शनिवार, 28 सितंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) अक्षर ब्रह्म का स्वरूप (श्लोक 1-7)

 भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) अक्षर ब्रह्म का स्वरूप (श्लोक 1-7) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे पुरुषोत्तम, वह ब्रह्म क्या है? आध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत क्या है और अधिदैव क्या कहा गया है?"

व्याख्या:
अर्जुन श्रीकृष्ण से गहरे प्रश्न पूछते हैं ताकि भगवान के द्वारा बताए गए उच्च ज्ञान को ठीक से समझ सकें। वह ब्रह्म, आत्मा, कर्म, भौतिक तत्वों और देवताओं के संदर्भ में स्पष्टता चाहते हैं।


श्लोक 2

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥

अर्थ:
"हे मधुसूदन, इस शरीर में अधियज्ञ कौन है? और मृत्यु के समय आत्मा के द्वारा आपको कैसे जाना जा सकता है?"

व्याख्या:
अर्जुन यह समझना चाहते हैं कि यज्ञ के अधिष्ठाता के रूप में भगवान का स्वरूप क्या है और मृत्यु के समय भगवान का स्मरण कैसे किया जा सकता है। यह मोक्ष के मार्ग पर अर्जुन की जिज्ञासा को दर्शाता है।


श्लोक 3

श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: ब्रह्म अविनाशी और परम है। आत्मा का स्वभाव आध्यात्म कहलाता है, और भूतों (जीवों) की उत्पत्ति का कारण कर्म है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं:

  1. ब्रह्म: शाश्वत और अविनाशी सत्य।
  2. आध्यात्म: आत्मा का आंतरिक स्वभाव।
  3. कर्म: वह क्रिया जिससे भौतिक संसार में जीवों की उत्पत्ति होती है।

श्लोक 4

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥

अर्थ:
"अधिभूत (भौतिक तत्व) नाशवान है, अधिदैव पुरुष है, और अधियज्ञ मैं ही हूँ, जो इस शरीर में स्थित हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ बताते हैं:

  1. अधिभूत: भौतिक संसार और उसकी नश्वरता।
  2. अधिदैव: देवताओं का स्वरूप।
  3. अधियज्ञ: भगवान स्वयं, जो प्रत्येक यज्ञ के अधिष्ठाता हैं और शरीर में स्थित आत्मा के साथ यज्ञ को संचालित करते हैं।

श्लोक 5

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥

अर्थ:
"मृत्यु के समय जो मुझे स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
यह श्लोक मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने के महत्व को दर्शाता है। भगवान के स्मरण से आत्मा भगवान के दिव्य स्वरूप को प्राप्त करती है और मोक्ष प्राप्त होता है।


श्लोक 6

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, मृत्यु के समय जो भी भाव स्मरण करता हुआ व्यक्ति शरीर त्यागता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है, क्योंकि वह जीवनभर उसी भाव से जुड़ा रहता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि मृत्यु के समय व्यक्ति जिस भाव में होता है, वही उसकी आत्मा की स्थिति को निर्धारित करता है। इसलिए जीवनभर भगवान का ध्यान और भक्ति करना आवश्यक है।


श्लोक 7

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः॥

अर्थ:
"इसलिए, हर समय मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो। अपना मन और बुद्धि मुझमें अर्पित करो, और तुम निःसंदेह मुझे प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को निर्देश देते हैं कि वह अपने कर्तव्यों (युद्ध) का पालन करते हुए हमेशा भगवान का स्मरण करें। भगवान का स्मरण और कर्तव्य का पालन दोनों ही मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं।


सारांश:

  1. अर्जुन ने ब्रह्म, आध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव, और अधियज्ञ के बारे में पूछा।
  2. भगवान ने इन सभी की परिभाषा दी, जिसमें ब्रह्म को अविनाशी और आत्मा को परम तत्व बताया।
  3. मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने से व्यक्ति भगवान के दिव्य स्वरूप को प्राप्त करता है।
  4. जीवनभर भगवान का ध्यान और भक्ति करना आवश्यक है ताकि मृत्यु के समय भगवान का स्मरण स्वाभाविक हो।
  5. भगवान का स्मरण और कर्तव्य का पालन, दोनों एक साथ मोक्ष का मार्ग बनाते हैं।

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