शनिवार, 27 अप्रैल 2024

भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) श्रीकृष्ण द्वारा सनातन ज्ञान का उपदेश (श्लोक 1-10)

 भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) श्रीकृष्ण द्वारा सनातन ज्ञान का उपदेश (श्लोक 1-10) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "मैंने इस अविनाशी योग को पहले सूर्य देव (विवस्वान) को सिखाया। विवस्वान ने इसे मनु को बताया और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को सिखाया।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञानयोग शाश्वत है और इसे युगों से पीढ़ी दर पीढ़ी महान आत्माओं को सिखाया गया है।


श्लोक 2

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥

अर्थ:
"इस प्रकार परंपरा के माध्यम से इस योग को राजर्षियों ने जाना। लेकिन समय के साथ, यह योग नष्ट हो गया, हे परंतप (अर्जुन)।"

व्याख्या:
ज्ञानयोग का महत्व राजर्षियों द्वारा समझा गया, लेकिन समय के साथ इसका सही अर्थ लुप्त हो गया। अब इसे पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है।


श्लोक 3

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥

अर्थ:
"आज मैंने तुम्हें वही पुरातन योग सिखाया है, क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो। यह महान रहस्य है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को इस ज्ञान का अधिकारी मानते हैं क्योंकि वह उनके प्रति भक्ति और मित्रता का भाव रखते हैं।


श्लोक 4

अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "आपका जन्म तो हाल का है, जबकि विवस्वान का जन्म बहुत पहले हुआ। फिर मैं कैसे मानूं कि आपने सबसे पहले यह योग सिखाया था?"

व्याख्या:
अर्जुन को श्रीकृष्ण के इस कथन पर संशय होता है। यह उनकी जिज्ञासा और ज्ञान प्राप्ति की इच्छा को दर्शाता है।


श्लोक 5

श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "हे अर्जुन, मेरे और तुम्हारे कई जन्म हुए हैं। मैं उन सभी को जानता हूँ, लेकिन तुम उन्हें नहीं जानते, हे परंतप।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि वे साक्षात ईश्वर हैं, जिनकी स्मृति और ज्ञान असीमित है। अर्जुन को यह आत्मा और परमात्मा के अंतर को समझाने के लिए कहा गया।


श्लोक 6

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥

अर्थ:
"यद्यपि मैं अजन्मा, अविनाशी और सभी प्राणियों का स्वामी हूँ, फिर भी अपनी माया (शक्ति) से मैं प्रकृति को अधीन कर जन्म लेता हूँ।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि उनका अवतार आत्मा के नियमों से मुक्त है। वे अपने इच्छानुसार माया का उपयोग करके जन्म लेते हैं।


श्लोक 7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

अर्थ:
"हे भारत, जब-जब धर्म का क्षय और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के अवतार का उद्देश्य समझाता है। जब समाज में धर्म कमजोर हो जाता है और अधर्म बढ़ने लगता है, तब वे अवतार लेकर संतुलन स्थापित करते हैं।


श्लोक 8

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

अर्थ:
"साधुओं की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनः स्थापना के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान का अवतार धर्म और न्याय की पुनर्स्थापना के लिए होता है। यह उनकी करुणा और दया का प्रतीक है।


श्लोक 9

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥

अर्थ:
"जो मेरे दिव्य जन्म और कर्म को यथार्थ में जानता है, वह इस शरीर को त्यागने के बाद पुनर्जन्म नहीं लेता और मेरी शरण में आता है।"

व्याख्या:
भगवान के दिव्य स्वरूप को जानने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।


श्लोक 10

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥

अर्थ:
"राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें मन लगाकर, ज्ञान और तपस्या द्वारा पवित्र हुए अनेक लोग मेरे स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि राग, भय और क्रोध को त्यागकर, तपस्या और ज्ञान के माध्यम से व्यक्ति भगवान की दिव्यता को प्राप्त कर सकता है।


सारांश:

  • श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञानयोग की परंपरा और उसके महत्व को समझाया।
  • उन्होंने बताया कि उनका अवतार धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिए होता है।
  • भगवान के दिव्य जन्म और कर्म को समझने से मोक्ष प्राप्त होता है।
  • राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर ज्ञान और तपस्या के माध्यम से भगवान की प्राप्ति संभव है।

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