भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) ध्यान की प्रक्रिया और साधना (श्लोक 10-17) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 10
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥
अर्थ:
"योगी को एकांत में स्थिर होकर सदा अपने मन को संयमित करते हुए ध्यान लगाना चाहिए। उसे न किसी वस्तु की इच्छा होनी चाहिए और न ही किसी प्रकार का संग्रह करना चाहिए।"
व्याख्या:
यह श्लोक ध्यानयोग की प्राथमिक शर्तों को बताता है। योगी को एकांत में साधना करनी चाहिए, इच्छाओं और भौतिक संग्रह से मुक्त रहना चाहिए, और मन को पूर्ण रूप से संयमित करना चाहिए।
श्लोक 11-12
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥
अर्थ:
"योगी को शुद्ध स्थान में न अधिक ऊँचे और न अधिक नीचे स्थान पर चित्त को स्थिर रखने वाला आसन लगाना चाहिए, जिसमें कुश, मृगचर्म और कपड़ा बिछा हो। उस आसन पर बैठकर, मन और इंद्रियों को नियंत्रित करते हुए, आत्मा की शुद्धि के लिए ध्यान योग का अभ्यास करना चाहिए।"
व्याख्या:
यह श्लोक ध्यान के लिए उपयुक्त स्थान, आसन, और शारीरिक अवस्था का वर्णन करता है। यह दिखाता है कि ध्यान के लिए स्थिरता और शुद्धता आवश्यक है।
श्लोक 13-14
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥
अर्थ:
"योगी को अपने शरीर, सिर, और गर्दन को सीधा और स्थिर रखना चाहिए, दृष्टि को अपनी नासिका के अग्रभाग पर केंद्रित रखना चाहिए और अन्य दिशाओं में न देखना चाहिए। शांत मन, भय रहित होकर, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, अपने मन को मुझ (भगवान) में स्थिर करना चाहिए।"
व्याख्या:
यह श्लोक ध्यान की शारीरिक स्थिति और मानसिक एकाग्रता का वर्णन करता है। योगी को शारीरिक स्थिरता और मानसिक शांति के साथ अपने मन को भगवान में लगाना चाहिए।
श्लोक 15
युञ्जन्नेवं सदा योगं आत्मनं रहसि स्थितः।
एकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥
अर्थ:
"इस प्रकार सदा योग का अभ्यास करते हुए, एकांत में स्थिर होकर, आत्मा को संयमित करते हुए, और निराशा तथा संग्रह से मुक्त होकर ध्यान योग में स्थित रहना चाहिए।"
व्याख्या:
यह श्लोक योगी को साधना का मार्ग दिखाता है, जिसमें भौतिक इच्छाओं और संग्रह का त्याग और मानसिक शांति आवश्यक है।
श्लोक 16
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥
अर्थ:
"हे अर्जुन, जो अत्यधिक भोजन करता है या बिल्कुल नहीं खाता, और जो अधिक सोता है या जागता रहता है, वह योग में सफल नहीं हो सकता।"
व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि योग में संतुलन और संयम आवश्यक है। अत्यधिक भोजन, उपवास, नींद, या जागरण योग के मार्ग में बाधा बनते हैं।
श्लोक 17
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति आहार, विहार (आचरण), कार्य, सोने और जागने में संतुलन रखता है, उसका योग दुःखों को नष्ट करने वाला होता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि योग का अभ्यास करने के लिए जीवन में संतुलन और अनुशासन आवश्यक है। संतुलित जीवन शैली ही योग साधना को सफल बनाती है और दुःखों को समाप्त करती है।
सारांश:
- योग का अभ्यास एकांत और शुद्ध स्थान में करना चाहिए।
- आसन स्थिर और शरीर सीधा होना चाहिए, और मन को भगवान में एकाग्र करना चाहिए।
- जीवन में संतुलन और संयम योग की सफलता के लिए अनिवार्य है।
- योगी को भौतिक इच्छाओं और संग्रह से मुक्त रहना चाहिए।
- संतुलित आहार, नींद, और कार्यप्रणाली योग को दुःखों का नाश करने वाला बनाती है।