शनिवार, 17 मई 2025

भागवत गीता: अध्याय 15 (पुरुषोत्तम योग) उल्टे वृक्ष का उदाहरण (श्लोक 1-3), संसार के अस्थिर स्वरूप का विवेचन (श्लोक 4-7)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 15 (पुरुषोत्तम योग) के श्लोक 1 से श्लोक 7 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने संसार को एक अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष के रूप में वर्णित किया है और आत्मा की स्थिति और भगवान के साथ उसके संबंध को स्पष्ट किया है।


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: इस संसार रूपी अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष की जड़ें ऊपर (भगवान में) हैं और शाखाएँ नीचे (संसार में) फैली हुई हैं। इसके पत्ते वेद मंत्र हैं। जो इस वृक्ष को जानता है, वह वेद को जानने वाला है।"

व्याख्या:
भगवान ने संसार की तुलना एक उल्टे वृक्ष से की है, जिसमें जड़ें ऊपर (परमात्मा) हैं और शाखाएँ नीचे (भौतिक संसार) फैली हैं। वेद इसके पत्तों की तरह हैं, जो जीवन को पोषण प्रदान करते हैं। यह वृक्ष अनादि और अविनाशी है। इसे समझना सच्चे ज्ञान का प्रतीक है।


श्लोक 2

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा।
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि।
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥

अर्थ:
"इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर और नीचे फैली हुई हैं, जो प्रकृति के गुणों द्वारा पोषित होती हैं और जिनके अंकुर (नव पत्ते) विषय (इंद्रिय सुख) हैं। इसकी जड़ें नीचे की ओर फैली हुई हैं, जो कर्मों के बंधन से जुड़ी हैं।"

व्याख्या:
यह संसार रूपी वृक्ष इंद्रिय सुखों और प्रकृति के तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) से पोषित होता है। इसकी शाखाएँ कर्मों और भौतिक इच्छाओं के कारण फैलती रहती हैं। कर्मों के बंधन इसे मजबूत बनाए रखते हैं।


श्लोक 3

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते।
नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलम्।
असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥

अर्थ:
"इस संसार रूपी वृक्ष का न तो यहाँ रूप देखा जा सकता है, न ही इसका अंत, न इसका आरंभ, और न ही इसकी स्थिति। इसे दृढ़ वैराग्य रूपी शस्त्र से काट देना चाहिए।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि इस संसार रूपी वृक्ष का कोई स्पष्ट रूप नहीं है, क्योंकि यह भ्रम और माया से ढका हुआ है। इसका आरंभ और अंत समझना कठिन है। इसे केवल वैराग्य (असक्ति) रूपी शस्त्र से काटा जा सकता है।


श्लोक 4

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं।
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये।
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥

अर्थ:
"इसके बाद उस परम धाम की खोज करो, जहाँ जाकर फिर से लौटना नहीं होता। उसी आदिपुरुष (भगवान) की शरण लो, जिससे यह प्राचीन सृष्टि प्रवाहित हुई है।"

व्याख्या:
संसार रूपी वृक्ष को काटने के बाद, व्यक्ति को परम धाम (भगवान के निवास) की ओर बढ़ना चाहिए। यह वही स्थान है जहाँ पहुँचने के बाद पुनर्जन्म नहीं होता। भगवान ही इस सृष्टि का मूल कारण हैं और उन्हें ही लक्ष्य बनाना चाहिए।


श्लोक 5

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा।
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः।
गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥

अर्थ:
"जो मान (अहंकार) और मोह से रहित हैं, जिन्होंने आसक्ति रूपी दोष को जीत लिया है, जो आत्मज्ञान में स्थिर हैं, जिनकी सभी कामनाएँ समाप्त हो चुकी हैं, और जो सुख-दुःख के द्वंद्वों से मुक्त हैं – वे ही उस अविनाशी पद (परम धाम) को प्राप्त करते हैं।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि मोक्ष प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अहंकार, मोह, आसक्ति और द्वंद्वों (सुख-दुःख) से मुक्त होना आवश्यक है। केवल वे लोग, जो आत्मज्ञान में स्थिर रहते हैं और कामनाओं से ऊपर उठ जाते हैं, परम धाम तक पहुँच सकते हैं।


श्लोक 6

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥

अर्थ:
"वह धाम (परम स्थान) सूर्य, चंद्रमा या अग्नि से प्रकाशित नहीं होता। वहाँ पहुँचने के बाद कोई वापस नहीं लौटता। वह मेरा परम धाम है।"

व्याख्या:
भगवान अपने परम धाम का वर्णन करते हैं, जो भौतिक प्रकाश (सूर्य, चंद्रमा, अग्नि) से परे है। यह दिव्य और शाश्वत प्रकाश से युक्त है। वहाँ पहुँचने के बाद आत्मा पुनर्जन्म के चक्र में नहीं लौटती।


श्लोक 7

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥

अर्थ:
"इस भौतिक संसार में स्थित जीव, मेरा सनातन अंश है। वह प्रकृति में स्थित रहते हुए, मन और छह इंद्रियों (पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और मन) के द्वारा संघर्ष करता है।"

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि हर जीवात्मा उनका अंश है। जीवात्मा मन और इंद्रियों के बंधन में फँसकर प्रकृति में संघर्ष करता है। यह बंधन ही उसके कष्टों का कारण है।


सारांश (श्लोक 1-7):

  1. संसार का स्वरूप:

    • यह संसार एक उल्टे पीपल के वृक्ष की तरह है, जिसकी जड़ें ऊपर (भगवान में) और शाखाएँ नीचे (भौतिक संसार में) फैली हैं।
    • इसकी शाखाएँ कर्म और इंद्रिय सुखों से पोषित होती हैं।
  2. संसार से मुक्ति का मार्ग:

    • वैराग्य (असक्ति) रूपी शस्त्र से इस वृक्ष को काटकर परम धाम की ओर बढ़ना चाहिए।
    • परम धाम (भगवान का निवास) दिव्य और शाश्वत है।
  3. मोक्ष प्राप्ति के उपाय:

    • अहंकार, मोह और आसक्ति का त्याग।
    • आत्मज्ञान में स्थिरता और द्वंद्वों (सुख-दुःख) से मुक्ति।
  4. भगवान का धाम:

    • भगवान का धाम सूर्य, चंद्रमा, और अग्नि के प्रकाश से परे है।
    • वहाँ पहुँचने के बाद पुनर्जन्म नहीं होता।
  5. जीवात्मा का स्वरूप:

    • प्रत्येक जीवात्मा भगवान का सनातन अंश है।
    • जीवात्मा मन और इंद्रियों के साथ प्रकृति में संघर्ष करता है।

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