भागवत गीता: अध्याय 9 (राजविद्या-राजगुह्य योग) राजविद्या और राजगुह्य का उद्घाटन (श्लोक 1-10) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 1
श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥
अर्थ:
"भगवान ने कहा: मैं तुम्हें यह सबसे गोपनीय ज्ञान (राजविद्या) और अनुभवसहित विज्ञान बताने जा रहा हूँ। इसे जानकर तुम अशुभ (संसार के बंधनों) से मुक्त हो जाओगे।"
व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि वह उसे सबसे पवित्र और गोपनीय ज्ञान देने वाले हैं, जिसमें केवल सिद्धांत (ज्ञान) ही नहीं, बल्कि उसका व्यावहारिक अनुभव (विज्ञान) भी शामिल है। यह ज्ञान मोक्ष का मार्ग है।
श्लोक 2
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥
अर्थ:
"यह ज्ञान राजविद्या (ज्ञानों में राजा) और राजगुह्य (गोपनीय रहस्यों में सबसे श्रेष्ठ) है। यह पवित्र, परम उत्तम, प्रत्यक्ष अनुभव करने योग्य, धर्मयुक्त, सुलभ और अविनाशी है।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि यह ज्ञान न केवल उच्च और पवित्र है, बल्कि व्यावहारिक रूप से अनुभव किया जा सकता है। यह धर्म के अनुरूप और आत्मा को स्थायी सुख प्रदान करने वाला है।
श्लोक 3
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥
अर्थ:
"हे परंतप (अर्जुन), जो लोग इस धर्म (ज्ञान) में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते और मृत्यु तथा संसार के चक्र में फँसे रहते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि भगवान में श्रद्धा और विश्वास के बिना व्यक्ति संसार के जन्म-मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो सकता। श्रद्धा ही भगवान की भक्ति का आधार है।
श्लोक 4
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मस्तानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥
अर्थ:
"यह सम्पूर्ण जगत मेरी अव्यक्त मूर्ति (दिव्य स्वरूप) से व्याप्त है। सभी प्राणी मुझमें स्थित हैं, लेकिन मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।"
व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के सर्वव्यापक और निराकार स्वरूप को दर्शाता है। भगवान सभी जगह मौजूद हैं, लेकिन वे सृष्टि से अलग रहते हुए भी उसे संचालित करते हैं।
श्लोक 5
न च मस्तानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥
अर्थ:
"और फिर भी, ये सभी प्राणी मुझमें स्थित नहीं हैं। यह मेरा दिव्य योग है। मैं भूतों का पालनकर्ता हूँ, लेकिन उनमें स्थित नहीं हूँ। मेरा आत्मा सबका आधार है।"
व्याख्या:
भगवान अपनी योगमाया (दैवी शक्ति) के माध्यम से सृष्टि का संचालन करते हैं। वे संसार के सभी प्राणियों का पालन करते हैं, लेकिन वे सृष्टि में बंधे नहीं हैं।
श्लोक 6
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मयि स्थितानि पृथिवि॥
अर्थ:
"जैसे वायु, जो सर्वत्र व्याप्त है, आकाश में स्थित रहती है, वैसे ही सभी प्राणी मुझमें स्थित रहते हैं।"
व्याख्या:
भगवान इस श्लोक में एक उदाहरण देकर बताते हैं कि जैसे वायु आकाश में रहती है लेकिन आकाश पर निर्भर नहीं होती, वैसे ही सृष्टि उनके भीतर है, लेकिन वे उससे अप्रभावित रहते हैं।
श्लोक 7
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥
अर्थ:
"हे कौन्तेय, कल्प के अंत में, सभी प्राणी मेरी प्रकृति में विलीन हो जाते हैं और कल्प के आरंभ में, मैं उन्हें पुनः उत्पन्न करता हूँ।"
व्याख्या:
भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि सृष्टि एक चक्र के रूप में चलती है। कल्प (ब्रह्मा के दिन) के अंत में प्रलय होता है और सभी प्राणी भगवान की प्रकृति में विलीन हो जाते हैं। जब सृष्टि पुनः आरंभ होती है, तो वे सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं।
श्लोक 8
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥
अर्थ:
"मैं अपनी प्रकृति को अधीन करके इस सम्पूर्ण सृष्टि को बार-बार उत्पन्न करता हूँ। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन होकर जन्म लेते हैं।"
व्याख्या:
भगवान यह बताते हैं कि सृष्टि और प्रलय उनकी प्रकृति के माध्यम से होती है। सभी प्राणी प्रकृति के नियमों के अधीन रहते हैं और भगवान की इच्छा से संचालित होते हैं।
श्लोक 9
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥
अर्थ:
"हे धनञ्जय, ये कर्म मुझे बाँधते नहीं हैं, क्योंकि मैं इन कर्मों में अनासक्त और उदासीन (अप्रभावित) रहता हूँ।"
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि सृष्टि का संचालन उनके द्वारा होता है, लेकिन वे इन कर्मों से बंधित नहीं होते। उनकी स्थिति कर्मों से परे और पूर्णतः स्वतंत्र है।
श्लोक 10
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥
अर्थ:
"मेरे अधीन रहते हुए प्रकृति चल-अचल सम्पूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करती है। हे कौन्तेय, इस कारण से यह संसार चक्र में चलता रहता है।"
व्याख्या:
भगवान अपनी स्थिति को सृष्टि के संचालक के रूप में स्पष्ट करते हैं। वे प्रकृति को संचालित करते हैं, जिससे संसार का निर्माण, पालन और प्रलय होता है।
सारांश:
- भगवान सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान हैं, लेकिन सृष्टि के कर्मों से अप्रभावित रहते हैं।
- सृष्टि और प्रलय प्रकृति के माध्यम से भगवान की इच्छा से होते हैं।
- इस ज्ञान और अनुभव को जानकर व्यक्ति संसार के बंधनों से मुक्त हो सकता है।
- भगवान के अधीन सब कुछ चलता है, लेकिन वे स्वयं कर्मों के बंधन से परे हैं।
- यह ज्ञान मोक्ष का मार्ग प्रदान करता है और व्यक्ति को सृष्टि के रहस्यों को समझने में सक्षम बनाता है।