शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

भगवद्गीता: अध्याय 9 - राजविद्या राजगुह्य योग

भगवद गीता – नवम अध्याय: राजविद्या राजगुह्य योग

(Rāja-Vidyā Rāja-Guhya Yoga – The Yoga of Royal Knowledge and Royal Secret)

📖 अध्याय 9 का परिचय

राजविद्या राजगुह्य योग भगवद गीता का नवम अध्याय है, जिसे "सर्वोच्च ज्ञान और महानतम रहस्य" कहा गया है। इसमें श्रीकृष्ण अपनी भक्ति की महिमा, अपनी सर्वव्यापकता, और अपनी करुणा को उजागर करते हैं।

👉 मुख्य भाव:

  • राजविद्या (सर्वोच्च ज्ञान) – भगवान की भक्ति ही सबसे महान ज्ञान है।
  • राजगुह्य (गोपनीयतम रहस्य) – भगवान की भक्ति सबसे गुप्त लेकिन सबसे आसान साधना है।
  • भगवान की सर्वव्यापकता – सबकुछ भगवान में स्थित है, लेकिन भगवान किसी से बंधे नहीं हैं।
  • भगवान की शरण लेने वाले भक्तों का कल्याण

📖 श्लोक (9.22):

"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥"

📖 अर्थ: जो भक्त अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हैं और मेरी भक्ति करते हैं, उनके योग (आवश्यकताओं की प्राप्ति) और क्षेम (जो कुछ उन्होंने प्राप्त किया है उसकी रक्षा) का दायित्व मैं स्वयं लेता हूँ।

👉 यह अध्याय हमें विश्वास दिलाता है कि जो भक्त पूर्ण समर्पण के साथ भगवान की शरण में आता है, उसकी रक्षा स्वयं भगवान करते हैं।


🔹 1️⃣ राजविद्या और राजगुह्य का अर्थ

📌 1. श्रीकृष्ण द्वारा सर्वोच्च ज्ञान का वर्णन (Verses 1-6)

  • श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वे उसे सबसे गोपनीय और पवित्र ज्ञान (राजविद्या) और रहस्य (राजगुह्य) देने जा रहे हैं।
  • यह ज्ञान केवल श्रद्धालु भक्तों को ही प्राप्त होता है, संशय करने वालों को नहीं।
  • भगवान ही इस पूरी सृष्टि के कारण हैं, लेकिन वे किसी भी वस्तु से बंधे नहीं हैं।

📖 श्लोक (9.4):

"मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥"

📖 अर्थ: यह संपूर्ण जगत मेरी अव्यक्त (अदृश्य) शक्ति से व्याप्त है। सभी जीव मुझमें स्थित हैं, परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।

👉 भगवान सृष्टि के कण-कण में व्याप्त हैं, फिर भी वे किसी से बंधे नहीं हैं।


🔹 2️⃣ भगवान की भक्ति का प्रभाव

📌 2. भक्ति सबसे श्रेष्ठ साधना है (Verses 7-12)

  • जो व्यक्ति भगवान को सच्चे प्रेम से भजता है, वह परम गति को प्राप्त करता है।
  • भगवान कहते हैं कि जो लोग उन्हें नहीं पहचानते, वे मोह (अज्ञान) के कारण उन्हें केवल एक साधारण मनुष्य समझते हैं।

📖 श्लोक (9.11):

"अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥"

📖 अर्थ: मूर्ख लोग मुझे सामान्य मनुष्य समझते हैं और मेरे परम दिव्य स्वरूप को नहीं पहचानते।

👉 इसका अर्थ यह है कि भगवान की भक्ति बिना अहंकार और श्रद्धा के संभव नहीं है।


🔹 3️⃣ भगवान के भक्त और उनकी कृपा

📌 3. जो भक्त भगवान को भजते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ हैं (Verses 13-19)

  • भगवान के सच्चे भक्त निरंतर उनकी भक्ति में लीन रहते हैं और उन्हें ही सर्वोच्च मानते हैं।
  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे ही सभी यज्ञों, तपस्याओं और साधनाओं का अंतिम फल हैं।

📖 श्लोक (9.14):

"सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥"

📖 अर्थ: मेरे सच्चे भक्त निरंतर मेरा कीर्तन करते हैं, दृढ़ संकल्प के साथ मेरी आराधना करते हैं और सदा मेरी भक्ति में लीन रहते हैं।

👉 भगवान कहते हैं कि सच्चा भक्त वही है जो प्रेमपूर्वक, निरंतर उनकी भक्ति करता है।


🔹 4️⃣ अनन्य भक्ति करने वालों की रक्षा भगवान स्वयं करते हैं

📌 4. भगवान स्वयं अपने भक्तों का कल्याण करते हैं (Verse 22)

  • जो लोग भगवान की अनन्य भक्ति करते हैं, उनकी सारी जिम्मेदारी भगवान स्वयं लेते हैं।
  • उन्हें न तो भौतिक चीजों की चिंता करनी चाहिए, न ही सुरक्षा की।

📖 श्लोक (9.22):

"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥"

📖 अर्थ: जो भक्त अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हैं और मेरी भक्ति करते हैं, उनके योग (आवश्यकताओं की प्राप्ति) और क्षेम (जो कुछ उन्होंने प्राप्त किया है उसकी रक्षा) का दायित्व मैं स्वयं लेता हूँ।

👉 भगवान अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और उन्हें जीवन में किसी चीज़ की कमी नहीं होने देते।


🔹 5️⃣ सभी लोग भगवान को प्राप्त कर सकते हैं

📌 5. भगवान की भक्ति के लिए कोई प्रतिबंध नहीं (Verses 23-34)

  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति उनकी भक्ति कर सकता है, चाहे वह किसी भी जाति, लिंग, या स्थिति में हो।
  • भक्ति के लिए केवल श्रद्धा और प्रेम की आवश्यकता होती है।
  • भगवान कहते हैं कि यदि कोई भक्त प्रेम से उन्हें एक फूल, फल, जल, या पत्ता अर्पित करता है, तो वे उसे सहर्ष स्वीकार करते हैं।

📖 श्लोक (9.26):

"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥"

📖 अर्थ: यदि कोई भक्त प्रेमपूर्वक मुझे पत्र (पत्ता), पुष्प (फूल), फल या जल अर्पित करता है, तो मैं उसे सहर्ष स्वीकार करता हूँ।

👉 भगवान बाहरी वस्तुओं से प्रभावित नहीं होते, बल्कि वे केवल प्रेम और भक्ति को ही स्वीकार करते हैं।


🔹 6️⃣ अध्याय से मिलने वाली शिक्षाएँ

📖 इस अध्याय में श्रीकृष्ण के उपदेश से हमें कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं:

1. भगवान की भक्ति ही सर्वोच्च ज्ञान (राजविद्या) और सबसे गुप्त रहस्य (राजगुह्य) है।
2. भगवान इस संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त हैं, लेकिन वे इससे बंधे नहीं हैं।
3. जो अनन्य भक्ति करता है, उसकी सारी जिम्मेदारी स्वयं भगवान लेते हैं।
4. भगवान को पाने के लिए जाति, धर्म या समाजिक स्थिति बाधा नहीं होती, केवल श्रद्धा और प्रेम चाहिए।
5. भगवान प्रेम से अर्पित की गई किसी भी वस्तु को स्वीकार करते हैं, चाहे वह छोटा ही क्यों न हो।


🔹 निष्कर्ष

1️⃣ राजविद्या राजगुह्य योग में श्रीकृष्ण बताते हैं कि भक्ति ही सर्वोच्च साधना है।
2️⃣ भगवान अपने भक्तों की रक्षा स्वयं करते हैं और उनके योग-क्षेम का दायित्व लेते हैं।
3️⃣ भगवान को केवल श्रद्धा, प्रेम, और समर्पण से प्राप्त किया जा सकता है।
4️⃣ भगवान हर व्यक्ति को स्वीकार करते हैं, चाहे वह किसी भी स्थिति में हो।

शनिवार, 19 अक्टूबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) परमधाम और सच्चे योगी का अंत (श्लोक 23-28)

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) परमधाम और सच्चे योगी का अंत (श्लोक 23-28) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 23

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥

अर्थ:
"हे भरतश्रेष्ठ, मैं अब तुम्हें वह समय बताने जा रहा हूँ, जिसे जानकर योगी पुनर्जन्म (आवृत्ति) से बचते हैं और जिस समय के अनुसार पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक जीवन और मृत्यु के चक्र से जुड़े समय के महत्व को दर्शाता है। श्रीकृष्ण समझा रहे हैं कि योगी किस समय पर भगवान के पास जाकर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होते हैं और किस समय पर पुनः जन्म लेते हैं।


श्लोक 24

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥

अर्थ:
"जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन के समय, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण (सूर्य के उत्तर की ओर जाने के छह महीने) के दौरान मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे ब्रह्मलोक जाते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक संकेत करता है कि यदि योगी शुभ समय (ज्योतिर्मय परिस्थितियों) में शरीर त्यागता है, तो वह ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। यह "ज्ञान और प्रकाश" के समय पर आधारित आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है।


श्लोक 25

धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥

अर्थ:
"जो योगी धूम, रात्रि, कृष्ण पक्ष, और दक्षिणायन (सूर्य के दक्षिण की ओर जाने के छह महीने) के दौरान शरीर त्यागते हैं, वे चंद्रलोक को प्राप्त करते हैं और पुनः जन्म लेते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक दर्शाता है कि अशुभ समय (धूम्र और अंधकारमय परिस्थितियाँ) में शरीर त्यागने वाले योगी चंद्रलोक (स्वर्गीय स्थान) में जाते हैं, लेकिन उन्हें पुनः जन्म लेना पड़ता है। यह समय भौतिक संसार में लौटने का प्रतीक है।


श्लोक 26

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्यया आवर्तते पुनः॥

अर्थ:
"शुक्ल (प्रकाश) और कृष्ण (अंधकार) – ये दो गत्याएँ सदा से मानी गई हैं। इनमें से एक (प्रकाश मार्ग) से आत्मा पुनर्जन्म से मुक्त हो जाती है, जबकि दूसरी (अंधकार मार्ग) से वह पुनः संसार में लौटती है।"

व्याख्या:
यह श्लोक दो प्रकार की यात्राओं का वर्णन करता है:

  1. शुक्ल मार्ग (देवयान): मोक्ष की ओर ले जाता है।
  2. कृष्ण मार्ग (पितृयान): पुनर्जन्म के चक्र में वापस लाता है।

यह व्यक्त करता है कि आत्मा की गति उसके ज्ञान और कर्मों पर निर्भर करती है।


श्लोक 27

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥

अर्थ:
"हे पार्थ, जो योगी इन दोनों मार्गों को जानता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता। इसलिए, हर समय योग में स्थित रहो।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को उपदेश देते हैं कि जो व्यक्ति प्रकाश और अंधकार की इन दोनों गत्याओं को समझता है, वह मृत्यु के समय भ्रमित नहीं होता। योग में स्थित रहकर व्यक्ति सही मार्ग चुन सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 28

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव।
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा।
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥

अर्थ:
"योगी वेदों, यज्ञों, तपस्याओं और दान से प्राप्त होने वाले सभी पुण्य फलों को पार कर जाता है और उस परम स्थान को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जो योगी भगवान का साक्षात्कार करता है, वह सभी सांसारिक पुण्य फलों (यज्ञ, दान, तपस्या) को पीछे छोड़कर परम धाम (भगवान के निवास) को प्राप्त करता है। यह दिखाता है कि भक्ति और योग भगवान तक पहुँचने का सर्वोच्च साधन है।


सारांश:

  1. शुक्ल मार्ग (प्रकाश) मोक्ष और ब्रह्मलोक तक ले जाता है, जबकि कृष्ण मार्ग (अंधकार) पुनर्जन्म के चक्र में वापस लाता है।
  2. योगी को इन दोनों मार्गों का ज्ञान होना चाहिए ताकि वह भ्रमित न हो।
  3. योग और भक्ति व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करते हैं, जो यज्ञ, तपस्या, और दान से भी अधिक श्रेष्ठ है।
  4. मृत्यु के समय योग में स्थित व्यक्ति भगवान के परम धाम को प्राप्त करता है।

शनिवार, 12 अक्टूबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) अक्षर ब्रह्म का ध्यान (श्लोक 17-22)

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) अक्षर ब्रह्म का ध्यान (श्लोक 17-22) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 17

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥

अर्थ:
"जो लोग ब्रह्मा के दिन और रात को समझते हैं, वे जानते हैं कि ब्रह्मा का एक दिन एक सहस्र युगों (चार युगों के हजार चक्र) के बराबर है, और उनकी रात भी इतनी ही लंबी होती है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के कालचक्र का वर्णन करता है। ब्रह्मा का एक दिन 1000 युगों (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, और कलियुग के 1000 चक्र) के बराबर होता है। यह समझ सृष्टि और प्रलय के ब्रह्मांडीय समय के गहरे विज्ञान को व्यक्त करती है।


श्लोक 18

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥

अर्थ:
"ब्रह्मा के दिन की शुरुआत में सभी प्राणी अव्यक्त (अदृश्य) से प्रकट होते हैं, और उनकी रात में, वे सभी पुनः उसी अव्यक्त में लीन हो जाते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि ब्रह्मा के दिन सृष्टि उत्पन्न होती है और उनकी रात में सब कुछ प्रलय (विनाश) में विलीन हो जाता है। यह संसार ब्रह्मा के दिन-रात के चक्र में निरंतर उत्पन्न और विनष्ट होता रहता है।


श्लोक 19

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥

अर्थ:
"हे पार्थ, वही प्राणियों का समूह बार-बार उत्पन्न होता है और रात्रि के समय प्रलय में लीन हो जाता है, तथा दिन के आगमन पर पुनः अवश्य प्रकट होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जीवों का जन्म और मृत्यु का यह चक्र ब्रह्मा के समय चक्र के अधीन होता है। यह सृष्टि बार-बार उत्पन्न होती है और फिर प्रलय में विलीन हो जाती है।


श्लोक 20

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥

अर्थ:
"उस अव्यक्त से परे एक और शाश्वत अव्यक्त भाव है, जो सभी प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।"

व्याख्या:
भगवान यहाँ बताते हैं कि भौतिक सृष्टि का अव्यक्त रूप तो नश्वर है, लेकिन उसके परे एक शाश्वत, दिव्य और अविनाशी स्वरूप (परमात्मा) है, जो कभी नष्ट नहीं होता। यही परम सत्य है।


श्लोक 21

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥

अर्थ:
"जो अव्यक्त और अक्षर (अविनाशी) कहा गया है, उसे ही परम गति कहा जाता है। जिसे प्राप्त करके प्राणी वापस नहीं लौटते, वही मेरी परम स्थिति है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भगवान का परम धाम (आध्यात्मिक लोक) शाश्वत है। उसे प्राप्त करने के बाद प्राणी जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं और भगवान के दिव्य धाम में स्थायी निवास करते हैं।


श्लोक 22

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥

अर्थ:
"हे पार्थ, वह परम पुरुष, जिसके भीतर सभी प्राणी स्थित हैं और जिसने इस सम्पूर्ण सृष्टि को व्याप्त कर रखा है, अनन्य भक्ति के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक अनन्य भक्ति के महत्व को दर्शाता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो भक्त अनन्य भाव से उनकी आराधना करता है, वही उनके शाश्वत धाम को प्राप्त कर सकता है। भगवान ही समस्त सृष्टि के आधार हैं।


सारांश:

  1. ब्रह्मा का दिन और रात सृष्टि के जन्म और प्रलय का कारण है।
  2. सृष्टि बार-बार उत्पन्न और नष्ट होती है, लेकिन इसके परे एक शाश्वत सत्य (भगवान) है।
  3. भगवान का धाम अविनाशी और शाश्वत है। इसे प्राप्त करने के बाद प्राणी संसार के चक्र से मुक्त हो जाता है।
  4. भगवान को प्राप्त करने का मार्ग अनन्य भक्ति है, जो सभी भौतिक इच्छाओं से परे है।
  5. भगवान समस्त सृष्टि में व्याप्त हैं और सभी प्राणियों के भीतर स्थित हैं।

शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) मृत्यु के बाद के जीवन और योग की प्रक्रिया (श्लोक 8-16)

भागवत गीता: अध्याय 8 (अक्षर-ब्रह्म योग) मृत्यु के बाद के जीवन और योग की प्रक्रिया (श्लोक 8-16) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 8

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अभ्यास योग के द्वारा अनन्य भक्ति और एकाग्र मन से परम पुरुष (भगवान) का चिंतन करता है, वह उस दिव्य स्वरूप को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान की प्राप्ति के लिए अनन्य भक्ति और अभ्यास का महत्व बताता है। एकाग्र मन और लगातार अभ्यास से भगवान का स्मरण साकार होता है और व्यक्ति परम लक्ष्य तक पहुँचता है।


श्लोक 9

कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति परम कवि (सर्वज्ञ), पुरातन, समस्त प्राणियों का शासक, अणु से भी सूक्ष्म, सृष्टि का धारण करने वाला, अचिंत्य रूप, सूर्य के समान प्रकाशमान और अज्ञान के अंधकार से परे भगवान का स्मरण करता है, वह उन्हें प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के दिव्य गुणों को उजागर करता है। वे सर्वज्ञ, शाश्वत और समस्त ब्रह्मांड का आधार हैं। उनका स्मरण व्यक्ति को अज्ञान से परे ले जाकर दिव्यता तक पहुँचाता है।


श्लोक 10

प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥

अर्थ:
"मृत्यु के समय, जो व्यक्ति योग बल और भक्ति से मन को स्थिर कर, भौहों के मध्य में प्राण को केंद्रित करता है, वह उस दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि मृत्यु के समय योग, भक्ति और ध्यान का सही उपयोग व्यक्ति को परमात्मा तक ले जाता है। मन और प्राण को नियंत्रित करके भगवान का स्मरण करना मोक्ष का मार्ग है।


श्लोक 11

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥

अर्थ:
"जो अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म को वेदज्ञानी वर्णन करते हैं, जिसे वीतराग योगी प्राप्त करते हैं और जिसकी प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है, उस पद (परम स्थिति) को मैं संक्षेप में बताने जा रहा हूँ।"

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के उस शाश्वत स्वरूप को प्रस्तुत करता है, जो ज्ञानियों, योगियों और तपस्वियों का परम लक्ष्य है। यह ब्रह्म की दिव्यता और उसके प्राप्ति मार्ग का परिचय है।


श्लोक 12

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥

अर्थ:
"सभी इंद्रियों को संयमित करके, मन को हृदय में स्थिर करके, और प्राण को सिर के मध्य में स्थित करके, योगधारण करने वाला व्यक्ति भगवान का साक्षात्कार करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक योग की गहन प्रक्रिया का वर्णन करता है। इंद्रियों का संयम, मन की स्थिरता और प्राण का उचित स्थान पर नियंत्रण योग की सफलता के लिए आवश्यक हैं।


श्लोक 13

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति 'ओम' (एक अक्षर ब्रह्म) का उच्चारण करते हुए और मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक "ओम" के महत्व को दर्शाता है। मृत्यु के समय भगवान का स्मरण और "ओम" का उच्चारण व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करता है। "ओम" ब्रह्म का प्रतीक है।


श्लोक 14

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति अनन्य भक्ति के साथ सतत मेरा स्मरण करता है, उसके लिए मैं आसानी से प्राप्त हो जाता हूँ, क्योंकि वह सदा मुझसे जुड़ा रहता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहाँ भक्ति योग की महिमा का वर्णन करते हैं। जो व्यक्ति अपने मन को भगवान में स्थिर रखता है, वह उनकी कृपा से आसानी से भगवान को प्राप्त कर सकता है।


श्लोक 15

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥

अर्थ:
"जो महात्मा मुझे प्राप्त करते हैं, वे फिर से इस दुःखमय और अस्थायी संसार में जन्म नहीं लेते। वे परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त कर लेते हैं।"

व्याख्या:
यह श्लोक मोक्ष की महिमा को दर्शाता है। भगवान का साक्षात्कार प्राप्त करने वाले महात्मा संसार के जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं और शाश्वत शांति में स्थित रहते हैं।


श्लोक 16

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, ब्रह्मलोक तक सभी लोक पुनर्जन्म के अधीन हैं। लेकिन जो मुझे प्राप्त करते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि भौतिक संसार के सभी लोक, चाहे वे ब्रह्मलोक ही क्यों न हों, जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं हैं। केवल भगवान की प्राप्ति से ही इस चक्र से मुक्ति संभव है।


सारांश:

  1. भगवान का ध्यान और "ओम" का उच्चारण व्यक्ति को मृत्यु के समय मोक्ष दिलाता है।
  2. योग और भक्ति से मन को नियंत्रित करके भगवान की दिव्यता को प्राप्त किया जा सकता है।
  3. भगवान की प्राप्ति से जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है।
  4. ब्रह्मलोक सहित सभी भौतिक लोक अस्थायी हैं।
  5. अनन्य भक्ति और भगवान का स्मरण मोक्ष का सर्वोच्च मार्ग है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...