भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) सच्चे ज्ञान की प्राप्ति (श्लोक 31-34) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 31
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥
अर्थ:
"अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म परम है, स्वभाव को आध्यात्म कहा गया है। भूतों (जीवों) की उत्पत्ति का कारण विसर्ग (त्याग या सृजन) है, जिसे कर्म कहा जाता है।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण ब्रह्म, आध्यात्म और कर्म का परिचय देते हैं।
- अक्षर ब्रह्म: यह परम तत्व है, जो अविनाशी और शाश्वत है।
- स्वभाव: आत्मा का स्वाभाविक गुण है, जो उसके आध्यात्मिक स्वरूप को दर्शाता है।
- कर्म: यह सृष्टि के सृजन और प्राणियों के जन्म का कारण है।
यह श्लोक ब्रह्म और आत्मा के गहरे संबंध को समझाने का प्रयास करता है।
श्लोक 32
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥
अर्थ:
"हे देहधारी श्रेष्ठ (अर्जुन), अधिभूत (भौतिक तत्व) नाशवान है, अधिदैव (देवता) पुरुष है, और अधियज्ञ मैं ही हूँ, जो इस शरीर में स्थित हूँ।"
व्याख्या:
भगवान यहाँ तीन महत्वपूर्ण तत्वों का वर्णन करते हैं:
- अधिभूत: भौतिक संसार और तत्व, जो नाशवान हैं।
- अधिदैव: देवता, जो सृष्टि और जीवों के संचालन में भूमिका निभाते हैं।
- अधियज्ञ: भगवान स्वयं, जो यज्ञ और बलिदानों के अधिष्ठाता हैं।
यह श्लोक समझाता है कि भगवान ही यज्ञ के पीछे की दिव्य शक्ति हैं और वे प्रत्येक जीव के भीतर स्थित हैं।
श्लोक 33
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति मृत्यु के समय मुझे स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।"
व्याख्या:
भगवान अर्जुन को यह बताने की कोशिश करते हैं कि मृत्यु के समय जो व्यक्ति भगवान का स्मरण करता है, वह भगवान की दिव्यता और शाश्वत स्वरूप को प्राप्त करता है। यह मोक्ष का मार्ग है। मृत्यु के समय मन की स्थिरता और भगवान का ध्यान महत्वपूर्ण है।
श्लोक 34
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥
अर्थ:
"हे कौन्तेय, मृत्यु के समय जो भी भाव स्मरण करता हुआ व्यक्ति शरीर छोड़ता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है, क्योंकि वह उस भाव से सदैव जुड़ा रहता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि मृत्यु के समय व्यक्ति का अंतःकरण जिस भाव में होता है, वही उसके अगले जीवन का आधार बनता है। अतः जीवनभर भगवान के ध्यान और भक्ति में लगे रहना चाहिए ताकि मृत्यु के समय मन भगवान में स्थिर रहे और मोक्ष प्राप्त हो सके।
सारांश:
- अक्षर ब्रह्म शाश्वत और अविनाशी है, जबकि अधिभूत (भौतिक तत्व) नाशवान है।
- भगवान प्रत्येक जीव में अधियज्ञ के रूप में स्थित हैं।
- मृत्यु के समय भगवान का स्मरण मोक्ष का मुख्य मार्ग है।
- जीवनभर मन और ध्यान को भगवान में स्थिर रखने से मृत्यु के समय उनकी प्राप्ति संभव होती है।
- व्यक्ति जिस भाव के साथ जीवन जीता है, वही उसका अंतिम परिणाम और भविष्य निर्धारित करता है।