भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) कर्म और अकर्म का रहस्य (श्लोक 11-24) का अर्थ और व्याख्या
श्लोक 11
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
अर्थ:
"जो जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उसी प्रकार उनका सम्मान करता हूँ। हे पार्थ, सभी मनुष्य मेरे मार्ग का ही अनुसरण करते हैं।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि भगवान सबके लिए समान हैं। जो जैसा भाव लेकर उनकी ओर आता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। यह भक्ति और कर्म के महत्व को समझाता है।
श्लोक 12
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥
अर्थ:
"जो लोग कर्मों की सिद्धि चाहते हैं, वे देवताओं की पूजा करते हैं। इस मानव संसार में कर्मों से सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है।"
व्याख्या:
जो भौतिक इच्छाएँ रखते हैं, वे देवताओं की पूजा करके अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं। लेकिन यह सांसारिक और अस्थायी है।
श्लोक 13
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥
अर्थ:
"गुण और कर्म के आधार पर मैंने चार वर्णों की रचना की है। हालांकि मैं इसका रचयिता हूँ, फिर भी मैं अकर्ता और अविनाशी हूँ।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण वर्ण व्यवस्था को कर्म और गुण के आधार पर बताते हैं, न कि जन्म पर। वह स्वयं को इससे परे और निष्काम कहते हैं।
श्लोक 14
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥
अर्थ:
"मुझे कर्म बंधन में नहीं डालते, न ही मुझे उनके फलों की इच्छा होती है। जो यह समझता है, वह भी कर्मों से बंधता नहीं है।"
व्याख्या:
भगवान कर्म करते हुए भी उनसे बंधनमुक्त रहते हैं। यही स्थिति भक्तों के लिए भी संभव है, यदि वे निष्काम भाव से कर्म करें।
श्लोक 15
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्॥
अर्थ:
"इस ज्ञान को जानकर प्राचीन मुमुक्षुओं (मुक्ति चाहने वालों) ने भी कर्म किए। इसलिए, तुम्हें भी उसी प्रकार कर्म करना चाहिए जैसा उन्होंने किया।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह पूर्वजों के मार्ग का अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करें।
श्लोक 16
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥
अर्थ:
"क्या कर्म है और क्या अकर्म है, इसे लेकर महान ज्ञानी भी भ्रमित होते हैं। इसलिए मैं तुम्हें कर्म का सही ज्ञान दूँगा, जिसे जानकर तुम अशुभ से मुक्त हो जाओगे।"
व्याख्या:
यह श्लोक कर्म की गहराई और जटिलता को समझाता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म का वास्तविक अर्थ सिखाने का वादा करते हैं।
श्लोक 17
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥
अर्थ:
"कर्म को समझना चाहिए, विकर्म (विपरीत कर्म) को भी जानना चाहिए और अकर्म को भी समझना चाहिए। कर्म की गति अत्यंत गहन है।"
व्याख्या:
कर्म, विकर्म और अकर्म के भेद को समझना आवश्यक है। यह व्यक्ति को सही दिशा में कार्य करने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 18
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥
अर्थ:
"जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है, वही मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योग में स्थित होकर सभी कर्मों को पूरा करता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्मयोग का सार है। कर्म को सही दृष्टि से देखने वाला व्यक्ति जीवन में स्थिर और सफल होता है।
श्लोक 19
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥
अर्थ:
"जिसके सभी कर्म कामना और संकल्प से रहित होते हैं और जो ज्ञान की अग्नि से कर्मों को जला चुका होता है, उसे ज्ञानी कहते हैं।"
व्याख्या:
यह श्लोक कर्मयोग की पराकाष्ठा को दर्शाता है। कामना और आसक्ति से रहित कर्म ही मोक्ष का मार्ग है।
श्लोक 20
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः॥
अर्थ:
"जो कर्मफल की आसक्ति छोड़ चुका है, नित्य संतुष्ट और निराश्रित है, वह कर्म करता हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता।"
व्याख्या:
निष्काम कर्मयोगी कर्म करता है लेकिन उसमें आसक्ति नहीं रखता। इसलिए, वह कर्मों के बंधन से मुक्त रहता है।
श्लोक 21
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥
अर्थ:
"जो आशा रहित, संयमित चित्त और आत्मा वाला है और जिसने सभी प्रकार के भौतिक परिग्रह त्याग दिए हैं, वह केवल शरीर निर्वाह के लिए कर्म करता है और पाप को प्राप्त नहीं होता।"
व्याख्या:
श्रीकृष्ण समझाते हैं कि जो व्यक्ति निष्काम और संयमित है, वह अपने जीवन निर्वाह के लिए कर्म करता हुआ भी पाप से मुक्त रहता है।
श्लोक 22
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥
अर्थ:
"जो व्यक्ति यदृच्छा (स्वाभाविक रूप से प्राप्त) में संतुष्ट रहता है, द्वंद्वों से परे है, और ईर्ष्या रहित है, वह सफलता और असफलता में समान भाव रखता है और कर्म करते हुए भी बंधता नहीं।"
व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्मयोग के सिद्धांत को स्पष्ट करता है। संतोष और समभाव के साथ किया गया कर्म बंधन का कारण नहीं बनता।
श्लोक 23
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥
अर्थ:
"जिसका संग (आसक्ति) समाप्त हो गया है, जो मुक्त है और जिसका चित्त ज्ञान में स्थित है, उसके सभी कर्म यज्ञ के लिए किए जाते हैं और वे पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं।"
व्याख्या:
ज्ञान और यज्ञ भावना से किया गया कर्म व्यक्ति को सभी बंधनों से मुक्त करता है।
श्लोक 24
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेना गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥
अर्थ:
"जिसके लिए अर्पण ब्रह्म है, हव्य ब्रह्म है, और अग्नि भी ब्रह्म है, वह ब्रह्म में ही लीन हो जाता है।"
व्याख्या:
यह श्लोक कर्म को ब्रह्म की पूजा के रूप में करने की महिमा को दर्शाता है। ऐसी भावना से किया गया कर्म व्यक्ति को ब्रह्म के साथ एकाकार कर देता है।
सारांश:
- भगवान ने कर्म, अकर्म और विकर्म के भेद को स्पष्ट किया।
- निष्काम कर्मयोग से व्यक्ति बंधनों से मुक्त हो सकता है।
- कर्म को यज्ञ के रूप में करना, आसक्ति से मुक्त होकर ब्रह्म के प्रति समर्पित होना मोक्ष का मार्ग है।
- संतोष, समभाव और ज्ञान से किया गया कर्म आत्मा को शुद्ध करता है।