच्चा ज्ञानी बनता है और अपना जीवन पूर्ण कर लेता है, क्योंकि वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है।


सारांश (श्लोक 13-20):

  1. भगवान की सर्वव्यापकता:

    • भगवान पृथ्वी और चंद्रमा के माध्यम से सभी प्राणियों को पोषण देते हैं।
    • वे शरीर में पाचन शक्ति के रूप में कार्य करते हैं।
  2. भगवान का ज्ञान और वेदों से संबंध:

    • वे सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं और स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति प्रदान करते हैं।
    • वेदों का उद्देश्य भगवान को जानना है, और वेदों के रचयिता भी वही हैं।
  3. तीन पुरुष:

    • क्षर (नाशवान): सभी भौतिक प्राणी।
    • अक्षर (अविनाशी): आत्मा।
    • उत्तम पुरुष (पुरुषोत्तम): परमात्मा, जो क्षर और अक्षर से परे हैं।
  4. पुरुषोत्तम का ज्ञान:

    • जो भगवान को पुरुषोत्तम के रूप में जानता है, वह सभी भ्रमों से मुक्त होकर भगवान की भक्ति करता है।
    • यह ज्ञान व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाता है।
  5. गोपनीय शास्त्र:

    • यह ज्ञान सबसे गोपनीय और महत्वपूर्ण है। इसे जानने वाला व्यक्ति जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त कर लेता है।

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