भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) योग में विफलता और पुनर्जन्म (श्लोक 33-45) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 33
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥
अर्थ:
अर्जुन ने कहा: "हे मधुसूदन, जो योग आपने समानता के साथ (समभाव में) बताया है, मैं इसमें स्थिरता नहीं देख पा रहा हूँ क्योंकि मन बहुत चंचल है।"
व्याख्या:
अर्जुन को योग का अभ्यास कठिन लगता है क्योंकि उनका मानना है कि मन का चंचल स्वभाव इसे स्थिर नहीं रहने देता। वह इस संदर्भ में अपनी शंका व्यक्त कर रहे हैं।
श्लोक 34
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥
अर्थ:
"हे कृष्ण, मन बहुत ही चंचल, अशांत, बलवान और दृढ़ है। इसे वश में करना मैं वायु को रोकने के समान कठिन मानता हूँ।"
व्याख्या:
अर्जुन मन की चंचलता और बलशाली स्वभाव को समझाते हैं और इसे नियंत्रित करने को कठिन बताते हैं। यह ध्यान साधना के सबसे बड़े अवरोध को रेखांकित करता है।
श्लोक 35
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
अर्थ:
"भगवान ने कहा: हे महाबाहु (अर्जुन), निःसंदेह मन चंचल और नियंत्रण में कठिन है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण ने अर्जुन की शंका को स्वीकार किया और समाधान दिया कि अभ्यास (ध्यान और योग) और वैराग्य (आसक्ति का त्याग) से मन को नियंत्रित किया जा सकता है।
श्लोक 36
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥
अर्थ:
"जिसका मन असंयमित है, उसके लिए योग कठिन है। लेकिन जिसने मन को वश में कर लिया है और प्रयास करता है, वह उचित साधनों से योग को प्राप्त कर सकता है।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि योग का अभ्यास करने के लिए आत्मसंयम और प्रयत्न अनिवार्य है। संयम और समर्पण के बिना योग संभव नहीं है।
श्लोक 37
अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥
अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे कृष्ण, यदि कोई व्यक्ति श्रद्धा के साथ योग का अभ्यास करे लेकिन प्रयास में असफल हो जाए और मन योग में स्थिर न कर सके, तो उसकी क्या गति होती है?"
व्याख्या:
अर्जुन की यह शंका उन लोगों के लिए है जो योग का अभ्यास करते हैं लेकिन पूर्ण सिद्धि प्राप्त नहीं कर पाते। यह प्रश्न आत्मा की स्थिति और उसकी यात्रा के संदर्भ में है।
श्लोक 38
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पतिः॥
अर्थ:
"हे महाबाहु, क्या वह व्यक्ति दोनों ओर से भ्रष्ट हो जाता है, जैसे बादल से अलग हुआ टुकड़ा नष्ट हो जाता है, और ब्रह्म के मार्ग में स्थिर न रहकर भ्रमित हो जाता है?"
व्याख्या:
अर्जुन का डर है कि योग में असफल व्यक्ति सांसारिक सुखों का भी आनंद नहीं ले पाता और आत्मिक उन्नति से भी वंचित हो जाता है।
श्लोक 39
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥
अर्थ:
"हे कृष्ण, कृपया मेरे इस संदेह को पूरी तरह से दूर करें। आपके अलावा इस संदेह को दूर करने वाला और कोई नहीं हो सकता।"
व्याख्या:
अर्जुन श्रीकृष्ण से स्पष्ट उत्तर चाहते हैं क्योंकि वह मानते हैं कि केवल श्रीकृष्ण ही सत्य का ज्ञान देने में सक्षम हैं।
श्लोक 40
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥
अर्थ:
"भगवान ने कहा: हे पार्थ, न इस लोक में और न परलोक में, उस योगाभ्यासी का विनाश होता है। कल्याणकारी कर्म करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि योग का अभ्यास करने वाला व्यक्ति चाहे सिद्धि प्राप्त न करे, फिर भी उसका प्रयास व्यर्थ नहीं जाता। ऐसे व्यक्ति को सदैव शुभ फल प्राप्त होता है।
श्लोक 41
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥
अर्थ:
"योगाभ्यासी जो पूर्णता प्राप्त नहीं करता, वह पुण्यकर्मियों के लोकों में जाकर लंबे समय तक सुख भोगता है और फिर पवित्र और संपन्न परिवार में जन्म लेता है।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि योगाभ्यासी को उच्च जन्म प्राप्त होता है, जिससे वह अपने पूर्व अभ्यास को फिर से शुरू कर सके।
श्लोक 42
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥
अर्थ:
"या फिर वह बुद्धिमान योगियों के कुल में जन्म लेता है। ऐसा जन्म इस संसार में अत्यंत दुर्लभ है।"
व्याख्या:
योगाभ्यासी के लिए योगियों के परिवार में जन्म लेना विशेष सौभाग्य की बात है, क्योंकि यह आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करता है।
श्लोक 43
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥
अर्थ:
"वहाँ वह अपने पूर्व जन्म की बुद्धि और प्रवृत्ति को प्राप्त करता है और पुनः सिद्धि के लिए प्रयास करता है, हे कुरुनंदन।"
व्याख्या:
यह श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्पष्ट करता है। योगाभ्यासी अपने पिछले जन्म की साधना को आगे बढ़ाता है और योग सिद्धि की ओर अग्रसर होता है।
श्लोक 44
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥
अर्थ:
"अपने पूर्व अभ्यास के कारण वह अनायास ही योग की ओर आकर्षित होता है। योग के जिज्ञासु भी वेदों के कर्मकांड से परे चले जाते हैं।"
व्याख्या:
पिछले जन्म की साधना व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से योग की ओर खींचती है। ऐसे लोग सांसारिक कर्मकांडों से ऊपर उठकर आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
श्लोक 45
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥
अर्थ:
"प्रयासरत और पापों से शुद्ध हुआ योगी अनेक जन्मों की सिद्धि के बाद परमगति को प्राप्त करता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि योग की सिद्धि एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। निरंतर अभ्यास और पवित्रता से व्यक्ति अंततः मोक्ष प्राप्त करता है।
सारांश:
- अर्जुन ने मन की चंचलता के कारण योग के अभ्यास में कठिनाई की शंका व्यक्त की।
- श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया कि योगाभ्यासी का प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता।
- योग में असफल व्यक्ति अगले जन्म में श्रेष्ठ परिवार में जन्म लेकर अपनी साधना जारी रखता है।
- पूर्व जन्म का अभ्यास व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से योग की ओर प्रेरित करता है।
- निरंतर प्रयास और पवित्रता से योगी अंततः परमगति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।