शनिवार, 27 अप्रैल 2024

भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) श्रीकृष्ण द्वारा सनातन ज्ञान का उपदेश (श्लोक 1-10)

 भागवत गीता: अध्याय 4 (ज्ञानयोग) श्रीकृष्ण द्वारा सनातन ज्ञान का उपदेश (श्लोक 1-10) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "मैंने इस अविनाशी योग को पहले सूर्य देव (विवस्वान) को सिखाया। विवस्वान ने इसे मनु को बताया और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को सिखाया।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञानयोग शाश्वत है और इसे युगों से पीढ़ी दर पीढ़ी महान आत्माओं को सिखाया गया है।


श्लोक 2

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥

अर्थ:
"इस प्रकार परंपरा के माध्यम से इस योग को राजर्षियों ने जाना। लेकिन समय के साथ, यह योग नष्ट हो गया, हे परंतप (अर्जुन)।"

व्याख्या:
ज्ञानयोग का महत्व राजर्षियों द्वारा समझा गया, लेकिन समय के साथ इसका सही अर्थ लुप्त हो गया। अब इसे पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है।


श्लोक 3

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥

अर्थ:
"आज मैंने तुम्हें वही पुरातन योग सिखाया है, क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो। यह महान रहस्य है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को इस ज्ञान का अधिकारी मानते हैं क्योंकि वह उनके प्रति भक्ति और मित्रता का भाव रखते हैं।


श्लोक 4

अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "आपका जन्म तो हाल का है, जबकि विवस्वान का जन्म बहुत पहले हुआ। फिर मैं कैसे मानूं कि आपने सबसे पहले यह योग सिखाया था?"

व्याख्या:
अर्जुन को श्रीकृष्ण के इस कथन पर संशय होता है। यह उनकी जिज्ञासा और ज्ञान प्राप्ति की इच्छा को दर्शाता है।


श्लोक 5

श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "हे अर्जुन, मेरे और तुम्हारे कई जन्म हुए हैं। मैं उन सभी को जानता हूँ, लेकिन तुम उन्हें नहीं जानते, हे परंतप।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि वे साक्षात ईश्वर हैं, जिनकी स्मृति और ज्ञान असीमित है। अर्जुन को यह आत्मा और परमात्मा के अंतर को समझाने के लिए कहा गया।


श्लोक 6

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥

अर्थ:
"यद्यपि मैं अजन्मा, अविनाशी और सभी प्राणियों का स्वामी हूँ, फिर भी अपनी माया (शक्ति) से मैं प्रकृति को अधीन कर जन्म लेता हूँ।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि उनका अवतार आत्मा के नियमों से मुक्त है। वे अपने इच्छानुसार माया का उपयोग करके जन्म लेते हैं।


श्लोक 7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

अर्थ:
"हे भारत, जब-जब धर्म का क्षय और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के अवतार का उद्देश्य समझाता है। जब समाज में धर्म कमजोर हो जाता है और अधर्म बढ़ने लगता है, तब वे अवतार लेकर संतुलन स्थापित करते हैं।


श्लोक 8

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

अर्थ:
"साधुओं की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनः स्थापना के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।"

व्याख्या:
भगवान का अवतार धर्म और न्याय की पुनर्स्थापना के लिए होता है। यह उनकी करुणा और दया का प्रतीक है।


श्लोक 9

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥

अर्थ:
"जो मेरे दिव्य जन्म और कर्म को यथार्थ में जानता है, वह इस शरीर को त्यागने के बाद पुनर्जन्म नहीं लेता और मेरी शरण में आता है।"

व्याख्या:
भगवान के दिव्य स्वरूप को जानने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।


श्लोक 10

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥

अर्थ:
"राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें मन लगाकर, ज्ञान और तपस्या द्वारा पवित्र हुए अनेक लोग मेरे स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि राग, भय और क्रोध को त्यागकर, तपस्या और ज्ञान के माध्यम से व्यक्ति भगवान की दिव्यता को प्राप्त कर सकता है।


सारांश:

  • श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञानयोग की परंपरा और उसके महत्व को समझाया।
  • उन्होंने बताया कि उनका अवतार धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिए होता है।
  • भगवान के दिव्य जन्म और कर्म को समझने से मोक्ष प्राप्त होता है।
  • राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर ज्ञान और तपस्या के माध्यम से भगवान की प्राप्ति संभव है।

शनिवार, 20 अप्रैल 2024

भगवद्गीता: अध्याय 4 - ज्ञानकर्मसंन्यास योग

भगवद गीता – चतुर्थ अध्याय: ज्ञानकर्मसंन्यास योग

(Jnana Karma Sannyasa Yoga – The Yoga of Knowledge and Renunciation of Action)

📖 अध्याय 4 का परिचय

ज्ञानकर्मसंन्यास योग भगवद गीता का चौथा अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को दिव्य ज्ञान (Jnana), कर्म का सही स्वरूप (Karma), और संन्यास (Sannyasa) का गूढ़ रहस्य समझाते हैं। इस अध्याय में श्रीकृष्ण स्वयं को ईश्वर के रूप में प्रकट करते हैं और बताते हैं कि उन्होंने गीता का ज्ञान सूर्य देव को दिया था, जिससे यह गुरु-शिष्य परंपरा में चला आ रहा है।

👉 मुख्य भाव:

  • कर्मयोग और ज्ञानयोग का संबंध
  • निष्काम कर्म और त्याग (संन्यास) का महत्व
  • ईश्वर का अवतार और धर्म की स्थापना
  • यज्ञ और आत्मज्ञान की महिमा

📖 श्लोक (4.7):

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥"

📖 अर्थ: जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।

👉 इस अध्याय में श्रीकृष्ण आत्मज्ञान, कर्मयोग और ईश्वर के अवतार का महत्व स्पष्ट करते हैं।


🔹 1️⃣ श्रीकृष्ण द्वारा दिव्य ज्ञान का वर्णन

📌 1. श्रीकृष्ण का दिव्य ज्ञान (Verses 1-10)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने यह ज्ञान पहले सूर्य देव (विवस्वान) को दिया, फिर यह गुरु-शिष्य परंपरा से राजा-ऋषियों को प्राप्त हुआ।
  • समय के साथ यह ज्ञान लुप्त हो गया, इसलिए अब वे इसे अर्जुन को दे रहे हैं।

📖 श्लोक (4.1):

"श्रीभगवानुवाच: इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥"

📖 अर्थ: श्रीकृष्ण बोले – यह अविनाशी योग मैंने पहले सूर्य (विवस्वान) को बताया, फिर उन्होंने मनु को बताया, और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को बताया।

👉 इससे पता चलता है कि भगवद गीता का ज्ञान बहुत प्राचीन और सनातन है।


🔹 2️⃣ भगवान के अवतार का रहस्य

📌 2. ईश्वर कब अवतार लेते हैं? (Verses 7-8)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि जब-जब अधर्म बढ़ता है और धर्म कमजोर पड़ता है, तब वे संसार में अवतरित होते हैं।

📖 श्लोक (4.8):

"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥"

📖 अर्थ: साधुजनों की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।

👉 यह श्लोक दर्शाता है कि भगवान का अवतार केवल दुष्टों के संहार के लिए नहीं, बल्कि धर्म को पुनर्स्थापित करने के लिए भी होता है।


🔹 3️⃣ ज्ञान और कर्म का संबंध

📌 3. कर्म का सही स्वरूप (Verses 13-15)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि उन्होंने चार वर्णों की रचना गुण और कर्म के आधार पर की है।
  • वे स्वयं किसी भी कर्म से बंधे नहीं हैं, क्योंकि वे निष्काम भाव से कर्म करते हैं।

📖 श्लोक (4.13):

"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥"

📖 अर्थ: चार वर्णों की रचना मैंने गुण और कर्म के आधार पर की है, लेकिन जान लो कि मैं इसका कर्ता होते हुए भी अकर्ता (असंग) हूँ।

👉 यहाँ कर्म करने का सिद्धांत बताया गया है – बिना आसक्ति के कर्म करना ही सच्चा योग है।


🔹 4️⃣ यज्ञ और आत्मज्ञान का महत्व

📌 4. यज्ञ के विभिन्न प्रकार (Verses 23-32)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि हर कार्य एक यज्ञ हो सकता है, यदि उसे सही भावना से किया जाए।
  • कुछ यज्ञ ज्ञान, ध्यान, जप, सेवा और स्वाध्याय के होते हैं।

📖 श्लोक (4.24):

"ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥"

📖 अर्थ: यज्ञ ब्रह्मस्वरूप है, उसकी आहुति ब्रह्मस्वरूप है, और उसे करने वाला भी ब्रह्मस्वरूप है। इसलिए ब्रह्मभाव से कर्म करने वाला ब्रह्म को प्राप्त करता है।

👉 इसका अर्थ है कि यदि सभी कर्म ईश्वर को अर्पित किए जाएँ, तो वे हमें मोक्ष की ओर ले जाते हैं।


🔹 5️⃣ निष्काम कर्मसंन्यास का रहस्य

📌 5. संन्यास और कर्मयोग का संतुलन (Verses 33-42)

  • श्रीकृष्ण बताते हैं कि ज्ञान से किया गया कर्म सर्वश्रेष्ठ है।
  • केवल संन्यास से मोक्ष नहीं मिलता, बल्कि ज्ञानयुक्त कर्म करना आवश्यक है।
  • ज्ञानी व्यक्ति ही इस संसार में बंधनों से मुक्त होता है।

📖 श्लोक (4.39):

"श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥"

📖 अर्थ: श्रद्धा रखने वाला, इंद्रियों को नियंत्रित करने वाला और साधनारत व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है। और ज्ञान प्राप्त कर शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त करता है।

👉 इसका अर्थ है कि केवल त्याग करने से मोक्ष नहीं मिलता, बल्कि ज्ञानयुक्त कर्म करने से ही मोक्ष संभव है।


🔹 6️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. कर्मयोग और ज्ञानयोग का संतुलन ही मोक्ष का मार्ग है।
2. ईश्वर अवतार लेकर धर्म की स्थापना करते हैं।
3. संसार में सभी कार्य एक यज्ञ के समान हैं, यदि वे समर्पण भाव से किए जाएँ।
4. केवल संन्यास से मोक्ष नहीं मिलता, बल्कि ज्ञानयुक्त कर्म से मोक्ष संभव है।
5. श्रद्धा और संयम से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, और ज्ञान से ही परम शांति मिलती है।

👉 यह अध्याय बताता है कि सच्चा संन्यास केवल त्याग में नहीं, बल्कि निष्काम कर्म और आत्मज्ञान में है।


🔹 निष्कर्ष

1️⃣ ज्ञानकर्मसंन्यास योग गीता का वह अध्याय है, जिसमें ज्ञान, कर्म, और संन्यास के सही स्वरूप की व्याख्या की गई है।
2️⃣ भगवान श्रीकृष्ण स्वयं को ईश्वर रूप में प्रकट करते हैं और बताते हैं कि वे धर्म की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं।
3️⃣ यज्ञ केवल अग्नि में आहुति देना नहीं, बल्कि हर निष्काम कर्म एक यज्ञ है।
4️⃣ सच्चा संन्यास केवल कर्मों का त्याग नहीं, बल्कि ज्ञानयुक्त कर्म करना है।
5️⃣ श्रद्धा, संयम और आत्मज्ञान से व्यक्ति परम शांति प्राप्त कर सकता है।

शनिवार, 13 अप्रैल 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) काम और क्रोध को नियंत्रित करने का उपाय (श्लोक 36-43)

 भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) काम और क्रोध को नियंत्रित करने का उपाय (श्लोक 36-43) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 36

अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे वार्ष्णेय (कृष्ण), मनुष्य किसके द्वारा प्रेरित होकर अनिच्छा के बावजूद पाप करता है, जैसे कि उसे बलपूर्वक विवश किया गया हो?"

व्याख्या:
अर्जुन यह जानना चाहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति गलत कार्य करना नहीं चाहता, तो वह किस कारण से ऐसा करता है। यह श्लोक मानव स्वभाव और पाप की प्रकृति पर प्रश्न उठाता है।


श्लोक 37

श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥

अर्थ:
भगवान ने कहा: "यह काम (इच्छा) और क्रोध है, जो रजोगुण से उत्पन्न होता है। यह महाभोगी और महापापी है। इसे इस संसार में अपना शत्रु समझो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण ने पाप का मूल कारण काम (इच्छा) और क्रोध को बताया। यह दोनों रजोगुण से उत्पन्न होते हैं और आत्मा को बंधन में डालते हैं।


श्लोक 38

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥

अर्थ:
"जैसे अग्नि धुएँ से, दर्पण मैल से, और भ्रूण गर्भाशय से ढका रहता है, वैसे ही कामना आत्मा को ढक लेती है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि कामना आत्मा के प्रकाश को ढक लेती है और व्यक्ति को उसके सच्चे स्वरूप का अनुभव करने से रोकती है।


श्लोक 39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पुरेणानलेन च॥

अर्थ:
"हे कौन्तेय, यह काम रूपी शत्रु, जो कभी संतुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान है, ज्ञान को ढक लेता है।"

व्याख्या:
कामना को संतुष्ट करना कठिन है, और यह आत्मज्ञान को बाधित करती है। यह आत्मा के विकास के मार्ग में सबसे बड़ा शत्रु है।


श्लोक 40

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥

अर्थ:
"इंद्रियाँ, मन और बुद्धि इस कामना के निवास स्थान कहे जाते हैं। यह इनके माध्यम से आत्मा को भ्रमित करके ज्ञान को ढक देती है।"

व्याख्या:
कामना इंद्रियों, मन और बुद्धि के माध्यम से कार्य करती है और व्यक्ति को भौतिक वस्तुओं में आसक्त कर देती है।


श्लोक 41

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥

अर्थ:
"इसलिए, हे भरतश्रेष्ठ, पहले इंद्रियों को नियंत्रित करके इस पापमय कामना का नाश करो, जो ज्ञान और विज्ञान दोनों को नष्ट कर देती है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण इंद्रियों को नियंत्रित करने पर बल देते हैं। इंद्रिय-नियंत्रण से काम और क्रोध पर विजय पाई जा सकती है।


श्लोक 42

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥

अर्थ:
"इंद्रियों को श्रेष्ठ कहा गया है, लेकिन मन इंद्रियों से श्रेष्ठ है। बुद्धि मन से भी श्रेष्ठ है, और आत्मा बुद्धि से परे है।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मा के पदानुक्रम को समझाता है। आत्मा सर्वोच्च है, और इसे पहचानने के लिए मन और बुद्धि को नियंत्रित करना आवश्यक है।


श्लोक 43

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥

अर्थ:
"इस प्रकार बुद्धि से परे आत्मा को जानकर, अपनी आत्मा के द्वारा अपने मन को स्थिर करो और इस कामना रूपी दुष्प्राप्य शत्रु को जीत लो, हे महाबाहु।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की महत्ता समझाते हैं। कामना पर विजय पाने के लिए आत्मज्ञान और आत्म-नियंत्रण आवश्यक है।


सारांश:

  • अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में श्रीकृष्ण बताते हैं कि पाप का मूल कारण काम (इच्छा) और क्रोध है।
  • यह कामना इंद्रियों, मन और बुद्धि में निवास करती है और आत्मा के ज्ञान को ढक लेती है।
  • इंद्रिय-नियंत्रण, आत्मज्ञान, और आत्म-नियंत्रण से इस शत्रु पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
  • व्यक्ति को आत्मा को समझकर, उसके श्रेष्ठ स्थान को पहचानकर, कामना पर विजय पानी चाहिए।


शनिवार, 6 अप्रैल 2024

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) इन्द्रियों का संयम और स्वार्थरहित कर्म (श्लोक 25-35)

भागवत गीता: अध्याय 3 (कर्मयोग) इन्द्रियों का संयम और स्वार्थरहित कर्म (श्लोक 25-35) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 25

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥

अर्थ:
"हे भारत, जैसे अज्ञानी लोग आसक्ति के साथ कर्म करते हैं, वैसे ही ज्ञानी लोग भी, परंतु बिना आसक्ति के, लोकसंग्रह (सामाजिक संतुलन) के लिए कर्म करते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि ज्ञानी व्यक्ति भी कर्म करते हैं, लेकिन उनका उद्देश्य समाज का कल्याण और प्रेरणा देना होता है, न कि व्यक्तिगत लाभ।


श्लोक 26

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥

अर्थ:
"ज्ञानी व्यक्ति को अज्ञानियों की बुद्धि का भ्रम नहीं करना चाहिए जो कर्म में आसक्त हैं। उसे स्वयं कर्म करते हुए उन्हें प्रेरित करना चाहिए।"

व्याख्या:
ज्ञानी को अज्ञानियों के कर्मों का तिरस्कार करने के बजाय, अपने आचरण से उन्हें सही मार्ग पर लाना चाहिए।


श्लोक 27

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥

अर्थ:
"प्रकृति के गुणों द्वारा सभी कर्म किए जाते हैं, लेकिन अहंकार से भ्रमित व्यक्ति सोचता है कि वह कर्ता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि सभी कर्म प्रकृति के गुणों (सत्व, रजस, तमस) से होते हैं। अहंकार से व्यक्ति यह मान लेता है कि वह स्वयं कर्ता है, जबकि वास्तविक कर्ता प्रकृति है।


श्लोक 28

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥

अर्थ:
"हे महाबाहु, तत्वज्ञानी व्यक्ति गुण और कर्म के भेद को समझते हैं और जानते हैं कि गुण (प्रकृति) गुणों में ही कार्य कर रहे हैं। इसलिए वह आसक्त नहीं होते।"

व्याख्या:
ज्ञानी व्यक्ति यह समझता है कि जो कुछ भी हो रहा है, वह प्रकृति के गुणों के आपसी संपर्क का परिणाम है। वह स्वयं को इनसे अलग मानता है।


श्लोक 29

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥

अर्थ:
"जो लोग प्रकृति के गुणों से मोहित होते हैं, वे गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं। ज्ञानी व्यक्ति को ऐसे अज्ञानी लोगों को विचलित नहीं करना चाहिए।"

व्याख्या:
ज्ञानी को अज्ञानी लोगों की आलोचना नहीं करनी चाहिए। उन्हें धीरे-धीरे सही मार्ग दिखाना चाहिए ताकि वे सत्य को समझ सकें।


श्लोक 30

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥

अर्थ:
"अपने सभी कर्म मुझमें अर्पित कर, अध्यात्मचेतना में स्थित होकर, निराश्रय और ममत्व रहित होकर, बिना किसी चिंता के युद्ध करो।"

व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्मयोग का मर्म समझाता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मों को ईश्वर को अर्पित कर बिना चिंता और आसक्ति के कार्य करने की शिक्षा देते हैं।


श्लोक 31

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥

अर्थ:
"जो मनुष्य मेरे इस मत का पालन श्रद्धा और बिना किसी ईर्ष्या के करते हैं, वे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।"

व्याख्या:
जो लोग भगवान के उपदेशों को श्रद्धा से स्वीकारते हैं और उनका पालन करते हैं, वे सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।


श्लोक 32

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥

अर्थ:
"जो मेरे इस मत का पालन नहीं करते और इसका तिरस्कार करते हैं, उन्हें अज्ञान से अंधे और विनाश को प्राप्त समझो।"

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि जो लोग उनके उपदेशों की अवहेलना करते हैं, वे आत्मज्ञान से वंचित रहते हैं और जीवन के उद्देश्य को समझने में असमर्थ होते हैं।


श्लोक 33

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥

अर्थ:
"ज्ञानी व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हैं। इसे दबाने से क्या लाभ होगा?"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि व्यक्ति अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अनुसार कार्य करता है। इसे नियंत्रित करने के बजाय, इसे सही दिशा में लगाना चाहिए।


श्लोक 34

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥

अर्थ:
"प्रत्येक इंद्रिय के विषय में राग (आसक्ति) और द्वेष (घृणा) होते हैं। मनुष्य को उनके वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों उसके मार्ग में बाधा डालते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक इंद्रिय-नियंत्रण की महत्ता को बताता है। राग और द्वेष को संतुलित करना आवश्यक है, क्योंकि ये आत्मिक उन्नति में बाधक होते हैं।


श्लोक 35

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥

अर्थ:
"अपना धर्म (कर्तव्य), चाहे वह दोषपूर्ण क्यों न हो, परधर्म (दूसरों का कर्तव्य) के पालन से श्रेष्ठ है। अपने धर्म में मरना भी श्रेष्ठ है, जबकि परधर्म भयावह होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक स्वधर्म के पालन की महत्ता को बताता है। हर व्यक्ति को अपनी प्रकृति और स्वभाव के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। दूसरों के कार्यों की नकल करना विनाशकारी हो सकता है।


सारांश:

  • ज्ञानी व्यक्ति को लोकसंग्रह के लिए कर्म करना चाहिए और दूसरों को प्रेरित करना चाहिए।
  • राग-द्वेष और आसक्ति को त्यागकर कर्म करना आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।
  • हर व्यक्ति को अपनी प्रकृति और कर्तव्य का पालन करना चाहिए, क्योंकि स्वधर्म का पालन ही कल्याणकारी है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...