भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) योगी के लक्षण और कर्म का महत्व (श्लोक 1-9) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 1
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥
अर्थ:
"भगवान ने कहा: जो व्यक्ति कर्मफल का आश्रय न लेकर, केवल अपने कर्तव्य का पालन करता है, वही सच्चा संन्यासी और योगी है। वह नहीं जो केवल अग्नि का त्याग करता है या अकर्मण्य रहता है।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण समझाते हैं कि सच्चा संन्यास बाहरी कर्मों का त्याग नहीं, बल्कि कर्मों के फल की आसक्ति का त्याग है। निष्काम कर्मयोग ही सच्चे संन्यास और योग का मार्ग है।
श्लोक 2
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन॥
अर्थ:
"हे पाण्डव, जिसे संन्यास कहा गया है, उसे ही योग समझो। क्योंकि जो संकल्प (आसक्ति) का त्याग नहीं करता, वह योगी नहीं बन सकता।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि संन्यास और योग एक ही हैं, क्योंकि दोनों का उद्देश्य आसक्ति का त्याग है। बिना संकल्प का त्याग किए योग संभव नहीं है।
श्लोक 3
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥
अर्थ:
"जो योग की ओर अग्रसर है, उसके लिए कर्म (कर्तव्य पालन) साधन है। और जो योग में स्थिर हो चुका है, उसके लिए शांति (मन की स्थिरता) साधन है।"
व्याख्या:
योग की प्रारंभिक अवस्था में कर्म करना आवश्यक है। लेकिन जब व्यक्ति योग में स्थिर हो जाता है, तब आंतरिक शांति और ध्यान ही उसका साधन बन जाता है।
श्लोक 4
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥
अर्थ:
"जब व्यक्ति इंद्रियों के विषयों और कर्मों में आसक्त नहीं होता और सभी संकल्पों का त्याग कर देता है, तब उसे योगारूढ़ (योग में स्थिर) कहा जाता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक योग की पूर्ण अवस्था को परिभाषित करता है। योगारूढ़ व्यक्ति इंद्रियों के विषयों और भौतिक इच्छाओं से मुक्त होता है।
श्लोक 5
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
अर्थ:
"मनुष्य को अपने द्वारा ही अपना उद्धार करना चाहिए और स्वयं को पतन की ओर नहीं ले जाना चाहिए। क्योंकि आत्मा ही उसकी मित्र है और आत्मा ही उसका शत्रु।"
व्याख्या:
यह श्लोक आत्मसंयम और आत्म-प्रेरणा का महत्व बताता है। व्यक्ति की सफलता और असफलता का निर्धारण उसके आत्मसंयम और आचरण से होता है।
श्लोक 6
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥
अर्थ:
"जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसके लिए आत्मा मित्र के समान है। लेकिन जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है, उसके लिए आत्मा शत्रु के समान है।"
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि आत्म-संयम व्यक्ति के जीवन का मूल है। संयमित आत्मा मित्र के समान सहयोगी होती है, जबकि असंयमित आत्मा शत्रु के समान व्यवहार करती है।
श्लोक 7
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥
अर्थ:
"जिसने अपने आत्मा को जीत लिया है और जो शांत है, उसके लिए परमात्मा में स्थिति स्थिर है। वह शीत-उष्ण, सुख-दुःख और मान-अपमान में समान रहता है।"
व्याख्या:
योग में स्थित व्यक्ति परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता। वह परमात्मा के साथ स्थिर रहता है और द्वंद्वों में समभाव बनाए रखता है।
श्लोक 8-9
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥
सुखं वन्दे च दु:खं वन्दे च सामनं वन्दे भूतं वन्दे।
अर्थ:
"जो व्यक्ति ज्ञान और विज्ञान से संतुष्ट है, जिसने इंद्रियों को वश में कर लिया है, जो स्थिर है और जिसने मिट्टी, पत्थर और सोने में समानता देखी है, वह योगी कहलाता है।"
व्याख्या:
सच्चा योगी वह है जो बाहरी वस्तुओं और भौतिक सुख-दुःख से निर्लिप्त रहता है। वह ज्ञान से परिपूर्ण और समदर्शी होता है।
श्लोक 9
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥
अर्थ:
"जो मित्र, शत्रु, तटस्थ, मध्यस्थ, द्वेष करने वाले, बंधु, सज्जन और पापी – सभी में समान दृष्टि रखता है, वही श्रेष्ठ है।"
व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि सच्चा योगी सभी के प्रति समभाव रखता है। वह न किसी से द्वेष करता है और न किसी के प्रति पक्षपात करता है।
सारांश:
- सच्चा योग और संन्यास कर्मफल की आसक्ति का त्याग है, न कि केवल बाहरी कर्म का।
- आत्म-संयम, इंद्रिय-नियंत्रण, और आंतरिक शांति योग की अनिवार्य शर्तें हैं।
- योगी सभी द्वंद्वों (सुख-दुःख, मान-अपमान) में समान रहता है।
- सच्चा योगी समदर्शी होता है और सभी के प्रति समान दृष्टि रखता है।