शनिवार, 25 जनवरी 2025

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) अर्जुन का भय और श्रद्धा (श्लोक 21-30)

भागवत गीता: अध्याय 11 (विश्वरूप दर्शन योग) अर्जुन का भय और श्रद्धा (श्लोक 21-30) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 21

अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति।
केचिद्भीताः प्रांजलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः।
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः॥

अर्थ:
"देवताओं के समूह आपके इस रूप में प्रवेश कर रहे हैं। कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपकी स्तुति कर रहे हैं। महर्षि और सिद्धजन ‘स्वस्ति’ कहकर आपको अत्यधिक स्तुतियों से प्रशंसा कर रहे हैं।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप को देखकर देवता और ऋषि विस्मित हैं। कुछ भयभीत हैं, तो कुछ भगवान की महिमा का गुणगान कर रहे हैं। यह उनकी दिव्यता और भयावहता दोनों को दर्शाता है।


श्लोक 22

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या।
विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा।
वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे॥

अर्थ:
"रुद्र, आदित्य, वसु, साध्य, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, मरुत, पितर, गंधर्व, यक्ष, असुर, और सिद्धगण, सभी आपको देख रहे हैं और विस्मित हो रहे हैं।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप के दर्शन से देवता, गंधर्व, यक्ष, और सिद्धजन सभी चकित और विस्मयपूर्ण भाव से उनकी महिमा का अनुभव कर रहे हैं।


श्लोक 23

रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं।
महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं।
दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्॥

अर्थ:
"हे महाबाहु, आपके इस विशाल रूप में अनेक मुख, नेत्र, भुजाएँ, जंघाएँ, पैर, उदर और भयंकर दाँत हैं। इसे देखकर लोक और मैं स्वयं भी भयभीत हो रहे हैं।"

व्याख्या:
भगवान का विश्वरूप उनकी विशालता, विविधता और शक्ति का प्रतीक है। इस रूप का भव्य और भयानक स्वरूप लोकों को और अर्जुन को भयभीत कर रहा है।


श्लोक 24

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं।
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा।
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो॥

अर्थ:
"आपका रूप, जो आकाश तक फैला हुआ है, जो तेज से भरपूर और विभिन्न रंगों वाला है, जिसमें विशाल और प्रज्वलित नेत्र हैं – इसे देखकर मेरा अंतःकरण भयभीत हो गया है। हे विष्णु, मुझे न धैर्य मिल रहा है और न शांति।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान के तेजस्वी और भयानक रूप को देखकर भयभीत और अशांत हो जाते हैं। उनका मन इस रूप की विशालता को समझने में असमर्थ हो रहा है।


श्लोक 25

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि।
दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म।
प्रसीद देवेश जगन्निवास॥

अर्थ:
"आपके मुख, जो भयंकर दाँतों से युक्त और कालानल (महान अग्नि) के समान प्रतीत हो रहे हैं, देखकर मैं दिशाओं को नहीं पहचान पा रहा हूँ और मुझे शांति भी नहीं मिल रही है। हे देवताओं के स्वामी और जगत के आधार, मुझ पर कृपा करें।"

व्याख्या:
भगवान के मुख, जो विनाश का प्रतीक हैं, अर्जुन को भयभीत कर देते हैं। वे भगवान से शांत और कृपालु रूप दिखाने की प्रार्थना करते हैं।


श्लोक 26-27

अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः।
सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ।
सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः॥
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति।
दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु।
संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः॥

अर्थ:
"यहाँ धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, राजा, भीष्म, द्रोण, कर्ण और हमारी ओर के प्रमुख योद्धा आपके भयानक मुखों में तेजी से प्रवेश कर रहे हैं। कुछ उनके भयंकर दाँतों के बीच फँसे हुए हैं और उनके सिर कुचले जा रहे हैं।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप में अर्जुन महाभारत के युद्ध में योद्धाओं के विनाश को स्पष्ट रूप से देख रहे हैं। यह श्लोक समय की सर्वभक्षी शक्ति और भगवान की अजेयता को प्रकट करता है।


श्लोक 28

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः।
समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा।
विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति॥

अर्थ:
"जैसे नदियों की अनेक धाराएँ जल के वेग से समुद्र की ओर जाती हैं, वैसे ही ये नरलोक के वीर आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक जीवन के चक्र को दर्शाता है, जिसमें सभी प्राणी भगवान की ओर लौटते हैं। युद्ध के वीर योद्धा भगवान के मुखों में समाहित हो रहे हैं, जो समय के प्रवाह को दर्शाता है।


श्लोक 29

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गाः।
विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकाः।
तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः॥

अर्थ:
"जैसे पतंगे आग में तीव्र वेग से प्रवेश करके नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही ये लोक भी आपके मुखों में तीव्र वेग से प्रवेश करके विनाश को प्राप्त हो रहे हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के विश्वरूप की विनाशकारी शक्ति को प्रकट करता है। समय की अनिवार्यता और सृष्टि के अंत का यह दृश्य अर्जुन को गहरे भय में डाल देता है।


श्लोक 30

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्तात्।
लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं।
भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो॥

अर्थ:
"आप अपने प्रज्वलित मुखों से चारों ओर समस्त लोकों को निगल रहे हैं। आपकी तेजस्वी ज्वालाओं ने समस्त जगत को भर दिया है और आपकी उग्र चमक इसे झुलसा रही है।"

व्याख्या:
भगवान के विश्वरूप में उनकी सर्वभक्षी शक्ति और तेजस्विता का वर्णन किया गया है। यह उनकी सृष्टि और विनाश दोनों की अनिवार्यता को दर्शाता है।


सारांश (श्लोक 21-30):

  1. भगवान के विश्वरूप को देखकर देवता, ऋषि और अन्य प्राणी विस्मय और भय से भर जाते हैं।
  2. अर्जुन देखते हैं कि महाभारत के युद्ध के सभी योद्धा भगवान के भयानक मुखों में प्रवेश कर रहे हैं, जो समय के विनाशकारी स्वरूप का प्रतीक है।
  3. भगवान का विश्वरूप उनकी अनंतता, शक्ति और सृष्टि-विनाश दोनों का प्रतीक है।
  4. यह दृश्य अर्जुन को भयभीत और विस्मित कर देता है, और वह भगवान से कृपा की प्रार्थना करते हैं।

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