भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) अक्षर ब्रह्म का ध्यान (श्लोक 17-22) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 17
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥
अर्थ:
"जो लोग ब्रह्मा के दिन और रात को समझते हैं, वे जानते हैं कि ब्रह्मा का एक दिन एक सहस्र युगों (चार युगों के हजार चक्र) के बराबर है, और उनकी रात भी इतनी ही लंबी होती है।"
व्याख्या:
यह श्लोक ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के कालचक्र का वर्णन करता है। ब्रह्मा का एक दिन 1000 युगों (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, और कलियुग के 1000 चक्र) के बराबर होता है। यह समझ सृष्टि और प्रलय के ब्रह्मांडीय समय के गहरे विज्ञान को व्यक्त करती है।
श्लोक 18
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥
अर्थ:
"ब्रह्मा के दिन की शुरुआत में सभी प्राणी अव्यक्त (अदृश्य) से प्रकट होते हैं, और उनकी रात में, वे सभी पुनः उसी अव्यक्त में लीन हो जाते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि ब्रह्मा के दिन सृष्टि उत्पन्न होती है और उनकी रात में सब कुछ प्रलय (विनाश) में विलीन हो जाता है। यह संसार ब्रह्मा के दिन-रात के चक्र में निरंतर उत्पन्न और विनष्ट होता रहता है।
श्लोक 19
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥
अर्थ:
"हे पार्थ, वही प्राणियों का समूह बार-बार उत्पन्न होता है और रात्रि के समय प्रलय में लीन हो जाता है, तथा दिन के आगमन पर पुनः अवश्य प्रकट होता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जीवों का जन्म और मृत्यु का यह चक्र ब्रह्मा के समय चक्र के अधीन होता है। यह सृष्टि बार-बार उत्पन्न होती है और फिर प्रलय में विलीन हो जाती है।
श्लोक 20
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥
अर्थ:
"उस अव्यक्त से परे एक और शाश्वत अव्यक्त भाव है, जो सभी प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।"
व्याख्या:
भगवान यहाँ बताते हैं कि भौतिक सृष्टि का अव्यक्त रूप तो नश्वर है, लेकिन उसके परे एक शाश्वत, दिव्य और अविनाशी स्वरूप (परमात्मा) है, जो कभी नष्ट नहीं होता। यही परम सत्य है।
श्लोक 21
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥
अर्थ:
"जो अव्यक्त और अक्षर (अविनाशी) कहा गया है, उसे ही परम गति कहा जाता है। जिसे प्राप्त करके प्राणी वापस नहीं लौटते, वही मेरी परम स्थिति है।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान का परम धाम (आध्यात्मिक लोक) शाश्वत है। उसे प्राप्त करने के बाद प्राणी जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं और भगवान के दिव्य धाम में स्थायी निवास करते हैं।
श्लोक 22
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥
अर्थ:
"हे पार्थ, वह परम पुरुष, जिसके भीतर सभी प्राणी स्थित हैं और जिसने इस सम्पूर्ण सृष्टि को व्याप्त कर रखा है, अनन्य भक्ति के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक अनन्य भक्ति के महत्व को दर्शाता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो भक्त अनन्य भाव से उनकी आराधना करता है, वही उनके शाश्वत धाम को प्राप्त कर सकता है। भगवान ही समस्त सृष्टि के आधार हैं।
सारांश:
- ब्रह्मा का दिन और रात सृष्टि के जन्म और प्रलय का कारण है।
- सृष्टि बार-बार उत्पन्न और नष्ट होती है, लेकिन इसके परे एक शाश्वत सत्य (भगवान) है।
- भगवान का धाम अविनाशी और शाश्वत है। इसे प्राप्त करने के बाद प्राणी संसार के चक्र से मुक्त हो जाता है।
- भगवान को प्राप्त करने का मार्ग अनन्य भक्ति है, जो सभी भौतिक इच्छाओं से परे है।
- भगवान समस्त सृष्टि में व्याप्त हैं और सभी प्राणियों के भीतर स्थित हैं।