शनिवार, 26 दिसंबर 2020

समत्व का संदेश

 समत्व का संदेश भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में दिया है, जो जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन, धैर्य, और शांति बनाए रखने की प्रेरणा देता है। समत्व का अर्थ है हर स्थिति में समान दृष्टिकोण और मानसिक संतुलन बनाए रखना, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों। श्रीकृष्ण का यह उपदेश जीवन में निरंतर शांति, संतुलन, और आंतरिक शक्ति प्राप्त करने का मार्ग है।

1. समत्व का वास्तविक अर्थ

  • समत्व का अर्थ होता है "समान दृष्टिकोण", यानी किसी भी परिस्थिति या स्थिति में समान रूप से प्रतिक्रिया देना। यह आत्म-संयम और आध्यात्मिक संतुलन को बनाए रखने का एक तरीका है।
  • समत्व का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति हर स्थिति में उदासीन रहे, बल्कि यह है कि उसे दुख और सुख दोनों को एक समान दृष्टिकोण से देखना चाहिए, और न तो अत्यधिक खुशी में उलझना चाहिए, न ही दुख में पूरी तरह से डूबना चाहिए।

2. भगवद्गीता में समत्व का संदेश

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के संवाद में समत्व का महत्व बताया:

  • "समं पश्यन्नि हं भगवान्" (भगवद्गीता 2.14)
    • श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि जो व्यक्ति किसी भी स्थिति में शांति बनाए रखता है, वह वास्तविक रूप से बुद्धिमान होता है। वह जीवन की हर घटना को भगवान के आदेश के रूप में स्वीकार करता है।
  • "योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।" (भगवद्गीता 2.47)
    • श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह उपदेश दिया कि वह अपने कर्मों को योग (ध्यान और समर्पण) के साथ करे, बिना किसी व्यक्तिगत लाभ की इच्छा के। यही है समत्व का सिद्धांत, कि परिणाम के बारे में चिंतित हुए बिना अपने कार्यों को धर्म के अनुसार निष्पक्ष रूप से करें।

3. समत्व का अभ्यास

श्रीकृष्ण का समत्व का संदेश हमें यह सिखाता है कि जीवन में:

  • सुख और दुख दोनों को समान रूप से देखना चाहिए।
  • हमें न तो सुख के समय में घमंड करना चाहिए, न ही दुख के समय में निराश होना चाहिए।
  • व्यक्ति को कर्म में लगे रहना चाहिए, लेकिन परिणाम से अलग रहकर।
  • हर परिस्थिति में धैर्य बनाए रखना चाहिए और अपने मन को शांति से भरपूर रखना चाहिए।

4. समत्व का अभ्यास कैसे करें

  • आध्यात्मिक ध्यान: ध्यान और साधना के माध्यम से व्यक्ति अपने मन को शांत और नियंत्रित कर सकता है, जिससे वह किसी भी स्थिति में समत्व बनाए रख सकता है।
  • सकारात्मक सोच: हर घटना को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखना चाहिए, ताकि हम उसे मानसिक शांति के साथ स्वीकार कर सकें।
  • वास्तविकता को समझना: यह समझना जरूरी है कि सुख और दुख, दोनों ही अस्थिर हैं, और जीवन के हर क्षण में बदलाव होता है।
  • स्वीकार्यता: जो कुछ भी हो रहा है, उसे पूरी तरह से स्वीकार करना चाहिए, यह जानते हुए कि यह भी एक अस्थायी स्थिति है।

5. समत्व और योग

श्रीकृष्ण के अनुसार योग और समत्व एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। योग का अर्थ केवल शारीरिक आसन नहीं, बल्कि मानसिक और आत्मिक संतुलन भी है। समत्व वही स्थिति है जब हम योग के माध्यम से मानसिक और शारीरिक शांति प्राप्त करते हैं।

  • कर्मयोग: अपनी जिम्मेदारियों को बिना किसी स्वार्थ के पूरा करना।
  • भक्तियोग: ईश्वर के प्रति निरंतर भक्ति और समर्पण में रहना।
  • ज्ञानयोग: आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान की ओर अग्रसर होना।

6. समत्व और सफलता

जो व्यक्ति समत्व का अभ्यास करता है, वह कभी भी अत्यधिक खुशी या अत्यधिक दुख में नहीं डूबता। इस प्रकार, वह हर स्थिति में अपनी मानसिक शांति और संतुलन बनाए रखता है, जो उसे अधिक स्थिर और दृढ़ बनाता है। ऐसे व्यक्ति की मानसिक स्थिति अधिक सशक्त होती है और वह जीवन में किसी भी चुनौती का सामना दृढ़ता से कर सकता है।


निष्कर्ष

समत्व का संदेश भगवान श्रीकृष्ण का वह अद्भुत उपदेश है, जो हमें जीवन में संतुलन, शांति और मानसिक दृढ़ता बनाए रखने की प्रेरणा देता है। समत्व का अभ्यास करते हुए हम अपने कार्यों को निष्ठा और ईश्वर के प्रति समर्पण से कर सकते हैं, और जीवन में आने वाली किसी भी स्थिति को बिना विक्षोभ के स्वीकार कर सकते हैं। यह जीवन को शांति और आनंद से भर देता है, जिससे व्यक्ति आंतरिक संतुलन और सच्ची सुख-शांति प्राप्त करता है।

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

आत्मा का अमरत्व

 आत्मा का अमरत्व भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों में एक महत्वपूर्ण विषय है, जिसे उन्होंने भगवद्गीता में विस्तार से समझाया। श्रीकृष्ण ने यह बताया कि आत्मा न तो उत्पन्न होती है, न नष्ट होती है; यह शाश्वत, अजर-अमर और अक्रियात्मक है। आत्मा का अमरत्व जीवन और मृत्यु से परे है, और इसका अस्तित्व सदैव रहेगा।

आत्मा के अमरत्व के बारे में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता में जो उपदेश दिया, वह न केवल शारीरिक जीवन और मृत्यु के बारे में है, बल्कि यह आत्मा के वास्तविक स्वरूप और उसकी शाश्वतता की समझ को भी प्रस्तुत करता है।


1. आत्मा का शाश्वत स्वरूप

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के 2.20 श्लोक में कहा:

"न जायते म्रियते वा कदाचि नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।"

अर्थात:

  • आत्मा न कभी जन्म लेती है, न कभी मरती है।
  • आत्मा शाश्वत और अजन्मा है, यह न किसी शरीर के मरने से मरती है, न किसी नए शरीर के जन्म से जन्मती है।
  • आत्मा का कोई अंत नहीं है, यह अनादि और अनन्त है।

यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि आत्मा निरंतर रहती है, चाहे शरीर का जीवन समाप्त हो जाए। आत्मा का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता।


2. आत्मा का रूप और परिवर्तन

श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि आत्मा का रूप कभी बदलता नहीं है, बल्कि यह केवल शरीर में निवास करती है और जब शरीर नष्ट होता है, तो आत्मा नए शरीर में प्रवेश करती है। यह शरीर के जैसे पदार्थों में परिवर्तन की प्रक्रिया की तरह है।

"वसांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथाशरीराणि विहाय जीर्णा न्यानि संयाति नवानि देही।" (भगवद्गीता 2.22)

अर्थात:

  • जैसे मनुष्य पुराने कपड़े छोड़कर नए कपड़े पहनता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर में प्रवेश करती है।
  • यह प्रक्रिया जीवन के प्रत्येक पुनः जन्म के दौरान होती है, और आत्मा का वास्तविक स्वरूप शाश्वत और अपरिवर्तनीय रहता है।

3. आत्मा के अमरत्व का दर्शन

आत्मा का अमरत्व जीवन और मृत्यु के पार है। शरीर मरता है, लेकिन आत्मा शाश्वत रहती है, और यह प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान रहती है। श्रीकृष्ण के अनुसार, आत्मा का उद्देश्य केवल शरीर में रहने का नहीं है, बल्कि यह अपनी वास्तविकता को पहचानने के लिए समय-समय पर विभिन्न शरीरों में प्रवेश करती है।


4. आत्मा और परमात्मा

आत्मा का अमरत्व सिर्फ जीवन और मृत्यु से जुड़ा नहीं है, बल्कि यह परमात्मा से भी जुड़ा है। श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि आत्मा परमात्मा का अंश होती है। जब आत्मा परमात्मा के साथ जुड़ती है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

श्रीकृष्ण कहते हैं:
"ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मन:षष्ठानि संस्थायानि शरीरेषु नद्यन्ति।" (भगवद्गीता 15.7)

अर्थात:

  • आत्मा परमात्मा का अंश है, और इसे अनंत समय से शरीरों में रहकर कर्मों के अनुसार अनुभव प्राप्त होते हैं।
  • जब आत्मा परमात्मा के साथ एकाकार होती है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, यानी संसार के बंधनों से मुक्ति मिलती है।

5. आत्मा का उद्देश्य और मोक्ष

आत्मा का मुख्य उद्देश्य अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना और परमात्मा के साथ मिलन करना है। जब व्यक्ति अपने कर्मों को धर्म, सत्य और आत्मिक उन्नति के मार्ग पर करता है, तो वह आत्मा के अमरत्व को अनुभव करता है और मोक्ष की प्राप्ति के लिए तैयार होता है।

"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।" (भगवद्गीता 11.54)

अर्थात:

  • जो व्यक्ति हर स्थान पर ईश्वर को देखता है और ईश्वर को हर जगह देखता है, वह आत्मा के अमरत्व को समझ लेता है।
  • ऐसे व्यक्ति का नाश नहीं होता, क्योंकि वह आत्मा की शाश्वतता को पहचान लेता है और ईश्वर के साथ एकाकार होता है।

निष्कर्ष

आत्मा का अमरत्व यह सिद्धांत जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने का मार्ग है। श्रीकृष्ण ने यह बताया कि आत्मा शाश्वत है, शरीर नश्वर है, और हमारा मुख्य उद्देश्य आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानना है। आत्मा का अमरत्व यह सिखाता है कि हम केवल शरीर नहीं हैं, बल्कि एक शाश्वत और दिव्य अंश हैं, जो ईश्वर के साथ एकात्मता की ओर बढ़ता है। इस ज्ञान के साथ हम जीवन के उद्देश्य को समझ सकते हैं और आत्मा की शुद्धि की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं।

शनिवार, 12 दिसंबर 2020

धर्म और अधर्म का ज्ञान

 धर्म और अधर्म का ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उपदेशों में अत्यंत महत्वपूर्ण रूप से दिया है, विशेष रूप से भगवद्गीता में। यह सिद्धांत जीवन के प्रत्येक पहलू को नियंत्रित करता है और व्यक्ति को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। धर्म और अधर्म केवल धार्मिक या आध्यात्मिक शब्द नहीं हैं, बल्कि ये जीवन के सामाजिक, नैतिक और सांस्कृतिक पहलुओं से जुड़े हुए हैं।

1. धर्म का अर्थ

धर्म का सामान्य अर्थ "सत्य का पालन", "कर्तव्य", या "नैतिकता" है। यह वह रास्ता है जो जीवन को उच्चतम उद्देश्य की ओर ले जाता है। धर्म वह मार्ग है, जो व्यक्ति को आत्मा के सत्य, ईश्वर के साथ संबंध, और समाज के प्रति कर्तव्यों का पालन करने की प्रेरणा देता है।

धर्म का पालन करने से:

  • समाज में शांति और सद्भाव रहता है।
  • व्यक्ति का जीवन संतुलित और खुशहाल होता है।
  • आत्मा की उन्नति होती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

धर्म के कुछ प्रमुख पहलू:

  1. सत्य और ईमानदारी: जीवन में सत्य का पालन और ईमानदारी से कार्य करना।
  2. समाज के प्रति कर्तव्य: परिवार, समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करना।
  3. प्रेम और करुणा: दूसरों के प्रति प्रेम और सहानुभूति रखना।
  4. न्याय और समानता: हर व्यक्ति के साथ समानता का व्यवहार करना और न्याय का पालन करना।

2. अधर्म का अर्थ

अधर्म वह मार्ग है जो सत्य, नैतिकता, और सामाजिक कर्तव्यों से दूर ले जाता है। यह वह मार्ग है, जहां व्यक्ति स्वार्थ, हिंसा, अन्याय, असत्य, और पाप में लिप्त होता है। अधर्म के रास्ते पर चलने से समाज में अशांति और बुराई फैलती है और व्यक्ति का जीवन दुखमय और असंतुलित हो जाता है।

अधर्म के कुछ प्रमुख पहलू:

  1. झूठ बोलना: अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए झूठ बोलना।
  2. हिंसा और अत्याचार: किसी भी रूप में हिंसा या अत्याचार करना।
  3. स्वार्थ और लोभ: केवल अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का शोषण करना।
  4. न्याय का उल्लंघन: बिना कारण किसी को नुकसान पहुँचाना और न्याय की अवहेलना करना।
  5. आत्मनिर्भरता की कमी: दूसरों पर निर्भर रहकर अपने कार्यों का निष्पादन करना।

3. धर्म और अधर्म का अंतर

श्रीकृष्ण ने गीता में यह स्पष्ट किया कि धर्म और अधर्म के बीच अंतर केवल बाहरी कार्यों से नहीं, बल्कि आंतरिक भावनाओं और इरादों से होता है।

  • धर्म वही है जो सत्य, नैतिकता और समाज के हित के लिए किया जाता है।
  • अधर्म वही है जो व्यक्ति अपने स्वार्थ और झूठ के लिए करता है, जिससे समाज और आत्मा दोनों को हानि पहुँचती है।

4. धर्म और अधर्म का मार्गदर्शन

भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म और अधर्म के बारे में अर्जुन को स्पष्ट रूप से समझाया:

  • धर्म वह है जो हमें आत्मा की शुद्धि, सत्य के मार्ग पर चलने, और समाज के साथ सह-अस्तित्व में रहने की प्रेरणा देता है।
  • अधर्म वह है जो हमें आत्मा के अस्तित्व, समाज की शांति, और ईश्वर के आदेशों से विमुख करता है।

5. महाभारत में धर्म और अधर्म

महाभारत का युद्ध धर्म और अधर्म का संघर्ष था। इस युद्ध में कौरवों का आचरण अधर्म था, जबकि पांडवों का आचरण धर्म के अनुरूप था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह समझाया कि उसे अपने धर्म का पालन करना चाहिए, चाहे परिणाम जो भी हो।

  • कौरवों का अधर्म: कौरवों ने अन्याय, झूठ और हिंसा का सहारा लिया। द्रौपदी का अपमान और पांडवों को वनवास में भेजने के बाद उनका उद्देश्य केवल स्वार्थ था, जिससे धर्म का उल्लंघन हुआ।
  • पांडवों का धर्म: पांडवों ने हमेशा धर्म के रास्ते पर चलने की कोशिश की, और श्रीकृष्ण ने उन्हें धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करने का आदेश दिया।

6. श्रीकृष्ण का संदेश

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा:

  • धर्म की रक्षा के लिए भगवान स्वंय भी अवतार लेते हैं और अधर्म का नाश करते हैं।
  • "धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।"
  • श्रीकृष्ण ने बताया कि जीवन में किसी भी व्यक्ति को अपने कर्तव्यों (धर्म) का पालन करना चाहिए और अधर्म से दूर रहना चाहिए।

7. धर्म और अधर्म का आज के जीवन में महत्व

  • आध्यात्मिकता: धर्म का पालन करते हुए व्यक्ति आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानता है और आत्मा की शुद्धि होती है।
  • सामाजिक ताना-बाना: धर्म के पालन से समाज में शांति, समृद्धि और न्याय का स्थापना होती है।
  • व्यक्तिगत विकास: धर्म व्यक्ति को सच्चे जीवन के उद्देश्य की ओर मार्गदर्शन करता है, जबकि अधर्म से व्यक्ति का मानसिक और आत्मिक पतन होता है।

निष्कर्ष

धर्म और अधर्म का ज्ञान व्यक्ति को अपने जीवन में सही और गलत के बीच अंतर करने की क्षमता देता है। श्रीकृष्ण के अनुसार, धर्म का पालन करना ही जीवन का सर्वोत्तम मार्ग है, और अधर्म से दूर रहना चाहिए, क्योंकि अधर्म व्यक्ति और समाज दोनों के लिए विनाशकारी होता है। धर्म, सत्य, और न्याय के मार्ग पर चलकर ही हम जीवन के उच्चतम उद्देश्य, मोक्ष, को प्राप्त कर सकते हैं।

शनिवार, 5 दिसंबर 2020

कर्म का सिद्धांत

 कर्म का सिद्धांत भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों का महत्वपूर्ण हिस्सा है और यह उनके जीवन का केंद्रीय विषय भी है। श्रीकृष्ण ने कर्म के बारे में गीता में विस्तार से बताया और यह सिद्धांत जीवन के सभी पहलुओं में उपयोगी है। कर्म का सिद्धांत न केवल धर्म के पालन की दिशा दिखाता है, बल्कि यह व्यक्ति को मानसिक शांति, संतुलन और आत्मनिर्भरता की ओर भी मार्गदर्शन करता है।

कर्म का सिद्धांत: मुख्य बातें


1. कर्म का अर्थ

  • कर्म (Action) का मतलब किसी कार्य या क्रिया से है, जिसे हम अपने दैनिक जीवन में करते हैं। यह शरीर, मन, और वचन के माध्यम से हो सकता है।
  • हर व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य कर्म कहलाता है, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, दुनिया में या आंतरिक रूप से।

2. कर्म और फल का संबंध

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" (भगवद्गीता 2.47)

  • श्रीकृष्ण ने गीता में यह स्पष्ट किया कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फल पर नहीं।
  • व्यक्ति को अपने कर्म करने चाहिए, लेकिन उसका फल ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए।
  • इसका मतलब यह है कि हम अपने प्रयासों को पूरी निष्ठा और समर्पण से करें, लेकिन सफलता या असफलता पर अधिक ध्यान न दें। फल का वितरण ईश्वर के हाथ में होता है।

3. निष्काम कर्म

"निष्काम कर्म" का अर्थ है बिना किसी व्यक्तिगत लाभ की इच्छा के कार्य करना।

  • श्रीकृष्ण ने बताया कि जो कर्म हम बिना किसी स्वार्थ के, केवल अपने धर्म के पालन के लिए करते हैं, वही सच्चा कर्म है।
  • निष्काम कर्म से मनुष्य आत्मा को शुद्ध करता है और यह उसे मोक्ष (आध्यात्मिक मुक्ति) की दिशा में अग्रसर करता है।
  • उदाहरण: जैसे अर्जुन को युद्ध में अपने कर्तव्यों का पालन करना था, बिना यह सोचे कि वह क्या प्राप्त करेगा।

4. कर्म और योग

  • श्रीकृष्ण ने कर्मयोग की बात की, जिसमें व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर करता है।
  • यह कर्मों का ऐसा मार्ग है, जिसमें कार्य करते हुए भी व्यक्ति का मन संतुलित रहता है और वह किसी भी भौतिक सुख या दुख से प्रभावित नहीं होता।
  • कर्मयोग का अभ्यास करते हुए व्यक्ति अपनी मानसिक स्थिति को स्थिर बनाए रखता है और उसे सांसारिक बंधनों से मुक्ति मिलती है।

5. कर्म का कर्ता

  • कर्म के कर्ता के रूप में व्यक्ति का अहम योगदान होता है, लेकिन उसे यह समझना चाहिए कि वह ईश्वर के हाथों का एक उपकरण है।
  • श्रीकृष्ण ने गीता में यह बताया कि कर्म का वास्तविक कर्ता ईश्वर है, और मनुष्य केवल एक माध्यम है।
  • "ईश्वर की इच्छा" के अनुसार ही कार्य होते हैं, और मनुष्य को इस उच्च उद्देश्य का अनुसरण करना चाहिए।

6. धर्म के अनुसार कर्म

  • श्रीकृष्ण ने सिखाया कि हमें अपने स्वधर्म (अपने कर्तव्य) का पालन करना चाहिए।
  • प्रत्येक व्यक्ति का धर्म उसके स्वभाव, शिक्षा, और समाज में उसकी स्थिति के आधार पर निर्धारित होता है।
  • उदाहरण के रूप में अर्जुन को युद्ध करना था, जबकि भिक्षु का धर्म भिक्षाटन होता है।
  • व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करते हुए अपने कर्मों में निष्ठा और ईमानदारी रखनी चाहिए।

7. कर्म का फल और समय

  • श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि कर्म का फल समय के साथ मिलता है और कभी तुरंत नहीं।
  • किसी व्यक्ति को तुरंत पुरस्कार या दंड नहीं मिलता, लेकिन उसे अपने कर्मों के फल की प्रतीक्षा करनी चाहिए।
  • यह सिद्धांत कर्मफल (कर्म का परिणाम) के माध्यम से सिखाता है कि जीवन में अच्छे या बुरे कर्मों का प्रभाव समय के साथ सामने आता है।

8. कर्म से मोक्ष की प्राप्ति

  • श्रीकृष्ण ने कहा कि निष्काम कर्म ही मोक्ष की ओर ले जाता है।
  • अगर कोई व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित करके करता है, तो वह सांसारिक बंधनों से मुक्त हो सकता है।
  • मोक्ष पाने के लिए मनुष्य को अपने कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए, बल्कि उन कर्मों को सही तरीके से करना चाहिए।

निष्कर्ष

कर्म का सिद्धांत भगवान श्रीकृष्ण के जीवन और उपदेशों का केंद्रीय हिस्सा है। यह हमें यह सिखाता है कि कर्मों का परिणाम हमारे विचारों और इरादों पर निर्भर करता है। श्रीकृष्ण का संदेश है कि हमें अपने कर्मों को धर्म, निष्काम भाव और समर्पण से करना चाहिए, जिससे न केवल हमें मानसिक शांति मिलती है, बल्कि हम जीवन के उच्चतम उद्देश्य, मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...