शनिवार, 14 जून 2025

भागवत गीता: अध्याय 16 (दैवासुर सम्पद् विभाग योग) दैवी और आसुरी गुणों का वर्णन (श्लोक 1-20)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 16 (दैवासुर सम्पद् विभाग योग) के श्लोक 1 से 20 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने दैवी और आसुरी संपत्तियों (गुणों) का वर्णन किया है। उन्होंने बताया है कि कौन-से गुण मोक्ष की ओर ले जाते हैं और कौन-से गुण बंधन व अधोगति का कारण बनते हैं।


श्लोक 1-3

श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: निडरता, मन की शुद्धता, ज्ञान-योग में स्थिरता, दान, इंद्रिय-निग्रह, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शांति, अपैशुन्य (परनिंदा का अभाव), प्राणियों के प्रति दया, लोभ का अभाव, कोमलता, लज्जा, अचंचलता, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, द्वेष का अभाव और अहंकारहीनता – ये सभी दैवी संपत्ति हैं, जो मोक्ष की ओर ले जाती हैं।"

व्याख्या:
भगवान ने दैवी गुणों का वर्णन किया है, जो व्यक्ति को आत्मज्ञान, शांति और मोक्ष की ओर ले जाते हैं। इन गुणों को अपनाने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति करता है और समाज के लिए प्रेरणा बनता है।


श्लोक 4

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदामासुरीम्॥

अर्थ:
"दंभ (ढोंग), घमंड, अहंकार, क्रोध, कठोरता और अज्ञान – ये सभी आसुरी संपत्ति के लक्षण हैं।"

व्याख्या:
आसुरी गुण व्यक्ति को अधोगति की ओर ले जाते हैं। ये गुण भौतिक इच्छाओं, अहंकार और अज्ञान का परिणाम होते हैं।


श्लोक 5

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥

अर्थ:
"दैवी संपत्ति मोक्ष का कारण है और आसुरी संपत्ति बंधन का। हे पाण्डव, तुम्हारा जन्म दैवी संपत्ति के लिए हुआ है, इसलिए चिंता मत करो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को बताते हैं कि दैवी गुण मोक्ष प्रदान करते हैं, जबकि आसुरी गुण बंधन और पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। अर्जुन को आश्वस्त किया गया है कि उनमें दैवी गुण हैं।


श्लोक 6

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥

अर्थ:
"इस संसार में दो प्रकार के प्राणी हैं – दैवी और आसुरी। दैवी गुणों का वर्णन मैंने पहले किया है, अब आसुरी गुणों के बारे में सुनो।"

व्याख्या:
भगवान स्पष्ट करते हैं कि सभी प्राणी दो श्रेणियों में आते हैं – दैवी (जो शुभ गुणों से युक्त हैं) और आसुरी (जो नकारात्मक गुणों से युक्त हैं)।


श्लोक 7

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥

अर्थ:
"आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, यह नहीं जानते। उनमें न तो शुद्धता है, न अच्छा आचरण, और न ही सत्यता।"

व्याख्या:
आसुरी लोग धर्म और अधर्म के भेद को नहीं समझते। वे शुद्धता और नैतिकता के सिद्धांतों का पालन नहीं करते और झूठ और पाखंड में लिप्त रहते हैं।


श्लोक 8

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥

अर्थ:
"आसुरी लोग कहते हैं कि यह संसार असत्य, आधारहीन और ईश्वर रहित है। वे मानते हैं कि यह केवल कामना और आपसी संबंधों से उत्पन्न हुआ है।"

व्याख्या:
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग सृष्टि के दिव्य मूल को अस्वीकार करते हैं। वे ईश्वर और धर्म को नकारते हुए भौतिक इच्छाओं और स्वार्थ को ही प्राथमिकता देते हैं।


श्लोक 9

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥

अर्थ:
"ऐसी दृष्टि को अपनाकर, अज्ञानी और अल्पबुद्धि लोग आत्मा को नष्ट कर देते हैं। वे उग्र कर्म करते हैं और संसार के विनाश का कारण बनते हैं।"

व्याख्या:
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग भौतिकता और स्वार्थ में इतने लिप्त हो जाते हैं कि उनकी आत्मा का पतन हो जाता है। उनके कर्म समाज और प्रकृति के लिए हानिकारक होते हैं।


श्लोक 10

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥

अर्थ:
"वे तृष्णा (भोग लालसा) का सहारा लेकर, दंभ, घमंड और अहंकार से युक्त होते हैं। मोह में फँसकर, असत्य को पकड़कर अशुद्ध व्रतों का पालन करते हैं।"

व्याख्या:
आसुरी लोग अपनी इच्छाओं और अहंकार के वश में होकर ऐसे कार्य करते हैं, जो अशुद्ध और अधर्म के मार्ग पर होते हैं।


श्लोक 11-12

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥

अर्थ:
"वे अनंत चिंता से घिरे रहते हैं, जो उनके प्रलय (मृत्यु) तक रहती है। उनकी तृष्णा असीम होती है और वे मानते हैं कि भोग ही सबकुछ है। वे आशा (इच्छा) के बंधनों से जकड़े होते हैं, क्रोध और काम के दास बन जाते हैं, और अन्यायपूर्ण तरीकों से धन एकत्र करते हैं।"

व्याख्या:
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग भोग को ही जीवन का अंतिम उद्देश्य मानते हैं। वे लालच और क्रोध के कारण अनैतिक कार्य करते हैं और अपनी इच्छाओं के कारण दुख और चिंता में घिरे रहते हैं।


श्लोक 13-15

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥

अर्थ:
"वे सोचते हैं: 'आज मैंने यह प्राप्त किया, अब मैं अपनी इच्छाएँ पूरी करूँगा। यह मेरा है और यह भविष्य में भी मेरा होगा। मैंने इस शत्रु को मार दिया है और दूसरों को भी मार दूँगा। मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही भोग करने वाला हूँ, मैं सिद्ध, बलवान और सुखी हूँ। मैं धनवान और कुलीन हूँ। मेरे जैसा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आनंद करूँगा।' इस प्रकार, वे अज्ञान से मोहित रहते हैं।"

व्याख्या:
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग केवल भौतिक सुखों में लिप्त रहते हैं। वे अहंकार और अज्ञान में डूबे रहते हैं और अपने भोग तथा शक्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं।


श्लोक 16-20

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥
आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥

अर्थ:
"वे अनेक प्रकार की चिंताओं से भ्रमित होते हैं, मोह में फँसे रहते हैं और भोग में लिप्त होकर अशुद्ध नरकों में गिरते हैं। वे स्वयं को बड़ा मानते हैं, अहंकारी, धनवान और दंभी होते हैं। वे धर्म का ढोंग करते हैं, लेकिन विधिपूर्वक नहीं। अहंकार, घमंड, लालच और क्रोध से युक्त होकर, वे मुझसे और दूसरों से द्वेष करते हैं। ऐसे दुष्ट, क्रूर और अधम प्राणियों को मैं बार-बार आसुरी योनियों में फेंकता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान स्पष्ट करते हैं कि आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग, जो अहंकारी, क्रोधी और दूसरों से द्वेष करते हैं, उन्हें अधम योनियों में जन्म लेना पड़ता है। यह उनके अधार्मिक कर्मों और स्वार्थी प्रवृत्तियों का परिणाम है।


सारांश (श्लोक 1-20):

  1. दैवी संपत्ति:

    • अहिंसा, दया, शांति, सच्चाई, त्याग, इंद्रिय-निग्रह और नम्रता जैसे गुण।
    • ये गुण मोक्ष और आत्मज्ञान की ओर ले जाते हैं।
  2. आसुरी संपत्ति:

    • दंभ, अहंकार, क्रोध, अज्ञान, लालच और भोग की प्रवृत्ति।
    • ये गुण बंधन, अधोगति और नरक का कारण बनते हैं।
  3. आसुरी प्रवृत्ति का परिणाम:

    • आसुरी गुणों से युक्त व्यक्ति मोह, अज्ञान और तृष्णा में फँसकर अधम योनियों में जन्म लेता है।
    • उनका जीवन अधर्म और स्वार्थ से भरा होता है, जो समाज और स्वयं के लिए हानिकारक है।

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