शनिवार, 28 जून 2025

भगवद्गीता: अध्याय 17 - श्रद्धात्रयविभाग योग

भगवद गीता – सप्तदश अध्याय: श्रद्धात्रयविभाग योग

(Shraddhatraya Vibhaga Yoga – The Yoga of the Threefold Division of Faith)

📖 अध्याय 17 का परिचय

श्रद्धात्रयविभाग योग गीता का सत्रहवाँ अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण बताते हैं कि मनुष्यों की श्रद्धा (Faith) तीन प्रकार की होती है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। यह श्रद्धा उनके स्वभाव के अनुसार उनके आहार, यज्ञ, दान और तप को प्रभावित करती है।

👉 मुख्य भाव:

  • श्रद्धा तीन प्रकार की होती है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
  • भोजन, यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं।
  • "ॐ तत् सत्" का महत्व – जो शुद्ध कर्म का प्रतीक है।

📖 श्लोक (17.3):

"सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥"

📖 अर्थ: हे भारत! प्रत्येक मनुष्य की श्रद्धा उसके स्वभाव के अनुसार होती है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही बन जाता है।

👉 इसका अर्थ है कि श्रद्धा हमारे व्यक्तित्व और कर्मों को प्रभावित करती है।


🔹 1️⃣ अर्जुन का प्रश्न – श्रद्धा का स्वरूप क्या है?

📌 1. अर्जुन का प्रश्न (Verse 1)

अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं:

  • जो लोग शास्त्रों के अनुसार नहीं, बल्कि अपनी श्रद्धा के अनुसार पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा कैसी होती है?
  • क्या यह श्रद्धा सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (आसक्त) या तामसिक (अज्ञानयुक्त) होती है?

📖 श्लोक (17.1):

"अर्जुन उवाच:
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥"

📖 अर्थ: अर्जुन बोले – हे कृष्ण! जो लोग शास्त्रों के नियमों को त्यागकर श्रद्धा से यज्ञ करते हैं, उनकी श्रद्धा कैसी होती है – सात्त्विक, राजसिक या तामसिक?

👉 इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण श्रद्धा के तीन प्रकार बताते हैं।


🔹 2️⃣ श्रद्धा के तीन प्रकार – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक

📌 2. श्रद्धा कैसी होती है? (Verses 2-6)

📖 श्लोक (17.2):

"त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥"

📖 अर्थ: मनुष्यों की श्रद्धा उनके स्वभाव के अनुसार तीन प्रकार की होती है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।

श्रद्धा का प्रकार कैसी होती है? उदाहरण
सात्त्विक श्रद्धा शुद्ध, निर्मल, ज्ञानयुक्त जो व्यक्ति ईश्वर की भक्ति करता है और शुभ कर्म करता है।
राजसिक श्रद्धा इच्छाओं और भोग से प्रेरित जो व्यक्ति धन, प्रतिष्ठा या शक्ति प्राप्त करने के लिए पूजा करता है।
तामसिक श्रद्धा अज्ञान और हठ से प्रेरित जो व्यक्ति अंधविश्वास, काले जादू, या हानिकारक कार्यों में श्रद्धा रखता है।

📖 श्लोक (17.4):

"यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः॥"

📖 अर्थ: सात्त्विक लोग देवताओं की पूजा करते हैं, राजसिक लोग यक्ष और राक्षसों की, और तामसिक लोग भूत-प्रेतों की पूजा करते हैं।

👉 इसका अर्थ है कि हमारी श्रद्धा हमें उच्च या निम्न स्तर तक ले जा सकती है।


🔹 3️⃣ भोजन के तीन प्रकार – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक

📌 3. भोजन भी तीन प्रकार का होता है (Verses 7-10)

📖 श्लोक (17.8-10):

"आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्याः आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥"

📖 अर्थ: सात्त्विक भोजन स्वास्थ्य, शक्ति, सुख और आयु को बढ़ाने वाला होता है।

भोजन का प्रकार कैसा होता है? प्रभाव
सात्त्विक भोजन ताजा, शुद्ध, पौष्टिक, हल्का मन को शांत और शरीर को स्वस्थ करता है।
राजसिक भोजन मसालेदार, अधिक नमकीन या खट्टा उत्तेजना, कामना और असंतोष बढ़ाता है।
तामसिक भोजन बासी, सड़ा-गला, अशुद्ध आलस्य, अज्ञान और नकारात्मकता को जन्म देता है।

👉 हमें सात्त्विक भोजन को अपनाना चाहिए, क्योंकि यह मन और शरीर दोनों के लिए लाभदायक है।


🔹 4️⃣ यज्ञ (हवन) के तीन प्रकार

📌 4. यज्ञ के तीन भेद (Verses 11-13)

यज्ञ का प्रकार कैसा होता है? प्रभाव
सात्त्विक यज्ञ ईश्वर के प्रति प्रेम और बिना किसी स्वार्थ के किया जाता है। मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
राजसिक यज्ञ दिखावे और लाभ के लिए किया जाता है। अहंकार और इच्छाओं को बढ़ाता है।
तामसिक यज्ञ बिना नियमों के, अनुचित वस्तुओं से किया जाता है। पतन की ओर ले जाता है।

📖 श्लोक (17.11):

"अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥"

📖 अर्थ: जो यज्ञ शास्त्रों के अनुसार निष्काम भाव से किया जाता है, वह सात्त्विक होता है।


🔹 5️⃣ दान के तीन प्रकार

📌 5. दान भी तीन प्रकार का होता है (Verses 20-22)

📖 श्लोक (17.20):

"दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥"

📖 अर्थ: जो दान कर्तव्य मानकर योग्य व्यक्ति को सही समय और स्थान पर दिया जाता है, वह सात्त्विक दान कहलाता है।

दान का प्रकार कैसा होता है? प्रभाव
सात्त्विक दान निष्काम और सही पात्र को दिया जाता है। पुण्य और आत्मशुद्धि को बढ़ाता है।
राजसिक दान स्वार्थ, प्रतिष्ठा और दिखावे के लिए दिया जाता है। अहंकार और इच्छाओं को बढ़ाता है।
तामसिक दान अनुचित व्यक्ति या समय पर, अपमान के साथ दिया जाता है। बुरा प्रभाव डालता है।

👉 हमें बिना किसी स्वार्थ के, सही पात्र को दान देना चाहिए।


🔹 निष्कर्ष

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. श्रद्धा तीन प्रकार की होती है – सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (आसक्त), और तामसिक (अज्ञानपूर्ण)।
2. भोजन, यज्ञ, तप और दान भी इन तीन गुणों के अनुसार प्रभावित होते हैं।
3. सात्त्विक गुणों को अपनाने से व्यक्ति मोक्ष की ओर बढ़ता है।
4. जो व्यक्ति "ॐ तत् सत्" का ध्यान रखकर कर्म करता है, वह शुद्ध होता है।

शनिवार, 21 जून 2025

भागवत गीता: अध्याय 16 (दैवासुर सम्पद् विभाग योग) दैवी और आसुरी गुणों से उत्पन्न होने वाले फल (श्लोक 21-24)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 16 (दैवासुर सम्पद् विभाग योग) के श्लोक 21 से श्लोक 24 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने अधोगति के तीन द्वार (त्रिविध नरक) और शास्त्रों के आधार पर धर्म का पालन करने की आवश्यकता को समझाया है।


श्लोक 21

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥

अर्थ:
"यह तीन प्रकार का नरक (आत्मा का नाश करने वाला) है – काम (अत्यधिक इच्छाएँ), क्रोध और लोभ। इसलिए, इन तीनों को त्याग देना चाहिए।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि काम, क्रोध और लोभ आत्मा का विनाश करने वाले तीन प्रमुख दोष हैं। ये गुण व्यक्ति को पाप और अधर्म की ओर ले जाते हैं। इन्हें त्यागकर ही व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 22

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, जो व्यक्ति इन तीन अंधकारमय द्वारों (काम, क्रोध और लोभ) से मुक्त हो जाता है, वह आत्मा के कल्याण के लिए आचरण करता है और परम गति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
जो व्यक्ति काम, क्रोध और लोभ से मुक्त हो जाता है, वह धर्ममय और शांतिपूर्ण जीवन जीता है। ऐसा व्यक्ति भगवान की भक्ति और आत्मज्ञान के मार्ग पर चलता है और मोक्ष को प्राप्त करता है।


श्लोक 23

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति शास्त्रों की विधियों को त्यागकर अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करता है, वह न तो सिद्धि (सफलता), न सुख, और न ही परम गति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ चेतावनी देते हैं कि जो लोग शास्त्रों के निर्देशों की अवहेलना करके अपनी मनमानी करते हैं, वे न तो भौतिक सुख प्राप्त कर पाते हैं और न ही आध्यात्मिक उन्नति। ऐसे लोगों का जीवन दिशाहीन हो जाता है।


श्लोक 24

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥

अर्थ:
"इसलिए, कार्य और अकार्य (क्या करना चाहिए और क्या नहीं) को समझने के लिए शास्त्र ही प्रमाण हैं। शास्त्रों के निर्देशों को समझकर तुम्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि शास्त्र ही यह निर्धारित करते हैं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। शास्त्रों का अध्ययन और पालन व्यक्ति को धर्म और मोक्ष के मार्ग पर चलने में सहायता करता है।


सारांश (श्लोक 21-24):

  1. त्रिविध नरक के द्वार:

    • काम: अत्यधिक इच्छाएँ व्यक्ति को पाप की ओर ले जाती हैं।
    • क्रोध: यह विवेक को नष्ट करता है और हिंसा को बढ़ावा देता है।
    • लोभ: यह व्यक्ति को स्वार्थी और अनैतिक बनाता है।
    • इन तीनों को त्यागकर व्यक्ति आत्मा का कल्याण कर सकता है।
  2. मोक्ष का मार्ग:

    • काम, क्रोध और लोभ से मुक्त होकर धर्म और आत्मज्ञान का पालन करने वाला व्यक्ति परम गति को प्राप्त करता है।
  3. शास्त्रों का महत्व:

    • शास्त्र व्यक्ति को सही और गलत का ज्ञान कराते हैं।
    • शास्त्रों के निर्देशों का पालन करने से व्यक्ति जीवन में सुख, शांति और मोक्ष प्राप्त करता है।
    • शास्त्रों के बिना व्यक्ति का जीवन दिशाहीन और विनाशकारी हो सकता है।

मुख्य संदेश:

भगवान श्रीकृष्ण यहाँ यह सिखाते हैं कि त्रिविध नरक (काम, क्रोध और लोभ) से बचकर और शास्त्रों के निर्देशों का पालन करके व्यक्ति अपने जीवन को धर्ममय बना सकता है और परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है।

शनिवार, 14 जून 2025

भागवत गीता: अध्याय 16 (दैवासुर सम्पद् विभाग योग) दैवी और आसुरी गुणों का वर्णन (श्लोक 1-20)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 16 (दैवासुर सम्पद् विभाग योग) के श्लोक 1 से 20 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने दैवी और आसुरी संपत्तियों (गुणों) का वर्णन किया है। उन्होंने बताया है कि कौन-से गुण मोक्ष की ओर ले जाते हैं और कौन-से गुण बंधन व अधोगति का कारण बनते हैं।


श्लोक 1-3

श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: निडरता, मन की शुद्धता, ज्ञान-योग में स्थिरता, दान, इंद्रिय-निग्रह, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शांति, अपैशुन्य (परनिंदा का अभाव), प्राणियों के प्रति दया, लोभ का अभाव, कोमलता, लज्जा, अचंचलता, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, द्वेष का अभाव और अहंकारहीनता – ये सभी दैवी संपत्ति हैं, जो मोक्ष की ओर ले जाती हैं।"

व्याख्या:
भगवान ने दैवी गुणों का वर्णन किया है, जो व्यक्ति को आत्मज्ञान, शांति और मोक्ष की ओर ले जाते हैं। इन गुणों को अपनाने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति करता है और समाज के लिए प्रेरणा बनता है।


श्लोक 4

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदामासुरीम्॥

अर्थ:
"दंभ (ढोंग), घमंड, अहंकार, क्रोध, कठोरता और अज्ञान – ये सभी आसुरी संपत्ति के लक्षण हैं।"

व्याख्या:
आसुरी गुण व्यक्ति को अधोगति की ओर ले जाते हैं। ये गुण भौतिक इच्छाओं, अहंकार और अज्ञान का परिणाम होते हैं।


श्लोक 5

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥

अर्थ:
"दैवी संपत्ति मोक्ष का कारण है और आसुरी संपत्ति बंधन का। हे पाण्डव, तुम्हारा जन्म दैवी संपत्ति के लिए हुआ है, इसलिए चिंता मत करो।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को बताते हैं कि दैवी गुण मोक्ष प्रदान करते हैं, जबकि आसुरी गुण बंधन और पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। अर्जुन को आश्वस्त किया गया है कि उनमें दैवी गुण हैं।


श्लोक 6

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥

अर्थ:
"इस संसार में दो प्रकार के प्राणी हैं – दैवी और आसुरी। दैवी गुणों का वर्णन मैंने पहले किया है, अब आसुरी गुणों के बारे में सुनो।"

व्याख्या:
भगवान स्पष्ट करते हैं कि सभी प्राणी दो श्रेणियों में आते हैं – दैवी (जो शुभ गुणों से युक्त हैं) और आसुरी (जो नकारात्मक गुणों से युक्त हैं)।


श्लोक 7

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥

अर्थ:
"आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, यह नहीं जानते। उनमें न तो शुद्धता है, न अच्छा आचरण, और न ही सत्यता।"

व्याख्या:
आसुरी लोग धर्म और अधर्म के भेद को नहीं समझते। वे शुद्धता और नैतिकता के सिद्धांतों का पालन नहीं करते और झूठ और पाखंड में लिप्त रहते हैं।


श्लोक 8

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥

अर्थ:
"आसुरी लोग कहते हैं कि यह संसार असत्य, आधारहीन और ईश्वर रहित है। वे मानते हैं कि यह केवल कामना और आपसी संबंधों से उत्पन्न हुआ है।"

व्याख्या:
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग सृष्टि के दिव्य मूल को अस्वीकार करते हैं। वे ईश्वर और धर्म को नकारते हुए भौतिक इच्छाओं और स्वार्थ को ही प्राथमिकता देते हैं।


श्लोक 9

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥

अर्थ:
"ऐसी दृष्टि को अपनाकर, अज्ञानी और अल्पबुद्धि लोग आत्मा को नष्ट कर देते हैं। वे उग्र कर्म करते हैं और संसार के विनाश का कारण बनते हैं।"

व्याख्या:
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग भौतिकता और स्वार्थ में इतने लिप्त हो जाते हैं कि उनकी आत्मा का पतन हो जाता है। उनके कर्म समाज और प्रकृति के लिए हानिकारक होते हैं।


श्लोक 10

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥

अर्थ:
"वे तृष्णा (भोग लालसा) का सहारा लेकर, दंभ, घमंड और अहंकार से युक्त होते हैं। मोह में फँसकर, असत्य को पकड़कर अशुद्ध व्रतों का पालन करते हैं।"

व्याख्या:
आसुरी लोग अपनी इच्छाओं और अहंकार के वश में होकर ऐसे कार्य करते हैं, जो अशुद्ध और अधर्म के मार्ग पर होते हैं।


श्लोक 11-12

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥

अर्थ:
"वे अनंत चिंता से घिरे रहते हैं, जो उनके प्रलय (मृत्यु) तक रहती है। उनकी तृष्णा असीम होती है और वे मानते हैं कि भोग ही सबकुछ है। वे आशा (इच्छा) के बंधनों से जकड़े होते हैं, क्रोध और काम के दास बन जाते हैं, और अन्यायपूर्ण तरीकों से धन एकत्र करते हैं।"

व्याख्या:
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग भोग को ही जीवन का अंतिम उद्देश्य मानते हैं। वे लालच और क्रोध के कारण अनैतिक कार्य करते हैं और अपनी इच्छाओं के कारण दुख और चिंता में घिरे रहते हैं।


श्लोक 13-15

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥

अर्थ:
"वे सोचते हैं: 'आज मैंने यह प्राप्त किया, अब मैं अपनी इच्छाएँ पूरी करूँगा। यह मेरा है और यह भविष्य में भी मेरा होगा। मैंने इस शत्रु को मार दिया है और दूसरों को भी मार दूँगा। मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही भोग करने वाला हूँ, मैं सिद्ध, बलवान और सुखी हूँ। मैं धनवान और कुलीन हूँ। मेरे जैसा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आनंद करूँगा।' इस प्रकार, वे अज्ञान से मोहित रहते हैं।"

व्याख्या:
आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग केवल भौतिक सुखों में लिप्त रहते हैं। वे अहंकार और अज्ञान में डूबे रहते हैं और अपने भोग तथा शक्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं।


श्लोक 16-20

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥
आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥

अर्थ:
"वे अनेक प्रकार की चिंताओं से भ्रमित होते हैं, मोह में फँसे रहते हैं और भोग में लिप्त होकर अशुद्ध नरकों में गिरते हैं। वे स्वयं को बड़ा मानते हैं, अहंकारी, धनवान और दंभी होते हैं। वे धर्म का ढोंग करते हैं, लेकिन विधिपूर्वक नहीं। अहंकार, घमंड, लालच और क्रोध से युक्त होकर, वे मुझसे और दूसरों से द्वेष करते हैं। ऐसे दुष्ट, क्रूर और अधम प्राणियों को मैं बार-बार आसुरी योनियों में फेंकता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान स्पष्ट करते हैं कि आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग, जो अहंकारी, क्रोधी और दूसरों से द्वेष करते हैं, उन्हें अधम योनियों में जन्म लेना पड़ता है। यह उनके अधार्मिक कर्मों और स्वार्थी प्रवृत्तियों का परिणाम है।


सारांश (श्लोक 1-20):

  1. दैवी संपत्ति:

    • अहिंसा, दया, शांति, सच्चाई, त्याग, इंद्रिय-निग्रह और नम्रता जैसे गुण।
    • ये गुण मोक्ष और आत्मज्ञान की ओर ले जाते हैं।
  2. आसुरी संपत्ति:

    • दंभ, अहंकार, क्रोध, अज्ञान, लालच और भोग की प्रवृत्ति।
    • ये गुण बंधन, अधोगति और नरक का कारण बनते हैं।
  3. आसुरी प्रवृत्ति का परिणाम:

    • आसुरी गुणों से युक्त व्यक्ति मोह, अज्ञान और तृष्णा में फँसकर अधम योनियों में जन्म लेता है।
    • उनका जीवन अधर्म और स्वार्थ से भरा होता है, जो समाज और स्वयं के लिए हानिकारक है।

शनिवार, 7 जून 2025

भगवद्गीता: अध्याय 16 - दैवासुरसम्पद्विभाग योग

भगवद गीता – षोडश अध्याय: दैवासुरसम्पद्विभाग योग

(Daivasura Sampad Vibhaga Yoga – The Yoga of the Division Between the Divine and the Demonic Qualities)

📖 अध्याय 16 का परिचय

दैवासुरसम्पद्विभाग योग गीता का सोलहवाँ अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण दैवी (सात्विक) और आसुरी (राजसी-तामसी) गुणों का भेद बताते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि जो व्यक्ति दैवी गुणों को अपनाता है, वह मोक्ष (मुक्ति) की ओर बढ़ता है, जबकि आसुरी प्रवृत्ति वाला व्यक्ति अधोगति (पतन) को प्राप्त करता है।

👉 मुख्य भाव:

  • दैवी सम्पद (सात्विक गुण) – आत्मोन्नति और मोक्ष का मार्ग।
  • आसुरी सम्पद (राजसिक और तामसिक गुण) – पतन और बंधन का कारण।
  • धर्मशास्त्र के अनुसार जीवन जीने का महत्व।

📖 श्लोक (16.6):

"द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥"

📖 अर्थ: हे अर्जुन! इस संसार में दो प्रकार के जीव होते हैं – दैवी और आसुरी। मैंने पहले दैवी स्वभाव को विस्तार से बताया, अब आसुरी स्वभाव को सुनो।

👉 यह अध्याय हमें सिखाता है कि हमें दैवी गुणों को अपनाना चाहिए और आसुरी प्रवृत्तियों से बचना चाहिए।


🔹 1️⃣ दैवी गुण – जो व्यक्ति मोक्ष की ओर ले जाते हैं

📌 1. दैवी सम्पद के गुण (Verses 1-3)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि दैवी स्वभाव वाले लोग सत्य, अहिंसा, करुणा और आत्मसंयम से युक्त होते हैं।
  • ये गुण व्यक्ति को परमात्मा से जोड़ते हैं और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

📖 श्लोक (16.2-3):

"अहिंसा सत्यं अक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥"

"तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥"

📖 अर्थ: अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शांति, सरलता, करुणा, लोभ-रहितता, कोमलता, लज्जा, धैर्य, क्षमा, स्वच्छता, द्वेषरहितता और अभिमान का अभाव – ये सभी दैवी गुण हैं।

👉 ऐसे व्यक्ति ईश्वर के प्रिय होते हैं और मोक्ष के अधिकारी बनते हैं।


🔹 2️⃣ आसुरी गुण – जो व्यक्ति को पतन की ओर ले जाते हैं

📌 2. आसुरी सम्पद के लक्षण (Verses 4-5)

  • आसुरी स्वभाव के लोग अहंकारी, क्रूर, दंभी, असत्य भाषी, और धर्मविहीन होते हैं।
  • ये गुण व्यक्ति को अधोगति (नरक) की ओर ले जाते हैं।

📖 श्लोक (16.4):

"दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदामासुरीम्॥"

📖 अर्थ: दिखावा, अहंकार, घमंड, क्रोध, कठोर वाणी, और अज्ञान – ये सभी आसुरी गुण हैं।

👉 ऐसे लोग अधर्म में लिप्त रहते हैं और पुनर्जन्म के चक्र में फंसे रहते हैं।


🔹 3️⃣ आसुरी प्रवृत्तियों वाले व्यक्तियों का व्यवहार

📌 3. आसुरी व्यक्ति किस प्रकार सोचते और कार्य करते हैं? (Verses 7-20)

  • ये लोग धर्म को नहीं मानते और अपने मन की इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं।
  • इन्हें न ही अच्छे कर्मों में रुचि होती है, न ही पवित्रता में।

📖 श्लोक (16.8):

"असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥"

📖 अर्थ: आसुरी स्वभाव वाले लोग कहते हैं कि यह संसार झूठा, आधारहीन और ईश्वर-विहीन है। वे मानते हैं कि यह केवल वासना और संयोग का परिणाम है।

📖 श्लोक (16.13-15):

"इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥"

📖 अर्थ: वे सोचते हैं – "आज मैंने यह पा लिया, कल और पाऊँगा। मेरे पास इतना धन है, और भी होगा।"

👉 ऐसे व्यक्ति लोभ और अहंकार में अंधे हो जाते हैं और धर्म से दूर हो जाते हैं।


🔹 4️⃣ आसुरी प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों की गति (पतन)

📌 4. आसुरी स्वभाव वाले लोगों का भविष्य क्या होता है? (Verses 16-20)

  • ये लोग जन्म-जन्मांतर तक अधोगति को प्राप्त होते हैं।
  • भगवान कहते हैं कि ऐसे लोग बार-बार जन्म लेते हैं और निम्न योनियों में गिरते जाते हैं।

📖 श्लोक (16.20):

"आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥"

📖 अर्थ: जो लोग आसुरी स्वभाव के होते हैं, वे जन्म-जन्मांतर तक अधोगति (नरक) में जाते रहते हैं और मुझे (भगवान) प्राप्त नहीं कर पाते।

👉 इसलिए, आसुरी गुणों से बचना आवश्यक है।


🔹 5️⃣ शास्त्रानुसार आचरण करना आवश्यक है

📌 5. धर्मशास्त्र का पालन क्यों आवश्यक है? (Verses 21-24)

  • काम (वासना), क्रोध और लोभ – ये तीन नरक के द्वार हैं, इनसे बचना चाहिए।
  • जो व्यक्ति धर्मशास्त्रों को छोड़कर मनमाने तरीके से कार्य करता है, वह विनाश को प्राप्त होता है।

📖 श्लोक (16.23):

"यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥"

📖 अर्थ: जो व्यक्ति शास्त्रों को छोड़कर अपनी इच्छानुसार कार्य करता है, वह न सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख, और न ही परम गति।

👉 इसलिए, हमें शास्त्रों के अनुसार जीवन जीना चाहिए।


🔹 6️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. दैवी गुणों को अपनाने से मोक्ष प्राप्त होता है।
2. आसुरी प्रवृत्तियाँ व्यक्ति को अधोगति की ओर ले जाती हैं।
3. लोभ, अहंकार, क्रोध, और अधर्म से बचना चाहिए।
4. धर्मशास्त्रों के अनुसार आचरण करने से ही जीवन सफल होता है।
5. भगवान केवल उन्हीं की सहायता करते हैं, जो सच्चे मन से भक्ति करते हैं और धर्म के मार्ग पर चलते हैं।


🔹 निष्कर्ष

1️⃣ दैवी और आसुरी स्वभाव वाले व्यक्तियों में मूल अंतर उनके गुण और आचरण से होता है।
2️⃣ जो व्यक्ति अहंकार, क्रोध और लोभ को छोड़कर सत्य, करुणा और भक्ति का पालन करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।
3️⃣ जो धर्मशास्त्रों को छोड़कर अधर्म के मार्ग पर चलता है, वह पतन को प्राप्त करता है।
4️⃣ हमें अपने जीवन में दैवी गुणों को अपनाकर, भगवान की भक्ति और सच्चाई के मार्ग पर चलना चाहिए।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

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