शनिवार, 24 मई 2025

भागवत गीता: अध्याय 15 (पुरुषोत्तम योग) सत्य और आत्मा का ज्ञान (श्लोक 8-12)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 15 (पुरुषोत्तम योग) के श्लोक 8 से श्लोक 12 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा के शरीर से शरीर में स्थानांतरण, उसकी चेतना, और उसकी प्रकृति को समझाया है।


श्लोक 8

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर gandhānिवाशयात्॥

अर्थ:
"जब आत्मा (ईश्वर का अंश) एक शरीर को त्यागकर दूसरा शरीर प्राप्त करता है, तो वह अपने साथ मन, इंद्रियों और चेतना को ले जाता है, जैसे हवा फूलों की सुगंध को अपने साथ ले जाती है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जब आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाती है, तो वह अपने साथ मन और इंद्रियों के संस्कारों को ले जाती है। यह पुनर्जन्म और कर्मों का परिणाम है। आत्मा का यह प्रवास भौतिक शरीर तक सीमित नहीं होता, बल्कि मन और इंद्रिय रूपी सूक्ष्म शरीर के साथ होता है।


श्लोक 9

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥

अर्थ:
"आत्मा कान, आँख, त्वचा, जीभ और नाक (पाँच ज्ञानेंद्रियों) का आधार लेकर, मन के साथ भौतिक विषयों का अनुभव करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मा की चेतना और भौतिक शरीर के माध्यम से अनुभव करने की क्षमता का वर्णन करता है। आत्मा, मन और इंद्रियों के द्वारा संसार के विषयों का अनुभव करता है। यह दिखाता है कि कैसे आत्मा शरीर के माध्यम से अपने कर्मों का फल भोगती है।


श्लोक 10

उत्क्रामन्तं स्थितं वाऽपि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥

अर्थ:
"जो अज्ञानी हैं, वे आत्मा को शरीर से निकलते हुए, उसमें स्थित रहते हुए, और गुणों (संसारिक विषयों) का अनुभव करते हुए नहीं देख पाते। लेकिन जो ज्ञानचक्षु (ज्ञान की दृष्टि) वाले हैं, वे इसे देख पाते हैं।"

व्याख्या:
अज्ञानी व्यक्ति आत्मा की उपस्थिति और उसके शरीर में स्थानांतरण को नहीं समझ पाता। केवल वे लोग, जिनके पास आत्मज्ञान है और जिन्होंने भक्ति व वैराग्य से अपने दृष्टिकोण को शुद्ध किया है, वे आत्मा के इस स्वरूप को समझ सकते हैं।


श्लोक 11

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥

अर्थ:
"जो योगी आत्मा के स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं, वे इसे अपने भीतर स्थित देख पाते हैं। लेकिन जिनका मन शुद्ध नहीं है, वे इसे देख नहीं पाते।"

व्याख्या:
योगी, जो ध्यान और आत्मसंयम के माध्यम से अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित करते हैं, आत्मा की वास्तविकता को देख पाते हैं। लेकिन जो लोग भौतिक आसक्तियों और अज्ञान से भरे हुए हैं, वे आत्मा के इस दिव्य स्वरूप को नहीं समझ सकते।


श्लोक 12

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥

अर्थ:
"सूर्य में स्थित जो तेज पूरे जगत को प्रकाशित करता है, चंद्रमा और अग्नि का जो प्रकाश है, उसे मेरा तेज समझो।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि सृष्टि के सभी प्रकाश (सूर्य, चंद्रमा और अग्नि) का स्रोत वही हैं। यह उनके दिव्य स्वरूप का संकेत है। भगवान सृष्टि को जीवन देने वाली ऊर्जा और प्रकाश के मूल कारण हैं।


सारांश (श्लोक 8-12):

  1. आत्मा का स्थानांतरण (पुनर्जन्म):

    • आत्मा शरीर को छोड़ते और प्राप्त करते समय मन और इंद्रियों के संस्कार अपने साथ ले जाती है।
    • यह प्रवास वायुरूपी सुगंध के साथ जाने जैसा है।
  2. आत्मा का भौतिक अनुभव:

    • आत्मा मन और इंद्रियों के माध्यम से संसारिक विषयों का अनुभव करती है।
    • अज्ञानी आत्मा की इस प्रक्रिया को नहीं समझ पाते।
  3. योग और आत्मज्ञान:

    • आत्मा को केवल योगी और ज्ञानचक्षु वाले व्यक्ति देख और समझ सकते हैं।
    • अज्ञानी और आसक्ति में लिप्त व्यक्ति आत्मा को नहीं समझ पाते।
  4. भगवान का प्रकाश:

    • सूर्य, चंद्रमा और अग्नि का प्रकाश भगवान का तेज है।
    • यह भगवान की सर्वव्यापकता और दिव्यता को दर्शाता है।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण इस खंड में आत्मा और प्रकृति के संबंध को स्पष्ट करते हैं। आत्मा का संसार में अनुभव मन और इंद्रियों के माध्यम से होता है, लेकिन इसे केवल योग और आत्मज्ञान के माध्यम से समझा जा सकता है। भगवान अपने दिव्य स्वरूप और जगत को प्रकाशित करने वाले तेज के माध्यम से अपने भक्तों को अपनी उपस्थिति का एहसास कराते हैं।

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