शनिवार, 10 मई 2025

भगवद्गीता: अध्याय 15 - पुरुषोत्तम योग

भगवद गीता – पंद्रहवाँ अध्याय: पुरुषोत्तम योग

(Purushottama Yoga – The Yoga of the Supreme Divine Personality)

📖 अध्याय 15 का परिचय

पुरुषोत्तम योग गीता का पंद्रहवाँ अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण इस भौतिक संसार (संसर) की असारता, आत्मा का शाश्वत स्वरूप, और स्वयं को परम पुरुष (पुरुषोत्तम) के रूप में प्रकट करते हैं।

👉 मुख्य भाव:

  • संसार रूपी वृक्ष का वर्णन।
  • तीन पुरुष – क्षर (नश्वर जीव), अक्षर (अविनाशी आत्मा), और पुरुषोत्तम (परमात्मा)।
  • परमात्मा (भगवान श्रीकृष्ण) ही सभी का अंतिम आश्रय हैं।

📖 श्लोक (15.3-4):

"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलं असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥"

📖 अर्थ: इस संसार वृक्ष का वास्तविक स्वरूप न देखा जा सकता है, न इसका आदि है, न अंत, न ही इसका आधार स्पष्ट है। इसे वैराग्य (असंगता) के दृढ़ शस्त्र से काटकर मुक्त होना चाहिए।

👉 यह अध्याय हमें सिखाता है कि केवल भक्ति और ज्ञान के द्वारा ही हम इस संसार रूपी वृक्ष से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं।


🔹 1️⃣ संसार रूपी वृक्ष (अश्वत्थ वृक्ष का प्रतीकात्मक अर्थ)

📌 1. संसार एक उल्टा पीपल वृक्ष है (Verses 1-4)

  • श्रीकृष्ण इस संसार की तुलना एक उल्टे अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष से करते हैं।
  • इसकी जड़ें ऊपर (ब्रह्म) में और शाखाएँ नीचे (संसार) में फैली हुई हैं।
  • इस वृक्ष को वैराग्य और भक्ति से काटकर ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।

📖 श्लोक (15.1):

"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥"

📖 अर्थ: यह संसार रूपी अश्वत्थ वृक्ष ऊपर (परमात्मा) में मूल रूप से स्थित है और इसकी शाखाएँ नीचे (संसार) में फैली हैं। इसके पत्ते वेद हैं, और जो इसे जानता है, वही सच्चा वेदज्ञानी है।

👉 इसका अर्थ है कि यह संसार अस्थायी और परिवर्तनशील है, और आत्मा को इससे मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए।


🔹 2️⃣ आत्मा का स्वरूप और परमात्मा की स्थिति

📌 2. आत्मा इस संसार में कैसे भ्रमित होती है? (Verses 7-11)

  • जीवात्मा (आत्मा) परमात्मा का अंश होते हुए भी माया के कारण संसार में भ्रमित हो जाती है।
  • मृत्यु के समय आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नए शरीर को धारण करती है।

📖 श्लोक (15.7):

"ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥"

📖 अर्थ: यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है, लेकिन यह मन और इंद्रियों के माध्यम से प्रकृति में बंध जाती है।

📖 श्लोक (15.8):

"शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥"

📖 अर्थ: जब जीवात्मा शरीर को त्यागती है और नया शरीर धारण करती है, तो यह इंद्रियों और मन को अपने साथ ले जाती है, जैसे वायु सुगंध को साथ ले जाती है।

👉 इसका अर्थ है कि आत्मा नश्वर शरीर से भिन्न है, और यह पुनर्जन्म के चक्र में बंधी रहती है।


🔹 3️⃣ परमात्मा ही सब कुछ हैं

📌 3. परमात्मा की सर्वव्यापकता (Verses 12-15)

  • परमात्मा सूर्य, चंद्रमा, अग्नि और संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हैं।
  • वे ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हैं और सभी ज्ञान के आधार हैं।

📖 श्लोक (15.12):

"यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥"

📖 अर्थ: जो प्रकाश सूर्य, चंद्रमा और अग्नि में स्थित है, वह मेरा ही तेज है।

📖 श्लोक (15.15):

"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥"

📖 अर्थ: मैं ही सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ, मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और विस्मरण उत्पन्न होता है। वेदों द्वारा केवल मुझे ही जाना जाता है, और मैं ही वेदों का रचयिता और ज्ञाता हूँ।

👉 परमात्मा हर जीव में स्थित हैं और वे ही सभी ज्ञान और बुद्धि का स्रोत हैं।


🔹 4️⃣ तीन पुरुष – क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम

📌 4. कौन है "पुरुषोत्तम"? (Verses 16-20)

  • क्षर पुरुष – यह संसार में जन्म-मरण के चक्र में फंसे सभी जीव हैं।
  • अक्षर पुरुष – यह आत्मा है, जो नष्ट नहीं होती।
  • पुरुषोत्तम (परमात्मा) – यह भगवान स्वयं हैं, जो सृष्टि के कर्ता, पालनहार और संहारकर्ता हैं।

📖 श्लोक (15.18):

"यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥"

📖 अर्थ: क्योंकि मैं क्षर (संसार) से परे हूँ और अक्षर (आत्मा) से भी श्रेष्ठ हूँ, इसलिए वेदों और लोकों में मुझे "पुरुषोत्तम" कहा जाता है।

👉 भगवान स्वयं सबसे श्रेष्ठ हैं, और वे ही सच्चा आश्रय हैं।


🔹 5️⃣ पुरुषोत्तम को प्राप्त करने का मार्ग

📌 5. कैसे पुरुषोत्तम को प्राप्त किया जाए? (Verse 20)

  • जो व्यक्ति अनन्य भक्ति से भगवान की शरण में आता है, वह पुरुषोत्तम को प्राप्त करता है।

📖 श्लोक (15.20):

"इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥"

📖 अर्थ: हे अर्जुन! मैंने तुझसे यह परम गोपनीय शास्त्र कह दिया। इसे जानकर बुद्धिमान व्यक्ति परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।

👉 भक्ति और आत्मज्ञान के द्वारा ही पुरुषोत्तम को प्राप्त किया जा सकता है।


🔹 6️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. यह संसार एक अस्थायी वृक्ष के समान है, जिससे मुक्त होना आवश्यक है।
2. आत्मा अमर है, लेकिन यह प्रकृति के बंधनों में फँसी रहती है।
3. परमात्मा ही समस्त ब्रह्मांड के आधार हैं और हर प्राणी के हृदय में स्थित हैं।
4. पुरुषोत्तम (श्रीकृष्ण) को भक्ति द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
5. यह अध्याय सबसे गूढ़ ज्ञान है, जिसे जानकर व्यक्ति परम शांति को प्राप्त कर सकता है।


🔹 निष्कर्ष

1️⃣ यह संसार एक अस्थायी वृक्ष के समान है, जिससे केवल भक्ति और वैराग्य द्वारा मुक्त हुआ जा सकता है।
2️⃣ परमात्मा (पुरुषोत्तम) ही इस संपूर्ण सृष्टि का आधार हैं।
3️⃣ जो भक्ति के द्वारा पुरुषोत्तम को जान लेता है, वह मुक्त हो जाता है।

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