शनिवार, 30 अगस्त 2025

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के बाद की स्थिति, भक्ति योग की महिमा, और अर्जुन को दिए गए उनके अंतिम उपदेशों का वर्णन किया है। साथ ही, उन्होंने गीता के महत्त्व और इसके पाठ के लाभों का उल्लेख किया है।


श्लोक 54

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥

अर्थ:
"ब्रह्म की अवस्था को प्राप्त व्यक्ति प्रसन्नचित्त रहता है, न शोक करता है और न ही किसी चीज़ की कामना करता है। वह सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखता है और मेरी (भगवान की) सर्वोच्च भक्ति प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
ब्रह्मभूत अवस्था में व्यक्ति अज्ञान, मोह और भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। इस स्थिति में भगवान की भक्ति सर्वोच्च होती है, जो आत्मा को शांति और मोक्ष प्रदान करती है।


श्लोक 55

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥

अर्थ:
"केवल भक्ति के द्वारा ही कोई मेरी वास्तविक तत्त्व रूप में पहचान कर मुझे जान सकता है। इस प्रकार मुझे तत्त्व से जानने के बाद, वह मुझमें प्रवेश करता है।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि भक्ति योग के माध्यम से ही उनकी वास्तविक प्रकृति को समझा जा सकता है। भक्ति से व्यक्ति भगवान के साथ एकात्मता प्राप्त करता है।


श्लोक 56

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति सभी कर्म करते हुए भी मुझमें आश्रय लेता है, वह मेरी कृपा से शाश्वत और अविनाशी धाम को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
भक्त अपने सभी कर्म भगवान को अर्पित करता है। भगवान की कृपा से उसे मोक्ष प्राप्त होता है और वह उनके दिव्य धाम में प्रवेश करता है।


श्लोक 57

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥

अर्थ:
"अपने मन से सभी कर्म मुझे अर्पित करके, मुझमें समर्पित होकर और बुद्धि योग का आश्रय लेकर, सदा मुझमें चित्त लगाए रखो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को सलाह देते हैं कि वह अपने सभी कर्म भगवान को समर्पित करे और अपने मन को सदा उनके ध्यान में लगाए रखे। यह मार्ग आत्मा को शुद्ध करता है।


श्लोक 58

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥

अर्थ:
"यदि तुम मुझमें चित्त लगाओगे, तो मेरी कृपा से सभी बाधाओं को पार करोगे। लेकिन यदि अहंकारवश मेरी बात नहीं मानोगे, तो नष्ट हो जाओगे।"

व्याख्या:
भगवान चेतावनी देते हैं कि उनकी शरण में आने से सभी कठिनाइयों का समाधान हो जाता है। लेकिन अहंकार और ईश्वर से विमुखता विनाश का कारण बनती है।


श्लोक 59-60

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥

अर्थ:
"यदि तुम अहंकारवश यह सोचते हो कि युद्ध नहीं करोगे, तो यह तुम्हारा भ्रम है। तुम्हारा स्वभाव तुम्हें कर्म करने के लिए बाध्य करेगा।
हे कौन्तेय, स्वभाव से बंधे हुए तुम, मोहवश जो करना नहीं चाहते हो, वह भी करने को विवश हो जाओगे।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को बताते हैं कि उनका स्वभाव (क्षत्रिय धर्म) उन्हें युद्ध के लिए बाध्य करेगा। कर्तव्य से बचना संभव नहीं है।


श्लोक 61

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, भगवान सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं और अपनी माया से उन्हें जैसे यंत्र पर चढ़े हुए घुमाते रहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान सभी जीवों के अंतःकरण में स्थित हैं और उनकी माया से संसार की व्यवस्था चलाते हैं। यह उनकी सर्वव्यापकता का प्रमाण है।


श्लोक 62

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥

अर्थ:
"हे भारत, उस भगवान की शरण में जाओ। उनकी कृपा से तुम परम शांति और शाश्वत धाम को प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को निर्देश देते हैं कि वह उनकी शरण में आएं, क्योंकि केवल भगवान की कृपा से ही मोक्ष और शांति प्राप्त हो सकती है।


श्लोक 63

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥

अर्थ:
"मैंने तुम्हें यह गुप्त से गुप्ततर ज्ञान बताया है। अब इसे भली-भाँति विचार कर, जैसा उचित लगे वैसा करो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को स्वतंत्रता देते हैं कि वह विचार करके अपने कर्म का चुनाव करें। यह उनके प्रति भगवान के प्रेम और विश्वास को दर्शाता है।


श्लोक 64-65

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥

अर्थ:
"अब मैं तुम्हें सबसे गुप्त और परम वचन सुनाता हूँ क्योंकि तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो।
मेरा स्मरण करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे प्रणाम करो। ऐसा करने से तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। यह मेरा वचन है।"

व्याख्या:
भगवान अपने परम प्रेम को व्यक्त करते हैं और बताते हैं कि भक्ति और समर्पण के द्वारा भक्त भगवान के समीप पहुँच सकता है।


श्लोक 66

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

अर्थ:
"सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा। शोक मत करो।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि पूर्ण समर्पण और उनकी शरण में आने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। यह भक्ति और समर्पण का सर्वोच्च संदेश है।


श्लोक 67-68

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥

अर्थ:
"यह गूढ़ ज्ञान न तो तपस्व्य रहित, न अभक्त, न सुनने की इच्छा न रखने वाले और न ही मुझसे द्वेष करने वाले को बताना चाहिए।
जो इस गूढ़ ज्ञान को मेरे भक्तों को बताता है, वह मेरी परम भक्ति प्राप्त करता है और मेरे पास आता है। इसमें संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
भगवान इस ज्ञान को केवल भक्तों और योग्य व्यक्तियों को बताने का निर्देश देते हैं। इस ज्ञान का प्रचार करना भी भगवान की सेवा है।


श्लोक 69

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥

अर्थ:
"इससे बढ़कर मेरे लिए प्रिय कोई और मनुष्य नहीं है, और न ही ऐसा कोई होगा जो मुझे इससे अधिक प्रिय हो।"

व्याख्या:
जो व्यक्ति गीता के इस ज्ञान का प्रचार करता है, वह भगवान का प्रिय भक्त होता है।


श्लोक 70-71

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति इस धर्ममय संवाद का अध्ययन करता है, वह ज्ञान यज्ञ द्वारा मुझे पूजता है।
जो श्रद्धा और बिना द्वेष के इसे सुनता है, वह भी पवित्र होकर पुण्यलोक को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
गीता का अध्ययन और श्रवण ज्ञान यज्ञ के समान है, जो व्यक्ति को पवित्रता और मोक्ष की ओर ले जाता है।


श्लोक 72-73

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनंजय॥
अर्जुन उवाच।
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव॥

अर्थ:
"हे पार्थ, क्या तुमने इसे एकाग्रचित्त होकर सुना? क्या तुम्हारा अज्ञान और मोह समाप्त हो गया?
अर्जुन ने कहा: हे अच्युत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मरण शक्ति प्राप्त हो गई है। मैं अब स्थिर हूँ और आपके वचन का पालन करूँगा।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन से उनके मोह की स्थिति के बारे में पूछते हैं। अर्जुन उत्तर देते हैं कि उनका भ्रम समाप्त हो गया है और अब वे अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए तैयार हैं।


श्लोक 74-78

संजय उवाच।
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्॥
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्॥
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः॥
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान्राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः॥
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥

अर्थ:
"संजय ने कहा: मैंने वासुदेव (कृष्ण) और महात्मा पार्थ (अर्जुन) के इस अद्भुत संवाद को सुना, जो मेरे रोंगटे खड़े कर देने वाला था।
मैंने व्यास की कृपा से भगवान कृष्ण द्वारा प्रत्यक्ष रूप से बताए गए इस परम गूढ़ योग को सुना।
हे राजन, मैं बार-बार इस अद्भुत संवाद और भगवान के दिव्य रूप को स्मरण करता हूँ और प्रसन्नता से भर जाता हूँ।
जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहाँ निश्चित रूप से श्री (संपत्ति), विजय, ऐश्वर्य और नीति विद्यमान है। यह मेरा मत है।"

व्याख्या:
संजय ने इस संवाद को दिव्य दृष्टि से सुना और उसकी महिमा का वर्णन किया। वह यह निष्कर्ष निकालते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन जहाँ हैं, वहाँ विजय और धर्म अवश्य होगा।


सारांश (श्लोक 54-78):

  1. ब्रह्म ज्ञान और भक्ति योग:
    • ब्रह्मभूत अवस्था में व्यक्ति भक्ति के माध्यम से भगवान को प्राप्त करता

है।

  1. भगवान की शरण:

    • भगवान की शरण में जाने से सभी पापों से मुक्ति और मोक्ष प्राप्त होता है।
  2. गीता का महत्त्व:

    • गीता का अध्ययन, श्रवण, और प्रचार पुण्यदायी और मोक्षदायक है।
  3. अर्जुन की दृढ़ता:

    • अर्जुन ने भगवान की शिक्षाओं को स्वीकार कर अपने कर्तव्य का पालन करने का निश्चय किया।
  4. संजय का निष्कर्ष:

    • जहाँ भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, वहाँ विजय, ऐश्वर्य और धर्म निश्चित है।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में ज्ञान, भक्ति, और कर्म के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया है। गीता के उपदेश न केवल अर्जुन के लिए, बल्कि समस्त मानवता के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन हैं।

शनिवार, 23 अगस्त 2025

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) सार्वभौम संन्यास (श्लोक 42-53)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 42 से श्लोक 53 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने चार वर्णों के स्वाभाविक गुणों और कर्तव्यों, कर्म योग की महिमा, और आत्म-उन्नति के मार्ग को समझाया है।


श्लोक 42

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥

अर्थ:
"शांति, इंद्रिय-संयम, तप, शुद्धता, सहनशीलता, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता – ये ब्राह्मण के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं।"

व्याख्या:
ब्राह्मण के कर्तव्य आत्मिक और आध्यात्मिक गुणों को अपनाना है। वह ज्ञान, तप और संयम से समाज का मार्गदर्शन करता है।


श्लोक 43

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥

अर्थ:
"शूरवीरता, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध में न भागना, दान और नेतृत्व क्षमता – ये क्षत्रिय के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं।"

व्याख्या:
क्षत्रिय का धर्म है समाज की रक्षा करना, दूसरों की भलाई के लिए नेतृत्व करना और युद्ध में अपने कर्तव्य से पीछे न हटना।


श्लोक 44

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥

अर्थ:
"कृषि, गौ-पालन और व्यापार – ये वैश्य के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं। सेवा करना – यह शूद्र का स्वभावज कर्म है।"

व्याख्या:
वैश्य का धर्म है आर्थिक गतिविधियों के माध्यम से समाज का पोषण करना, जबकि शूद्र का कर्तव्य सेवा और सहायता प्रदान करना है।


श्लोक 45

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिर्णिर्तं सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥

अर्थ:
"अपने-अपने कर्तव्यों में आसक्त होकर मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है। अब मैं बताता हूँ कि स्वभाव के अनुसार कर्म करते हुए कैसे सिद्धि प्राप्त की जाती है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना ही मनुष्य का धर्म है। अपने कर्तव्य का पालन करने से आत्मा की उन्नति और सिद्धि प्राप्त होती है।


श्लोक 46

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥

अर्थ:
"जिससे सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जो पूरे जगत में व्याप्त है, उस परमात्मा की पूजा अपने कर्मों के माध्यम से करने से मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
कर्म के माध्यम से भगवान की आराधना करने से व्यक्ति आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करता है। अपने कार्य को भगवान का अर्पण मानकर करना सच्चा धर्म है।


श्लोक 47

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥

अर्थ:
"अपना धर्म (कर्तव्य), चाहे वह अपूर्ण हो, दूसरों के धर्म (कर्तव्य) को पूर्ण रूप से निभाने से श्रेष्ठ है। स्वभाव से निर्धारित कर्म को करते हुए व्यक्ति पाप से बचता है।"

व्याख्या:
भगवान सिखाते हैं कि अपने स्वभाव के अनुसार धर्म का पालन करना सर्वोत्तम है। दूसरों का धर्म अपनाने से दोष और पाप उत्पन्न हो सकते हैं।


श्लोक 48

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, स्वाभाविक कर्म को, चाहे उसमें दोष हो, त्यागना नहीं चाहिए। जैसे अग्नि धुएँ से ढकी होती है, वैसे ही सभी कर्म कुछ दोषों से घिरे होते हैं।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि कोई भी कर्म पूर्णतया निर्दोष नहीं होता। इसलिए अपने स्वाभाविक कर्तव्यों को अपनाकर करना ही उचित है।


श्लोक 49

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति सभी जगह आसक्ति से मुक्त, आत्मसंयमी और इच्छारहित है, वह संन्यास के माध्यम से परम नैष्कर्म्य सिद्धि (कर्म से मुक्त होने की सिद्धि) को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
सच्चा संन्यास वह है जिसमें व्यक्ति कर्म करता है लेकिन आसक्ति और इच्छाओं से मुक्त रहता है। यह स्थिति आत्मज्ञान और मोक्ष का मार्ग है।


श्लोक 50

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, जिस प्रकार से सिद्धि प्राप्त करने के बाद व्यक्ति ब्रह्म को प्राप्त करता है, उसे मैं संक्षेप में समझाता हूँ। यह ज्ञान की सर्वोच्च स्थिति है।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को समझाते हैं कि आत्मा की सिद्धि और ब्रह्म के साथ एकत्व को कैसे प्राप्त किया जा सकता है।


श्लोक 51-53

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥

अर्थ:
"शुद्ध बुद्धि और धैर्य से युक्त होकर, आत्मा को नियंत्रित करते हुए, इंद्रिय विषयों (शब्द आदि) को त्यागकर, राग और द्वेष से मुक्त होकर,
एकांतप्रिय, कम खाने वाला, वाणी, शरीर और मन को नियंत्रित करने वाला, ध्यान में लीन, वैराग्य अपनाने वाला,
अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और संग्रह (मोह) का त्याग करने वाला व्यक्ति, 'निर्मम' और शांत होकर ब्रह्म को प्राप्त करने योग्य हो जाता है।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ ब्रह्म प्राप्ति के लिए योगी के लक्षण बताते हैं।

  • शुद्ध बुद्धि और संयम अपनाना।
  • इंद्रिय विषयों, राग-द्वेष, और भौतिक इच्छाओं से मुक्त होना।
  • ध्यान, वैराग्य, और आत्मसंयम को अपनाना।
  • अहंकार, क्रोध, और मोह का त्याग करना।
    इन गुणों से व्यक्ति ब्रह्म भाव को प्राप्त करता है।

सारांश (श्लोक 42-53):

  1. वर्ण और कर्तव्य:

    • प्रत्येक वर्ण के स्वाभाविक गुण और कर्तव्य उनके स्वभाव के आधार पर निर्धारित होते हैं।
    • ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र के कर्तव्य समाज की उन्नति के लिए आवश्यक हैं।
  2. स्वधर्म और कर्म का महत्व:

    • स्वधर्म (अपने कर्तव्य) का पालन करना ही सच्चा धर्म है।
    • अपने स्वाभाविक कर्म को करना, भले ही उसमें दोष हो, परम सिद्धि की ओर ले जाता है।
  3. सिद्धि और ब्रह्म प्राप्ति:

    • शुद्ध बुद्धि, आत्मसंयम, और वैराग्य से व्यक्ति ब्रह्म प्राप्त कर सकता है।
    • अहंकार, राग-द्वेष, और मोह का त्याग ब्रह्म ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि समाज के प्रत्येक वर्ग का अपना विशेष कर्तव्य है। अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना ही धर्म है। ध्यान, वैराग्य, और आत्मसंयम से व्यक्ति ब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है। यह मोक्ष का मार्ग है।

शनिवार, 16 अगस्त 2025

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) कर्म के प्रकार और उनका महत्व (श्लोक 31-41)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 31 से श्लोक 41 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने बुद्धि और धैर्य (धृति) के तीन प्रकारों (सात्त्विक, राजसिक, तामसिक) और समाज में चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के कर्तव्यों का वर्णन किया है।


श्लोक 31

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो बुद्धि धर्म और अधर्म, क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, को सही ढंग से नहीं समझती, वह राजसिक बुद्धि कहलाती है।"

व्याख्या:
राजसिक बुद्धि भ्रमित होती है और धर्म-अधर्म या सही-गलत के बीच अंतर नहीं कर पाती। यह भौतिक इच्छाओं और स्वार्थ के कारण निर्णय लेने में असमर्थ होती है।


श्लोक 32

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो बुद्धि अधर्म को धर्म मानती है और सभी चीजों को उल्टा समझती है, वह तामसिक बुद्धि कहलाती है।"

व्याख्या:
तामसिक बुद्धि अज्ञान और भ्रम में डूबी होती है। यह सत्य को असत्य मानती है और सही-गलत का बिल्कुल विपरीत अर्थ लगाती है।


श्लोक 33

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो धैर्य (धृति) मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को योग के माध्यम से नियंत्रित रखती है और विचलित नहीं होती, वह सात्त्विक धृति कहलाती है।"

व्याख्या:
सात्त्विक धृति स्थिरता और संयम का प्रतीक है। यह व्यक्ति को अपने मन, प्राण और इंद्रियों को संतुलित रखने में मदद करती है और आत्मज्ञान की ओर अग्रसर करती है।


श्लोक 34

यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, जो धैर्य धर्म, काम और अर्थ को केवल फल की आकांक्षा से और अत्यधिक आसक्ति के साथ धारण करता है, वह राजसिक धृति कहलाती है।"

व्याख्या:
राजसिक धृति भौतिक इच्छाओं और परिणामों पर आधारित होती है। यह व्यक्ति को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है, लेकिन उसका उद्देश्य केवल स्वार्थ और भोग होता है।


श्लोक 35

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुंचति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो धैर्य (धृति) स्वप्न, भय, शोक, विषाद और अहंकार को नहीं छोड़ता, वह तामसिक धृति कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक धृति आलस्य, भय, और नकारात्मक भावनाओं से घिरी होती है। यह व्यक्ति को अज्ञान और मानसिक अस्थिरता की स्थिति में रखती है।


श्लोक 36-37

सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, अब तीन प्रकार के सुखों के बारे में सुनो। जो अभ्यास से सुखद लगता है और दुःख का अंत करता है, जो आरंभ में विष के समान है लेकिन परिणाम में अमृत के समान है, वह सुख सात्त्विक है।"

व्याख्या:
सात्त्विक सुख आत्मबुद्धि और अनुशासन से प्राप्त होता है। यह शुरुआत में कठिन लग सकता है, लेकिन अंततः यह आत्मा को शुद्ध करता है और परम शांति देता है।


श्लोक 38

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥

अर्थ:
"जो सुख इंद्रियों और विषयों के संपर्क से उत्पन्न होता है, जो आरंभ में अमृत के समान प्रतीत होता है लेकिन अंत में विष के समान होता है, वह राजसिक सुख कहलाता है।"

व्याख्या:
राजसिक सुख भौतिक इच्छाओं और इंद्रिय भोग पर आधारित होता है। यह अस्थायी होता है और अंततः दुःख और असंतोष को जन्म देता है।


श्लोक 39

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो सुख आरंभ में और परिणाम में आत्मा को भ्रमित करता है, और जो आलस्य, निद्रा और प्रमाद से उत्पन्न होता है, वह तामसिक सुख कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक सुख अज्ञान और आलस्य से उत्पन्न होता है। यह आत्मा को मोह में डालता है और आध्यात्मिक प्रगति में बाधा उत्पन्न करता है।


श्लोक 40

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः॥

अर्थ:
"न तो पृथ्वी पर और न ही स्वर्ग में, कोई भी ऐसा प्राणी है जो इन तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) से मुक्त हो।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि सृष्टि के सभी प्राणी प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित होते हैं। केवल आत्म-साक्षात्कार से इन गुणों से ऊपर उठा जा सकता है।


श्लोक 41

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥

अर्थ:
"हे परंतप (अर्जुन), ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – इन सभी के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभाजित किए गए हैं।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ समाज के चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के कर्तव्यों का वर्णन करते हैं। ये कर्तव्य जन्म से नहीं, बल्कि व्यक्ति के स्वभाव और गुणों पर आधारित हैं।


सारांश (श्लोक 31-41):

  1. बुद्धि और धृति के प्रकार:

    • सात्त्विक बुद्धि और धृति: धर्म-अधर्म का सही ज्ञान और आत्म-नियंत्रण।
    • राजसिक बुद्धि और धृति: भौतिक इच्छाओं और स्वार्थ से प्रेरित।
    • तामसिक बुद्धि और धृति: अज्ञान, आलस्य और भ्रम से युक्त।
  2. सुख के प्रकार:

    • सात्त्विक सुख: आरंभ में कठिन लेकिन अंत में शुद्ध और शांति देने वाला।
    • राजसिक सुख: आरंभ में सुखद लेकिन अंत में कष्टदायक।
    • तामसिक सुख: आलस्य और अज्ञान से उत्पन्न सुख।
  3. प्रकृति के गुण:

    • सृष्टि का हर प्राणी सत्त्व, रजस और तमस गुणों से प्रभावित है।
  4. वर्ण और कर्तव्य:

    • समाज के चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के कर्तव्य उनके स्वभाव और गुणों के अनुसार निर्धारित होते हैं।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि जीवन में बुद्धि, धैर्य और सुख के प्रकार को समझकर व्यक्ति को सत्त्वगुण को अपनाना चाहिए। सृष्टि के हर प्राणी पर प्रकृति के गुणों का प्रभाव होता है, लेकिन आत्मज्ञान से इन गुणों से ऊपर उठा जा सकता है।

शनिवार, 9 अगस्त 2025

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) कर्मों का विभाजन (श्लोक 13-30)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 13 से 30 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म के कारणों, कर्ता, बुद्धि और संकल्प के तीन प्रकारों (सात्त्विक, राजसिक, तामसिक) का वर्णन किया है।


श्लोक 13

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥

अर्थ:
"हे महाबाहु (अर्जुन), सभी कर्मों की सिद्धि के लिए पाँच कारण बताए गए हैं। इनको समझो, जो सांख्य योग में विस्तार से बताए गए हैं।"

व्याख्या:
भगवान ने कर्म सिद्धि के लिए पाँच कारणों का उल्लेख किया है। ये कर्म के प्रभाव और उसके घटकों को समझने के लिए आवश्यक हैं।


श्लोक 14

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥

अर्थ:
"वे पाँच कारण हैं: (1) अधिष्ठान (शरीर), (2) कर्ता (आत्मा), (3) करण (इंद्रियाँ), (4) चेष्टा (कर्म), और (5) दैव (भगवान की कृपा)।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि कर्म के सफल होने के लिए इन पाँच तत्वों का योगदान आवश्यक है। दैव (ईश्वर की कृपा) सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।


श्लोक 15

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥

अर्थ:
"जो भी कर्म मनुष्य शरीर, वाणी और मन से करता है – चाहे वह न्यायपूर्ण हो या अन्यथा – इन पाँच कारणों से होता है।"

व्याख्या:
हर कर्म, चाहे वह सही हो या गलत, इन्हीं पाँच कारणों से संपन्न होता है। यह कर्म के पीछे के तत्वों को स्पष्ट करता है।


श्लोक 16

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥

अर्थ:
"जो मूर्ख व्यक्ति इन कारणों को न समझकर आत्मा को अकेला कर्ता मानता है, वह सही नहीं देखता।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति इन पाँच कारणों की भूमिका को अनदेखा करता है और आत्मा को अकेला कर्ता मानता है, वह अज्ञानी है।


श्लोक 17

यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥

अर्थ:
"जिस व्यक्ति में अहंकार नहीं है और जिसकी बुद्धि शुद्ध है, वह भले ही दूसरों को मार दे, फिर भी वह न तो हत्या करता है और न ही बंधन में बंधता है।"

व्याख्या:
अहंकार से मुक्त और शुद्ध बुद्धि वाला व्यक्ति कर्मों से बंधता नहीं है। वह समझता है कि सभी कर्म ईश्वर की इच्छा से होते हैं।


श्लोक 18

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥

अर्थ:
"ज्ञान, ज्ञेय (जिसे जानना है) और ज्ञाता (जानने वाला) – ये तीन प्रकार की प्रेरणाएँ हैं। और करण (इंद्रियाँ), कर्म और कर्ता – ये तीन प्रकार के कर्म के घटक हैं।"

व्याख्या:
भगवान कर्म की प्रक्रिया और उसे प्रेरित करने वाले तत्वों का विवरण देते हैं। यह त्रिविध दृष्टिकोण कर्म को समझने के लिए आवश्यक है।


श्लोक 19

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि॥

अर्थ:
"ज्ञान, कर्म और कर्ता – इन तीनों को भी गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के आधार पर तीन प्रकार में विभाजित किया गया है। अब मैं तुम्हें इनके बारे में बताता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि कर्म, ज्ञान और कर्ता की प्रकृति गुणों (सत्त्व, रजस और तमस) से निर्धारित होती है।


श्लोक 20

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥

अर्थ:
"जो ज्ञान सभी प्राणियों में अविभाज्य, अविनाशी और एक ही आत्मा को देखता है, वह सात्त्विक ज्ञान है।"

व्याख्या:
सात्त्विक ज्ञान वह है जो सभी प्राणियों में एक ही परमात्मा की उपस्थिति को पहचानता है। यह ज्ञान एकता और दिव्यता को प्रकट करता है।


श्लोक 21

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्॥

अर्थ:
"जो ज्ञान सभी प्राणियों को अलग-अलग और विविध रूपों में देखता है, वह राजसिक ज्ञान है।"

व्याख्या:
राजसिक ज्ञान भेदभाव को प्रोत्साहित करता है और भौतिक दृष्टिकोण पर आधारित होता है। यह ज्ञान संसारिक इच्छाओं और भौतिकता से प्रेरित होता है।


श्लोक 22

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो ज्ञान बिना किसी कारण के एक ही वस्तु को सबकुछ मानता है और सत्य को नहीं समझता, वह तामसिक ज्ञान है।"

व्याख्या:
तामसिक ज्ञान सीमित, भ्रमपूर्ण और असत्य पर आधारित होता है। यह व्यक्ति को अज्ञानता में डाल देता है।


श्लोक 23

नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥

अर्थ:
"जो कर्म नियत (कर्तव्य) है, जिसमें आसक्ति, राग-द्वेष और फल की इच्छा नहीं होती, वह सात्त्विक कर्म है।"

व्याख्या:
सात्त्विक कर्म शुद्ध मन और निष्काम भावना से किया जाता है। इसमें आत्मा की शुद्धि और भगवान की कृपा प्राप्त करने का उद्देश्य होता है।


श्लोक 24

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥

अर्थ:
"जो कर्म फल की इच्छा से या अहंकार के साथ अत्यधिक प्रयास करके किया जाता है, वह राजसिक कर्म कहलाता है।"

व्याख्या:
राजसिक कर्म स्वार्थ और इच्छाओं से प्रेरित होता है। यह कर्म भौतिक सुखों और प्रसिद्धि के लिए किया जाता है।


श्लोक 25

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥

अर्थ:
"जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और क्षमता की परवाह किए बिना अज्ञानता से किया जाता है, वह तामसिक कर्म कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक कर्म अज्ञानता, आलस्य और हठ के कारण किया जाता है। यह दूसरों के लिए हानिकारक होता है और आत्मा को अधोगति की ओर ले जाता है।


श्लोक 26

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥

अर्थ:
"जो कर्ता आसक्ति और अहंकार से मुक्त है, जो धैर्य और उत्साह से युक्त है, और जो सफलता-असफलता में समान रहता है, वह सात्त्विक कर्ता कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक कर्ता अपने कर्तव्यों को शांत और स्थिर मन से करता है। वह कर्म के फल से प्रभावित नहीं होता।


श्लोक 27

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥

अर्थ:
"जो कर्ता आसक्त, फल की इच्छा रखने वाला, लालची, हिंसक, अशुद्ध और हर्ष-शोक से प्रभावित होता है, वह राजसिक कर्ता कहलाता है।"

व्याख्या:
राजसिक कर्ता भौतिक इच्छाओं और स्वार्थ से प्रेरित होता है। वह कर्म को अपनी सफलता और प्रसिद्धि के लिए करता है।


श्लोक 28

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥

अर्थ:
"जो कर्ता अयोग्य, मूर्ख, हठी, धोखेबाज, अहंकारी, आलसी, उदास और देर करने वाला है, वह तामसिक कर्ता कहलाता है।"

व्याख्या:
तामसिक कर्ता अज्ञानता और आलस्य से प्रेरित होता है। वह अपने कर्तव्यों को ठीक से नहीं निभाता और दूसरों के प्रति नकारात्मक रहता है।


श्लोक 29-30

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥

अर्थ:
"हे धनंजय, अब बुद्धि और धृति (धैर्य) के तीन प्रकारों को विस्तार से सुनो। जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति, क्या करना चाहिए और क्या नहीं, भय और अभय, बंधन और मोक्ष को सही से समझती है, वह सात्त्विक बुद्धि कहलाती है।"

व्याख्या:
सात्त्विक बुद्धि वह है जो धर्म-अधर्म, सही-गलत, और मोक्ष-बंधन के बीच सही अंतर समझ सके। यह व्यक्ति को सच्चे ज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाती है।


सारांश (श्लोक 13-30):

  1. कर्म के पाँच कारण:
    • अधिष्ठान (शरीर), कर्ता (आत्मा), करण (इंद्रियाँ), चेष्टा (प्रयास

), और दैव (भगवान की कृपा)।

  1. ज्ञान के तीन प्रकार:

    • सात्त्विक ज्ञान: सभी में एक ही आत्मा को देखना।
    • राजसिक ज्ञान: भेदभाव और भौतिकता पर आधारित।
    • तामसिक ज्ञान: संकीर्ण और अज्ञानता से युक्त।
  2. कर्ताओं के तीन प्रकार:

    • सात्त्विक कर्ता: निष्काम और संतुलित।
    • राजसिक कर्ता: इच्छाओं और अहंकार से प्रेरित।
    • तामसिक कर्ता: अज्ञानी और आलसी।
  3. सात्त्विक बुद्धि:

    • प्रवृत्ति (धर्म) और निवृत्ति (अधर्म) का सही ज्ञान।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि कर्म, ज्ञान और कर्ता के प्रकार गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) पर निर्भर करते हैं। सच्चा त्याग और बुद्धि वही है जो निष्काम और धर्मपरायण हो। मोक्ष के लिए सात्त्विक गुणों को अपनाना चाहिए।

शनिवार, 2 अगस्त 2025

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) संन्यास और कर्मयोग (श्लोक 1-12)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 1 से श्लोक 12 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने त्याग (संन्यास) और कर्म के विभिन्न रूपों का वर्णन किया है। उन्होंने यह भी समझाया है कि सच्चा त्याग क्या है और त्याग का सही स्वरूप क्या होना चाहिए।


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥

अर्थ:
"अर्जुन ने कहा: हे महाबाहु हृषीकेश, हे केशिनिषूदन, मैं संन्यास और त्याग का तत्व जानना चाहता हूँ। कृपया मुझे स्पष्ट रूप से बताइए।"

व्याख्या:
अर्जुन भगवान से संन्यास और त्याग के बीच के अंतर को समझाने का अनुरोध करते हैं। वह जानना चाहते हैं कि इन दोनों का वास्तविक अर्थ और उद्देश्य क्या है।


श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: कामनाओं से युक्त कर्मों का त्याग 'संन्यास' कहलाता है, और सभी कर्मों के फलों के त्याग को 'त्याग' कहते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि:

  • संन्यास: इच्छाओं से प्रेरित कर्मों का त्याग।
  • त्याग: सभी कर्मों के फलों को त्याग देना।
    यह दोनों शब्द त्याग के दो अलग-अलग पहलुओं को दर्शाते हैं।

श्लोक 3

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे॥

अर्थ:
"कुछ मनीषी (ज्ञानी) कर्मों को दोषपूर्ण मानकर त्यागने योग्य कहते हैं, जबकि कुछ कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप जैसे कर्म कभी त्यागने योग्य नहीं हैं।"

व्याख्या:
कर्मों के बारे में भिन्न दृष्टिकोण हैं। कुछ लोग सभी कर्मों को त्यागने योग्य मानते हैं, जबकि अन्य केवल इच्छाओं और भोग से जुड़े कर्मों को त्यागने की सलाह देते हैं।


श्लोक 4

निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, त्याग के विषय में मेरा निश्चित मत सुनो। हे पुरुषों में श्रेष्ठ, त्याग तीन प्रकार का होता है।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को स्पष्ट करते हैं कि त्याग तीन प्रकार का होता है और इसके सही स्वरूप को समझने के लिए उन्हें ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए।


श्लोक 5

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥

अर्थ:
"यज्ञ, दान और तप के कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए। इन्हें अवश्य करना चाहिए, क्योंकि ये ज्ञानी लोगों को पवित्र करते हैं।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि यज्ञ (भगवान की पूजा), दान (परोपकार) और तप (आत्म-संयम) जैसे कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं, क्योंकि ये आत्मा को शुद्ध करते हैं।


श्लोक 6

एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥

अर्थ:
"लेकिन इन कर्मों को आसक्ति और फल की इच्छा छोड़कर करना चाहिए। हे पार्थ, यह मेरा निश्चित और श्रेष्ठ मत है।"

व्याख्या:
भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि यज्ञ, दान और तप को फल की आकांक्षा और आसक्ति के बिना करना चाहिए। यह शुद्ध कर्म का मार्ग है।


श्लोक 7

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥

अर्थ:
"नियत (कर्तव्य) कर्म का त्याग उचित नहीं है। अज्ञान या मोह के कारण इसका त्याग तामसिक (अधम) माना जाता है।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि कर्तव्य कर्मों को छोड़ना अज्ञान का लक्षण है। ऐसा त्याग तामसिक कहलाता है और यह व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में बाधा डालता है।


श्लोक 8

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति किसी कर्म को केवल दुःख या शारीरिक कष्ट के भय से त्यागता है, उसका त्याग राजसिक (आसक्ति युक्त) कहलाता है। ऐसा त्याग फलदायी नहीं होता।"

व्याख्या:
राजसिक त्याग वह है जिसमें व्यक्ति अपने कर्तव्यों से बचने के लिए त्याग करता है। यह त्याग स्वार्थपूर्ण और अस्थिर होता है।


श्लोक 9

कार्यं इत्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, जो कर्म केवल कर्तव्य समझकर, आसक्ति और फल की इच्छा छोड़कर किया जाता है, वह सात्त्विक त्याग कहलाता है।"

व्याख्या:
सात्त्विक त्याग वह है जिसमें व्यक्ति अपने कर्मों को कर्तव्य मानकर करता है, लेकिन किसी प्रकार की इच्छाओं और आसक्तियों से मुक्त रहता है।


श्लोक 10

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥

अर्थ:
"जो त्यागी कुशल (शुभ) और अकुशल (अशुभ) कर्मों से न तो द्वेष करता है और न ही आसक्त होता है, वह सत्त्वगुण से युक्त, बुद्धिमान और संशयों से मुक्त होता है।"

व्याख्या:
सच्चा त्यागी हर प्रकार के कर्म को स्वीकार करता है और उनसे मुक्त रहता है। वह न तो किसी कर्म को नापसंद करता है और न ही किसी में आसक्ति रखता है।


श्लोक 11

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥

अर्थ:
"शरीरधारी के लिए सभी कर्मों का पूर्ण त्याग संभव नहीं है। लेकिन जो कर्मों के फलों का त्याग करता है, उसे ही सच्चा त्यागी कहा जाता है।"

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि जीवन में सभी कर्मों का त्याग करना संभव नहीं है। सच्चा त्याग वह है जिसमें व्यक्ति कर्म करता है लेकिन उनके फलों की इच्छा नहीं रखता।


श्लोक 12

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्॥

अर्थ:
"कर्मों का फल तीन प्रकार का होता है – अनिष्ट (अप्रिय), इष्ट (प्रिय) और मिश्रित। लेकिन यह केवल त्याग न करने वालों को प्राप्त होता है, संन्यासी को नहीं।"

व्याख्या:
जो व्यक्ति कर्मों के फलों का त्याग नहीं करता, उसे अपने कर्मों के अनुसार सुखद, दुखद, या मिश्रित फल भोगने पड़ते हैं। लेकिन सच्चा संन्यासी इन फलों से मुक्त रहता है।


सारांश (श्लोक 1-12):

  1. त्याग और संन्यास का अर्थ:

    • संन्यास: इच्छाओं और कामनाओं से प्रेरित कर्मों का त्याग।
    • त्याग: सभी कर्मों के फलों का त्याग।
  2. त्याग के तीन प्रकार:

    • तामसिक त्याग: अज्ञान या मोह के कारण कर्तव्य का त्याग।
    • राजसिक त्याग: कष्ट या भय के कारण कर्म का त्याग।
    • सात्त्विक त्याग: कर्तव्य का पालन करना लेकिन फल की इच्छा से मुक्त रहना।
  3. सच्चा त्याग:

    • कर्मों का त्याग नहीं, बल्कि फल की आसक्ति का त्याग सच्चा त्याग है।
    • सात्त्विक त्याग व्यक्ति को संशयों से मुक्त करता है और मोक्ष की ओर ले जाता है।
  4. कर्म का फल:

    • कर्मों का फल अनिष्ट, इष्ट और मिश्रित होता है।
    • त्यागी व्यक्ति कर्मों के बंधन से मुक्त रहता है।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि सच्चा त्याग कर्मों के फलों को त्यागना है, न कि स्वयं कर्मों को। यज्ञ, दान, और तप जैसे शुद्ध कर्मों को करना ही चाहिए, लेकिन उन्हें फल की

इच्छा और आसक्ति से मुक्त होकर करना चाहिए।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...