भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) सृष्टि और भगवान का कार्य (श्लोक 11-19) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 11
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥
अर्थ:
"मूर्ख लोग मेरी इस मानुषी देह को देखकर मेरी अवहेलना करते हैं। वे मेरे परे दिव्य स्वरूप और समस्त प्राणियों के स्वामी होने को नहीं समझते।"
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि अज्ञानी लोग उन्हें केवल एक साधारण मनुष्य समझते हैं और उनके दिव्य स्वरूप को नहीं पहचानते। उनकी योगमाया के कारण, वे उनके वास्तविक स्वरूप को समझने में असमर्थ रहते हैं।
श्लोक 12
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः॥
अर्थ:
"जिनकी आशाएँ, कर्म, और ज्ञान व्यर्थ हैं, वे लोग राक्षसी और आसुरी प्रकृति में स्थित होते हैं और मोह में पड़ जाते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जो लोग भगवान के प्रति श्रद्धा नहीं रखते, वे व्यर्थ प्रयास करते हैं। उनका ज्ञान और कर्म निष्फल हो जाता है, क्योंकि वे राक्षसी (अहंकारयुक्त) और आसुरी (भौतिकता में लिप्त) स्वभाव को अपनाते हैं।
श्लोक 13
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥
अर्थ:
"हे पार्थ, महात्मा लोग दैवी प्रकृति को अपनाकर मेरी भक्ति करते हैं। वे मुझे भूतों का आदि और अविनाशी जानकर अनन्य मन से मेरी आराधना करते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक महात्माओं की विशेषताओं को बताता है। वे दैवी गुणों से युक्त होकर भगवान के अविनाशी और शाश्वत स्वरूप को समझते हैं और एकाग्र मन से उनकी भक्ति करते हैं।
श्लोक 14
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥
अर्थ:
"महात्मा सदा मेरा गुणगान करते हुए, दृढ़ निश्चय के साथ मेरी भक्ति करते हैं। वे मेरी नम्रतापूर्वक पूजा करते हैं और मुझसे सदा जुड़े रहते हैं।"
व्याख्या:
महात्माओं की भक्ति नित्य और अखंड होती है। वे भगवान के प्रति समर्पित रहते हैं, उनके नाम का जाप करते हैं और हर समय उनकी आराधना में लीन रहते हैं।
श्लोक 15
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥
अर्थ:
"कुछ लोग ज्ञान यज्ञ के माध्यम से मुझे उपासते हैं। वे मुझे एकत्व (एक रूप), पृथक्त्व (अलग-अलग रूपों), और अनेक रूपों में विश्व के रूप में देखते हैं।"
व्याख्या:
भगवान विभिन्न भक्तों के उपासना के तरीकों का वर्णन करते हैं। कुछ भक्त उन्हें ब्रह्म (निर्गुण), भगवन् (सगुण), और विश्व (सर्वव्यापक रूप) के रूप में पूजते हैं।
श्लोक 16
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥
अर्थ:
"मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही क्रतु (विधान यज्ञ) हूँ, मैं ही स्वधा (पितरों का आह्वान) हूँ, मैं ही औषधि (जड़ी-बूटी) हूँ। मैं ही मंत्र, मैं ही घी, मैं ही अग्नि और मैं ही हवन सामग्री हूँ।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान हर यज्ञ और उसके सभी तत्वों के मूल हैं। सभी धार्मिक कृत्य भगवान के स्वरूप में ही निहित हैं, और उनकी पूजा ही हर यज्ञ का अंतिम उद्देश्य है।
श्लोक 17
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च॥
अर्थ:
"मैं इस जगत का पिता, माता, पालनकर्ता और पितामह (पूर्वज) हूँ। मैं जानने योग्य, पवित्र, ओंकार और वेदों (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद) का आधार हूँ।"
व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे इस संसार के सृजन, पालन और संहार के मूल आधार हैं। वे वेदों के मर्म और सभी धार्मिक ज्ञान के केंद्र हैं।
श्लोक 18
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥
अर्थ:
"मैं ही सबका गंतव्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, निवास स्थान, शरण, सच्चा मित्र, सृष्टि का उद्गम, प्रलय, आधार, आश्रय और अविनाशी बीज हूँ।"
व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के विविध दिव्य स्वरूपों को दर्शाता है। वे सभी प्राणियों के लिए शरणस्थल और मार्गदर्शक हैं। वे सृष्टि का आरंभ, मध्य और अंत हैं।
श्लोक 19
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥
अर्थ:
"मैं ही तपन करता हूँ, मैं ही वर्षा करता हूँ। मैं ही इसे रोकता और उत्पन्न करता हूँ। हे अर्जुन, मैं ही अमृत (जीवन), मृत्यु, सत्य और असत्य हूँ।"
व्याख्या:
भगवान अपनी सर्वव्यापकता और सृष्टि में अपनी भूमिका को समझाते हैं। वे ही सभी प्रक्रियाओं के कारण हैं – जीवन और मृत्यु, निर्माण और विनाश, सत्य और असत्य। यह उनकी दिव्यता और सर्वशक्तिमान स्वरूप को प्रकट करता है।
सारांश:
- भगवान के स्वरूप को न पहचानने वाले अज्ञानी लोग उनकी अवमानना करते हैं।
- महात्मा लोग दैवी प्रकृति को अपनाकर नित्य भक्ति करते हैं और भगवान के दिव्य स्वरूप को पहचानते हैं।
- भगवान यज्ञ, वेद, मंत्र, और सभी धार्मिक कृत्यों के मूल हैं।
- वे इस संसार के सृजन, पालन और प्रलय के कारण हैं।
- भगवान जीवन और मृत्यु, सत्य और असत्य, और हर प्रक्रिया के मूल आधार हैं।