यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 1 से श्लोक 12 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने त्याग (संन्यास) और कर्म के विभिन्न रूपों का वर्णन किया है। उन्होंने यह भी समझाया है कि सच्चा त्याग क्या है और त्याग का सही स्वरूप क्या होना चाहिए।
श्लोक 1
अर्जुन उवाच
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥
अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे महाबाहु हृषीकेश, हे केशिनिषूदन, मैं संन्यास और त्याग का तत्व जानना चाहता हूँ। कृपया मुझे स्पष्ट रूप से बताइए।"
व्याख्या:
अर्जुन भगवान से संन्यास और त्याग के बीच के अंतर को समझाने का अनुरोध करते हैं। वह जानना चाहते हैं कि इन दोनों का वास्तविक अर्थ और उद्देश्य क्या है।
श्लोक 2
श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः॥
अर्थ:
"भगवान ने कहा: कामनाओं से युक्त कर्मों का त्याग 'संन्यास' कहलाता है, और सभी कर्मों के फलों के त्याग को 'त्याग' कहते हैं।"
व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि:
- संन्यास: इच्छाओं से प्रेरित कर्मों का त्याग।
- त्याग: सभी कर्मों के फलों को त्याग देना।
यह दोनों शब्द त्याग के दो अलग-अलग पहलुओं को दर्शाते हैं।
श्लोक 3
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे॥
अर्थ:
"कुछ मनीषी (ज्ञानी) कर्मों को दोषपूर्ण मानकर त्यागने योग्य कहते हैं, जबकि कुछ कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप जैसे कर्म कभी त्यागने योग्य नहीं हैं।"
व्याख्या:
कर्मों के बारे में भिन्न दृष्टिकोण हैं। कुछ लोग सभी कर्मों को त्यागने योग्य मानते हैं, जबकि अन्य केवल इच्छाओं और भोग से जुड़े कर्मों को त्यागने की सलाह देते हैं।
श्लोक 4
निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः॥
अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, त्याग के विषय में मेरा निश्चित मत सुनो। हे पुरुषों में श्रेष्ठ, त्याग तीन प्रकार का होता है।"
व्याख्या:
भगवान अर्जुन को स्पष्ट करते हैं कि त्याग तीन प्रकार का होता है और इसके सही स्वरूप को समझने के लिए उन्हें ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए।
श्लोक 5
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥
अर्थ:
"यज्ञ, दान और तप के कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए। इन्हें अवश्य करना चाहिए, क्योंकि ये ज्ञानी लोगों को पवित्र करते हैं।"
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि यज्ञ (भगवान की पूजा), दान (परोपकार) और तप (आत्म-संयम) जैसे कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं, क्योंकि ये आत्मा को शुद्ध करते हैं।
श्लोक 6
एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥
अर्थ:
"लेकिन इन कर्मों को आसक्ति और फल की इच्छा छोड़कर करना चाहिए। हे पार्थ, यह मेरा निश्चित और श्रेष्ठ मत है।"
व्याख्या:
भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि यज्ञ, दान और तप को फल की आकांक्षा और आसक्ति के बिना करना चाहिए। यह शुद्ध कर्म का मार्ग है।
श्लोक 7
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥
अर्थ:
"नियत (कर्तव्य) कर्म का त्याग उचित नहीं है। अज्ञान या मोह के कारण इसका त्याग तामसिक (अधम) माना जाता है।"
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि कर्तव्य कर्मों को छोड़ना अज्ञान का लक्षण है। ऐसा त्याग तामसिक कहलाता है और यह व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में बाधा डालता है।
श्लोक 8
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति किसी कर्म को केवल दुःख या शारीरिक कष्ट के भय से त्यागता है, उसका त्याग राजसिक (आसक्ति युक्त) कहलाता है। ऐसा त्याग फलदायी नहीं होता।"
व्याख्या:
राजसिक त्याग वह है जिसमें व्यक्ति अपने कर्तव्यों से बचने के लिए त्याग करता है। यह त्याग स्वार्थपूर्ण और अस्थिर होता है।
श्लोक 9
कार्यं इत्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥
अर्थ:
"हे अर्जुन, जो कर्म केवल कर्तव्य समझकर, आसक्ति और फल की इच्छा छोड़कर किया जाता है, वह सात्त्विक त्याग कहलाता है।"
व्याख्या:
सात्त्विक त्याग वह है जिसमें व्यक्ति अपने कर्मों को कर्तव्य मानकर करता है, लेकिन किसी प्रकार की इच्छाओं और आसक्तियों से मुक्त रहता है।
श्लोक 10
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥
अर्थ:
"जो त्यागी कुशल (शुभ) और अकुशल (अशुभ) कर्मों से न तो द्वेष करता है और न ही आसक्त होता है, वह सत्त्वगुण से युक्त, बुद्धिमान और संशयों से मुक्त होता है।"
व्याख्या:
सच्चा त्यागी हर प्रकार के कर्म को स्वीकार करता है और उनसे मुक्त रहता है। वह न तो किसी कर्म को नापसंद करता है और न ही किसी में आसक्ति रखता है।
श्लोक 11
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥
अर्थ:
"शरीरधारी के लिए सभी कर्मों का पूर्ण त्याग संभव नहीं है। लेकिन जो कर्मों के फलों का त्याग करता है, उसे ही सच्चा त्यागी कहा जाता है।"
व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि जीवन में सभी कर्मों का त्याग करना संभव नहीं है। सच्चा त्याग वह है जिसमें व्यक्ति कर्म करता है लेकिन उनके फलों की इच्छा नहीं रखता।
श्लोक 12
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्॥
अर्थ:
"कर्मों का फल तीन प्रकार का होता है – अनिष्ट (अप्रिय), इष्ट (प्रिय) और मिश्रित। लेकिन यह केवल त्याग न करने वालों को प्राप्त होता है, संन्यासी को नहीं।"
व्याख्या:
जो व्यक्ति कर्मों के फलों का त्याग नहीं करता, उसे अपने कर्मों के अनुसार सुखद, दुखद, या मिश्रित फल भोगने पड़ते हैं। लेकिन सच्चा संन्यासी इन फलों से मुक्त रहता है।
सारांश (श्लोक 1-12):
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त्याग और संन्यास का अर्थ:
- संन्यास: इच्छाओं और कामनाओं से प्रेरित कर्मों का त्याग।
- त्याग: सभी कर्मों के फलों का त्याग।
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त्याग के तीन प्रकार:
- तामसिक त्याग: अज्ञान या मोह के कारण कर्तव्य का त्याग।
- राजसिक त्याग: कष्ट या भय के कारण कर्म का त्याग।
- सात्त्विक त्याग: कर्तव्य का पालन करना लेकिन फल की इच्छा से मुक्त रहना।
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सच्चा त्याग:
- कर्मों का त्याग नहीं, बल्कि फल की आसक्ति का त्याग सच्चा त्याग है।
- सात्त्विक त्याग व्यक्ति को संशयों से मुक्त करता है और मोक्ष की ओर ले जाता है।
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कर्म का फल:
- कर्मों का फल अनिष्ट, इष्ट और मिश्रित होता है।
- त्यागी व्यक्ति कर्मों के बंधन से मुक्त रहता है।
मुख्य संदेश:
भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि सच्चा त्याग कर्मों के फलों को त्यागना है, न कि स्वयं कर्मों को। यज्ञ, दान, और तप जैसे शुद्ध कर्मों को करना ही चाहिए, लेकिन उन्हें फल की
इच्छा और आसक्ति से मुक्त होकर करना चाहिए।