भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) योगी का आदर्श और निष्कर्ष (श्लोक 46-47) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 46
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥
अर्थ:
"योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, वह ज्ञानी से भी श्रेष्ठ माना जाता है और कर्मकांडियों से भी श्रेष्ठ है। इसलिए, हे अर्जुन, योगी बनो।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वे योग के मार्ग पर चलें। इस श्लोक में बताया गया है कि योगी, जो आत्म-साक्षात्कार और ध्यान में स्थित रहता है, वह तपस्या करने वाले, विद्वान, और कर्मकांड में लगे हुए लोगों से श्रेष्ठ होता है। योग का मार्ग सबसे उन्नत और लाभकारी है क्योंकि यह आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है।
श्लोक 47
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥
अर्थ:
"सभी योगियों में वह योगी, जो अपने अंतःकरण से मुझमें स्थित होकर मुझसे प्रेम और श्रद्धा के साथ भक्ति करता है, वही मेरे अनुसार सर्वोत्तम है।"
व्याख्या:
यह श्लोक भक्ति-योग की महत्ता को दर्शाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो योगी अपने मन और आत्मा को भगवान में समर्पित करता है और उन्हें प्रेम और श्रद्धा के साथ भजता है, वह सबसे श्रेष्ठ योगी है। यह भक्ति और ध्यान का सुंदर संगम है, जहाँ भक्त अपने मन और आत्मा को परमात्मा में लीन कर देता है।
सारांश:
- योगी तपस्वियों, ज्ञानी और कर्मकांडियों से श्रेष्ठ है।
- योग का उद्देश्य आत्मा और परमात्मा का मिलन है, जो इसे अन्य साधनों से श्रेष्ठ बनाता है।
- सभी योगियों में सबसे श्रेष्ठ वह है, जो श्रद्धा और भक्ति से भगवान का ध्यान करता है और उनसे प्रेम करता है।
- भक्ति-योग को सर्वोच्च योग के रूप में बताया गया है।