शनिवार, 28 सितंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) अक्षर ब्रह्म का स्वरूप (श्लोक 1-7)

 भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) अक्षर ब्रह्म का स्वरूप (श्लोक 1-7) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे पुरुषोत्तम, वह ब्रह्म क्या है? आध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत क्या है और अधिदैव क्या कहा गया है?"

व्याख्या:
अर्जुन श्रीकृष्ण से गहरे प्रश्न पूछते हैं ताकि भगवान के द्वारा बताए गए उच्च ज्ञान को ठीक से समझ सकें। वह ब्रह्म, आत्मा, कर्म, भौतिक तत्वों और देवताओं के संदर्भ में स्पष्टता चाहते हैं।


श्लोक 2

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥

अर्थ:
"हे मधुसूदन, इस शरीर में अधियज्ञ कौन है? और मृत्यु के समय आत्मा के द्वारा आपको कैसे जाना जा सकता है?"

व्याख्या:
अर्जुन यह समझना चाहते हैं कि यज्ञ के अधिष्ठाता के रूप में भगवान का स्वरूप क्या है और मृत्यु के समय भगवान का स्मरण कैसे किया जा सकता है। यह मोक्ष के मार्ग पर अर्जुन की जिज्ञासा को दर्शाता है।


श्लोक 3

श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: ब्रह्म अविनाशी और परम है। आत्मा का स्वभाव आध्यात्म कहलाता है, और भूतों (जीवों) की उत्पत्ति का कारण कर्म है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं:

  1. ब्रह्म: शाश्वत और अविनाशी सत्य।
  2. आध्यात्म: आत्मा का आंतरिक स्वभाव।
  3. कर्म: वह क्रिया जिससे भौतिक संसार में जीवों की उत्पत्ति होती है।

श्लोक 4

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥

अर्थ:
"अधिभूत (भौतिक तत्व) नाशवान है, अधिदैव पुरुष है, और अधियज्ञ मैं ही हूँ, जो इस शरीर में स्थित हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ बताते हैं:

  1. अधिभूत: भौतिक संसार और उसकी नश्वरता।
  2. अधिदैव: देवताओं का स्वरूप।
  3. अधियज्ञ: भगवान स्वयं, जो प्रत्येक यज्ञ के अधिष्ठाता हैं और शरीर में स्थित आत्मा के साथ यज्ञ को संचालित करते हैं।

श्लोक 5

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥

अर्थ:
"मृत्यु के समय जो मुझे स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
यह श्लोक मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने के महत्व को दर्शाता है। भगवान के स्मरण से आत्मा भगवान के दिव्य स्वरूप को प्राप्त करती है और मोक्ष प्राप्त होता है।


श्लोक 6

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, मृत्यु के समय जो भी भाव स्मरण करता हुआ व्यक्ति शरीर त्यागता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है, क्योंकि वह जीवनभर उसी भाव से जुड़ा रहता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि मृत्यु के समय व्यक्ति जिस भाव में होता है, वही उसकी आत्मा की स्थिति को निर्धारित करता है। इसलिए जीवनभर भगवान का ध्यान और भक्ति करना आवश्यक है।


श्लोक 7

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः॥

अर्थ:
"इसलिए, हर समय मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो। अपना मन और बुद्धि मुझमें अर्पित करो, और तुम निःसंदेह मुझे प्राप्त करोगे।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को निर्देश देते हैं कि वह अपने कर्तव्यों (युद्ध) का पालन करते हुए हमेशा भगवान का स्मरण करें। भगवान का स्मरण और कर्तव्य का पालन दोनों ही मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं।


सारांश:

  1. अर्जुन ने ब्रह्म, आध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव, और अधियज्ञ के बारे में पूछा।
  2. भगवान ने इन सभी की परिभाषा दी, जिसमें ब्रह्म को अविनाशी और आत्मा को परम तत्व बताया।
  3. मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने से व्यक्ति भगवान के दिव्य स्वरूप को प्राप्त करता है।
  4. जीवनभर भगवान का ध्यान और भक्ति करना आवश्यक है ताकि मृत्यु के समय भगवान का स्मरण स्वाभाविक हो।
  5. भगवान का स्मरण और कर्तव्य का पालन, दोनों एक साथ मोक्ष का मार्ग बनाते हैं।

शनिवार, 21 सितंबर 2024

भगवद्गीता: अध्याय 8 - अक्षर ब्रह्म योग

भगवद गीता – अष्टम अध्याय: अक्षर ब्रह्म योग

(Akshara Brahma Yoga – The Yoga of the Imperishable Absolute)

📖 अध्याय 8 का परिचय

अक्षर ब्रह्म योग भगवद गीता का आठवाँ अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण परम ब्रह्म (Ultimate Reality), मृत्यु के समय भगवान का स्मरण, मोक्ष प्राप्ति का रहस्य और दो प्रकार के मार्ग (श्वेत-श्याम पथ) के बारे में बताते हैं।

👉 मुख्य भाव:

  • परम ब्रह्म (Supreme Reality) क्या है?
  • मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने का महत्व।
  • मोक्ष प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग।
  • दो पथ – एक मोक्ष की ओर और दूसरा पुनर्जन्म की ओर।

📖 श्लोक (8.5):

"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥"

📖 अर्थ: जो मृत्यु के समय मेरा स्मरण करते हुए शरीर त्यागता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है – इसमें कोई संदेह नहीं।

👉 यह अध्याय बताता है कि जीवन के अंतिम क्षणों में भगवान का स्मरण करने से मोक्ष प्राप्त हो सकता है।


🔹 1️⃣ अर्जुन के प्रश्न और श्रीकृष्ण के उत्तर

📌 1. अर्जुन के सात प्रश्न (Verse 1-2)

अर्जुन श्रीकृष्ण से सात महत्वपूर्ण प्रश्न पूछते हैं:
1️⃣ ब्रह्म क्या है? (What is Brahman?)
2️⃣ अध्यात्म क्या है? (What is Adhyatma - the Self?)
3️⃣ कर्म क्या है? (What is Karma?)
4️⃣ अधिभूत क्या है? (What is Adhibhuta - the material world?)
5️⃣ अधिदैव क्या है? (What is Adhidaiva - the divine being?)
6️⃣ अधियज्ञ कौन है? (Who is Adhiyajna - the lord of sacrifice?)
7️⃣ मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने से क्या होता है? (What happens if one remembers God at the time of death?)

📖 श्लोक (8.1):

"अर्जुन उवाच: किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥"

📖 अर्थ: अर्जुन बोले – हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? और कर्म क्या है? अधिभूत और अधिदैव क्या कहलाते हैं?

👉 अर्जुन की जिज्ञासा हमें आध्यात्मिकता को गहराई से समझने में मदद करती है।


🔹 2️⃣ भगवान श्रीकृष्ण के उत्तर

📌 2. ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ का अर्थ (Verses 3-4)

1️⃣ ब्रह्म (Brahman) – परम अविनाशी तत्व, जिसे "अक्षर" कहा जाता है।
2️⃣ अध्यात्म (Adhyatma) – जीवात्मा (Individual Soul)।
3️⃣ कर्म (Karma) – भौतिक संसार में कारण और परिणाम का नियम।
4️⃣ अधिभूत (Adhibhuta) – पंच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) का समूह।
5️⃣ अधिदैव (Adhidaiva) – ब्रह्मांड में देवताओं की शक्तियाँ।
6️⃣ अधियज्ञ (Adhiyajna) – परमात्मा जो सभी यज्ञों (त्याग और भक्ति) के केंद्र हैं।

📖 श्लोक (8.3):

"श्रीभगवानुवाच: अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥"

📖 अर्थ: श्रीकृष्ण बोले – जो अविनाशी और परम है, वही ब्रह्म है। जीवात्मा को अध्यात्म कहा जाता है, और भूतों की उत्पत्ति करने वाला जो त्याग (कर्म) है, उसे कर्म कहते हैं।

👉 इन उत्तरों से स्पष्ट होता है कि ब्रह्म, आत्मा, और कर्म का आपस में गहरा संबंध है।


🔹 3️⃣ मृत्यु के समय भगवान का स्मरण और मोक्ष प्राप्ति

📌 3. मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने का महत्व (Verses 5-10)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति मृत्यु के समय जिस चीज़ का स्मरण करता है, वह उसी को प्राप्त करता है।
  • यदि कोई मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करता है, तो वह परमगति (मोक्ष) प्राप्त करता है।

📖 श्लोक (8.6):

"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥"

📖 अर्थ: हे अर्जुन! जो व्यक्ति मृत्यु के समय जिस भाव का स्मरण करता है, वह उसी को प्राप्त करता है।

👉 इसलिए, हमें सदैव भगवान के ध्यान में रहना चाहिए, ताकि मृत्यु के समय भी उनका स्मरण हो सके।


🔹 4️⃣ ओंकार और भगवान की भक्ति द्वारा मोक्ष

📌 4. ओंकार (ॐ) और भगवान का ध्यान (Verses 11-22)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति "ॐ" का जप करते हुए ध्यान करता है, वह परम धाम को प्राप्त करता है।
  • जो भगवान के धाम (सच्चिदानंद लोक) को प्राप्त करता है, वह फिर कभी जन्म-मरण के चक्र में नहीं आता।

📖 श्लोक (8.13):

"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥"

📖 अर्थ: जो व्यक्ति "ॐ" (एकाक्षर ब्रह्म) का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह परमगति को प्राप्त होता है।

👉 इसका अर्थ है कि यदि हम भगवान का स्मरण और "ॐ" का जप करें, तो हमें मोक्ष मिल सकता है।


🔹 5️⃣ दो पथ – एक मोक्ष का और दूसरा पुनर्जन्म का

📌 5. उत्तम और अधम मार्ग (Verses 23-28)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि मृत्यु के बाद दो मार्ग होते हैं:

1️⃣ उत्तरायण (देवयान मार्ग) – मोक्ष का मार्ग
✅ इसमें मृत्यु के बाद आत्मा ब्रह्मलोक या परमधाम को प्राप्त करती है और पुनर्जन्म नहीं लेती।

2️⃣ दक्षिणायन (पितृयान मार्ग) – पुनर्जन्म का मार्ग
✅ इसमें मृत्यु के बाद आत्मा पुनः जन्म लेती है और संसार के चक्र में फँस जाती है।

📖 श्लोक (8.26):

"शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥"

📖 अर्थ: ये दो मार्ग (शुक्ल और कृष्ण) सदा से हैं – एक से आत्मा मुक्त होकर परम धाम जाती है, और दूसरे से संसार में वापस आ जाती है।

👉 इसलिए, हमें उत्तरायण मार्ग अपनाकर मोक्ष की ओर बढ़ना चाहिए।


🔹 6️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने से मोक्ष प्राप्त होता है।
2. "ॐ" के जप से आत्मा को परमगति मिलती है।
3. भगवान को जानने के लिए भक्ति आवश्यक है।
4. मृत्यु के बाद दो मार्ग होते हैं – एक मोक्ष का और दूसरा पुनर्जन्म का।
5. भगवान के धाम को प्राप्त करने वाला पुनः जन्म नहीं लेता।


🔹 निष्कर्ष

1️⃣ अक्षर ब्रह्म योग में श्रीकृष्ण बताते हैं कि मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करना सबसे महत्वपूर्ण है।
2️⃣ "ॐ" का जप और भगवान की भक्ति से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
3️⃣ मृत्यु के बाद आत्मा दो मार्गों में से किसी एक को प्राप्त करती है – मोक्ष या पुनर्जन्म।
4️⃣ भगवान के धाम को प्राप्त करने वाले व्यक्ति को फिर कभी जन्म-मरण के चक्र में नहीं आना पड़ता।

शनिवार, 14 सितंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) सच्चे ज्ञान की प्राप्ति (श्लोक 31-34)

 भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) सच्चे ज्ञान की प्राप्ति (श्लोक 31-34) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 31

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥

अर्थ:
"अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म परम है, स्वभाव को आध्यात्म कहा गया है। भूतों (जीवों) की उत्पत्ति का कारण विसर्ग (त्याग या सृजन) है, जिसे कर्म कहा जाता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण ब्रह्म, आध्यात्म और कर्म का परिचय देते हैं।

  1. अक्षर ब्रह्म: यह परम तत्व है, जो अविनाशी और शाश्वत है।
  2. स्वभाव: आत्मा का स्वाभाविक गुण है, जो उसके आध्यात्मिक स्वरूप को दर्शाता है।
  3. कर्म: यह सृष्टि के सृजन और प्राणियों के जन्म का कारण है।

यह श्लोक ब्रह्म और आत्मा के गहरे संबंध को समझाने का प्रयास करता है।


श्लोक 32

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥

अर्थ:
"हे देहधारी श्रेष्ठ (अर्जुन), अधिभूत (भौतिक तत्व) नाशवान है, अधिदैव (देवता) पुरुष है, और अधियज्ञ मैं ही हूँ, जो इस शरीर में स्थित हूँ।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ तीन महत्वपूर्ण तत्वों का वर्णन करते हैं:

  1. अधिभूत: भौतिक संसार और तत्व, जो नाशवान हैं।
  2. अधिदैव: देवता, जो सृष्टि और जीवों के संचालन में भूमिका निभाते हैं।
  3. अधियज्ञ: भगवान स्वयं, जो यज्ञ और बलिदानों के अधिष्ठाता हैं।

यह श्लोक समझाता है कि भगवान ही यज्ञ के पीछे की दिव्य शक्ति हैं और वे प्रत्येक जीव के भीतर स्थित हैं।


श्लोक 33

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति मृत्यु के समय मुझे स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।"

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को यह बताने की कोशिश करते हैं कि मृत्यु के समय जो व्यक्ति भगवान का स्मरण करता है, वह भगवान की दिव्यता और शाश्वत स्वरूप को प्राप्त करता है। यह मोक्ष का मार्ग है। मृत्यु के समय मन की स्थिरता और भगवान का ध्यान महत्वपूर्ण है।


श्लोक 34

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, मृत्यु के समय जो भी भाव स्मरण करता हुआ व्यक्ति शरीर छोड़ता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है, क्योंकि वह उस भाव से सदैव जुड़ा रहता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि मृत्यु के समय व्यक्ति का अंतःकरण जिस भाव में होता है, वही उसके अगले जीवन का आधार बनता है। अतः जीवनभर भगवान के ध्यान और भक्ति में लगे रहना चाहिए ताकि मृत्यु के समय मन भगवान में स्थिर रहे और मोक्ष प्राप्त हो सके।


सारांश:

  1. अक्षर ब्रह्म शाश्वत और अविनाशी है, जबकि अधिभूत (भौतिक तत्व) नाशवान है।
  2. भगवान प्रत्येक जीव में अधियज्ञ के रूप में स्थित हैं।
  3. मृत्यु के समय भगवान का स्मरण मोक्ष का मुख्य मार्ग है।
  4. जीवनभर मन और ध्यान को भगवान में स्थिर रखने से मृत्यु के समय उनकी प्राप्ति संभव होती है।
  5. व्यक्ति जिस भाव के साथ जीवन जीता है, वही उसका अंतिम परिणाम और भविष्य निर्धारित करता है।

शनिवार, 7 सितंबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भक्तों की विशेषता और उनका प्रेम (श्लोक 23-30)

भागवत गीता: अध्याय 7 (ज्ञान-विज्ञान योग) भक्तों की विशेषता और उनका प्रेम (श्लोक 23-30) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 23

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥

अर्थ:
"उनकी बुद्धि कम है जो अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, क्योंकि उनके द्वारा प्राप्त फल अस्थायी होते हैं। जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरे भक्त मुझे प्राप्त होते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि अन्य देवताओं की पूजा भौतिक इच्छाओं को पूरा करती है, लेकिन वे अस्थायी होती हैं। भगवान की भक्ति व्यक्ति को भगवान तक पहुंचाती है, जो शाश्वत और सर्वोच्च फल है।


श्लोक 24

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥

अर्थ:
"जो अज्ञानी हैं, वे मुझे (भगवान को) अव्यक्त से व्यक्त हुआ मानते हैं। वे मेरे सर्वोच्च और अविनाशी स्वरूप को नहीं जानते।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के दिव्य और शाश्वत स्वरूप का वर्णन करता है। अज्ञानी लोग भगवान को केवल एक भौतिक व्यक्तित्व मानते हैं और उनके परम आत्मा स्वरूप को नहीं समझ पाते।


श्लोक 25

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥

अर्थ:
"मैं सबके लिए प्रकट नहीं हूँ, क्योंकि मैं अपनी योगमाया से ढका हुआ हूँ। यह मूढ़ (अज्ञानी) लोग मुझे अजन्मा और अविनाशी नहीं जानते।"

व्याख्या:
भगवान अपनी योगमाया के माध्यम से अपने दिव्य स्वरूप को छुपाते हैं। अज्ञानी लोग उनकी वास्तविकता को नहीं समझ पाते और उन्हें भौतिक सीमाओं में बांधकर देखते हैं।


श्लोक 26

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, मैं भूत, वर्तमान, और भविष्य के सभी प्राणियों को जानता हूँ। लेकिन कोई मुझे नहीं जानता।"

व्याख्या:
भगवान सर्वज्ञ हैं और समय के तीनों कालों (भूत, वर्तमान, भविष्य) को जानते हैं। लेकिन उनकी योगमाया के कारण, प्राणी उनकी वास्तविकता को समझने में असमर्थ हैं।


श्लोक 27

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥

अर्थ:
"हे भारत, इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वंद्वों के कारण, सभी प्राणी सृष्टि में भ्रमित हो जाते हैं।"

व्याख्या:
इच्छा (लालसा) और द्वेष (नफरत) के कारण प्राणी भौतिक संसार के मोह में फंसे रहते हैं। यह मोह उन्हें भगवान के वास्तविक स्वरूप को जानने से रोकता है।


श्लोक 28

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः॥

अर्थ:
"लेकिन जिनके पाप नष्ट हो चुके हैं और जिन्होंने पुण्य कर्म किए हैं, वे द्वंद्वों के मोह से मुक्त होकर दृढ़ निश्चय के साथ मेरी भक्ति करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान की भक्ति में आने के लिए पापों का नाश और मन की शुद्धि आवश्यक है। ऐसे व्यक्ति भगवान के प्रति समर्पित होकर द्वंद्वों से मुक्त हो जाते हैं।


श्लोक 29

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥

अर्थ:
"जो लोग बुढ़ापे और मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए मेरी शरण लेते हैं, वे ब्रह्म, आध्यात्मिक ज्ञान, और समस्त कर्मों के रहस्य को जानते हैं।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो लोग मोक्ष प्राप्ति की इच्छा रखते हैं और उनकी शरण में आते हैं, वे ब्रह्म और आत्मा के ज्ञान को समझते हैं और अपने कर्मों को समझदारी से करते हैं।


श्लोक 30

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः॥

अर्थ:
"जो लोग मुझे अधिभूत (भौतिक तत्व), अधिदैव (देवता), और अधियज्ञ (यज्ञ का अधिष्ठाता) के रूप में जानते हैं, वे मृत्यु के समय भी मुझे जानते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक उन लोगों का वर्णन करता है जो भगवान के व्यापक स्वरूप को समझते हैं। ऐसे व्यक्ति मृत्यु के समय भी भगवान का स्मरण करते हुए मोक्ष प्राप्त करते हैं।


सारांश:

  1. अन्य देवताओं की पूजा अस्थायी फल देती है, जबकि भगवान की भक्ति शाश्वत फल प्रदान करती है।
  2. भगवान योगमाया से ढके होते हैं, इसलिए अज्ञानी लोग उनके दिव्य स्वरूप को नहीं समझ पाते।
  3. इच्छा और द्वेष से प्राणी संसार के मोह में फंसे रहते हैं।
  4. पुण्य कर्म और पापों का नाश भगवान की भक्ति के लिए आवश्यक हैं।
  5. भगवान का व्यापक ज्ञान (अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ) समझकर मृत्यु के समय भी उन्हें प्राप्त किया जा सकता है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...