शनिवार, 11 जुलाई 2020

16. न्यायप्रिय राजा और उसकी संतान की कहानी

 

न्यायप्रिय राजा और उसकी संतान की कहानी

बहुत समय पहले की बात है, एक छोटे से राज्य में एक न्यायप्रिय और सत्यनिष्ठ राजा राज करता था, जिसका नाम राजा शशांक था। वह हमेशा राज्य के नागरिकों के साथ न्याय करता, चाहे वह गरीब हो या अमीर। उसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी, और लोग उसे न्याय का प्रतीक मानते थे।

राजा शशांक के राज्य में हर किसी को समान अधिकार मिलता था और सभी लोग उसे दिल से आदर करते थे। वह खुद दिन-रात अपने राज्य के मामलों में लगे रहते और हर निर्णय में निष्पक्ष रहते थे।

राजा की एक संतान थी, एक सुन्दर और समझदार राजकुमार, जिसका नाम पृथ्वीराज था। पृथ्वीराज को बचपन से ही अपने पिता से न्याय और सत्य के महत्व की शिक्षा मिलती रही थी। राजा शशांक ने उसे बताया था कि एक शासक का सबसे बड़ा धर्म है – अपने प्रजा के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार करना।


राजकुमार का पहला परीक्षण

एक दिन, जब पृथ्वीराज युवा हुआ, राजा शशांक ने उसे राज्य का कार्यभार सौंपने का विचार किया। राजा ने पृथ्वीराज को अपने न्याय का पालन करते हुए एक छोटे से गाँव का न्यायाधीश नियुक्त किया। यह एक परीक्षा थी, ताकि वह देख सके कि उसका बेटा न्याय और सत्य का पालन किस हद तक करता है।

राजकुमार पृथ्वीराज गाँव में पहुँचने के बाद अपने कार्य में जुट गया। वह हर मामले में निष्पक्ष रहता और किसी भी प्रकार के पक्षपाती निर्णय से बचता था।

एक दिन, एक व्यापारी गाँव में आया और उसने गांव के कुछ लोगों के खिलाफ आरोप लगाए कि उन्होंने उसकी व्यापारिक वस्तुएं चुराई हैं। उसने गाँव के लोगों से बड़े पैमाने पर मुआवजा की मांग की। यह मामला बहुत बड़ा हो गया, और सारे गाँव के लोग न्याय की ओर देख रहे थे।

राजकुमार पृथ्वीराज को यह निर्णय करना था कि वह इस व्यापारिक विवाद का समाधान किस तरह करेगा।


न्याय का निर्णय

राजकुमार ने पूरे मामले की जांच की और दोनों पक्षों से गवाही ली। व्यापारी का आरोप था कि गाँव के कुछ लोग उसके साथ धोखा कर रहे हैं, लेकिन गांव के लोग यह कह रहे थे कि व्यापारी ने झूठा आरोप लगाया था।

राजकुमार ने दोनों पक्षों के गवाहों को ध्यान से सुना और जांच की। अंत में, वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि व्यापारी ने केवल लाभ के लिए झूठा आरोप लगाया था, क्योंकि गाँव के लोग निर्दोष थे और व्यापारी का दावा बेबुनियाद था।

राजकुमार ने व्यापारी को सजा दी और गाँव के लोगों के पक्ष में न्याय दिया। उसने व्यापारी से मुआवजा वसूला और यह सुनिश्चित किया कि गाँव के लोग बिना किसी डर के शांति से रह सकें।


राजा का आशीर्वाद

राजकुमार पृथ्वीराज ने इस निर्णय से अपने पिता राजा शशांक को बहुत गर्व महसूस कराया। राजा शशांक ने अपने बेटे की ईमानदारी और न्यायप्रियता की सराहना की और उसे आशीर्वाद दिया। राजा ने कहा:
"तुमने जिस तरह से न्याय किया, वह मुझे अपने न्यायपूर्ण शासन की याद दिलाता है। तुमने यह साबित किया कि न्याय केवल शब्दों में नहीं, बल्कि कार्यों में भी होना चाहिए। तुम मेरे उत्तराधिकारी हो और राज्य को और प्रजा को न्याय दिलाने में तुम्हारा योगदान अद्वितीय रहेगा।"

राजा शशांक ने पृथ्वीराज को अपने सिंहासन पर बैठने का संकेत दिया और राज्य की जिम्मेदारियाँ सौंप दीं।


बेताल का प्रश्न

बेताल ने राजा विक्रम से पूछा:
"क्या राजकुमार पृथ्वीराज ने सही किया, जब उसने व्यापारी के खिलाफ फैसला सुनाया? क्या कभी किसी को संतान की शिक्षा से भी अधिक नहीं सोचना चाहिए?"


राजा विक्रम का उत्तर

राजा विक्रम ने उत्तर दिया:
"राजकुमार पृथ्वीराज ने बिल्कुल सही किया। न्याय का पालन करना और सत्य की राह पर चलना ही एक शासक का पहला कर्तव्य है। वह अपने पिता से मिली शिक्षा के अनुरूप था। अगर किसी शासक की संतान ने न्याय का पालन किया, तो वह अपने माता-पिता की सबसे बड़ी शिक्षा को साकार कर रहा होता है।"


कहानी की शिक्षा

  1. न्यायप्रियता और सत्य का पालन, शासक की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है।
  2. सत्य और न्याय का पालन किसी भी परिस्थिति में समझौते का विषय नहीं होना चाहिए।
  3. किसी भी निर्णय में निष्पक्ष और ईमानदारी से काम करना चाहिए, चाहे वह राजकुमार हो या राजा।

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