शनिवार, 28 नवंबर 2020

श्री कृष्ण और सुदामा की कहानी

 श्री कृष्ण और सुदामा की कहानी 

भगवान श्री कृष्ण की एक बहुत ही प्रसिद्ध और प्रेरणादायक कथा है, जो उनके अनंत प्रेम, त्याग और मित्रता के गुणों को दर्शाती है। यह कहानी हमें यह सिखाती है कि सच्चे मित्र की दोस्ती बिना किसी अपेक्षा के होती है, और भगवान अपने भक्तों की भक्ति और सच्चे प्रेम के बदले उन्हें कभी निराश नहीं करते।


श्री कृष्ण और सुदामा की कहानी का सारांश:

1. सुदामा का प्रारंभिक जीवन:

  • सुदामा का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, और वे बहुत ही गरीब थे। उनकी पत्नी भी गरीब थी, लेकिन फिर भी दोनों ने हमेशा संतुष्ट और संतुष्ट रहने की कोशिश की।
  • सुदामा का जीवन अत्यंत साधारण था, लेकिन वे अपने ईश्वर, श्री कृष्ण के प्रति असीम श्रद्धा रखते थे। वे भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त थे।
  • सुदामा की एक बहुत पुरानी मित्रता श्री कृष्ण के साथ थी, जो उनकी बाल्यकाल की यादों से जुड़ी हुई थी। जब वे दोनों गोकुल में छोटे थे, तो साथ में खेलते थे, और श्री कृष्ण ने सुदामा से वचन लिया था कि वे जब भी उन्हें बुलाएँगे, तो वे उनकी सहायता के लिए आएंगे।

2. श्री कृष्ण का उद्धारक रूप:

  • एक दिन, सुदामा की पत्नी ने उन्हें भगवान श्री कृष्ण के पास जाने और उनसे मदद लेने के लिए कहा। क्योंकि वे गरीबी के कारण भिक्षाटन करने में भी असमर्थ थे।
  • सुदामा की पत्नी ने उनसे कहा कि भगवान श्री कृष्ण का दर्शन प्राप्त करने से उनका जीवन सफल हो जाएगा और वे श्री कृष्ण से कुछ भोजन या धन प्राप्त करके वापस आएंगे।
  • सुदामा पहले तो संकोच करते हैं, लेकिन अंत में पत्नी के आग्रह पर वे श्री कृष्ण के पास जाने का निर्णय लेते हैं।
  • सुदामा के पास यात्रा के लिए केवल कुछ मुट्ठी चिउड़े थे, जिन्हें वह श्री कृष्ण को भेंट देने के लिए ले जाते हैं।

3. द्वारका पहुंचना:

  • सुदामा अपने कठिन रास्ते पर चलते हुए द्वारका पहुंचे, जहाँ भगवान श्री कृष्ण रहते थे।
  • द्वारका में प्रवेश करते समय, सुदामा बहुत गरीब और साधारण कपड़े पहने हुए थे, जिससे वह भव्य महलों में अपने आप को असामान्य महसूस करते थे।
  • जब वे श्री कृष्ण के महल पहुंचे, तो द्वारपालों ने उनका तिरस्कार किया और उन्हें अंदर नहीं जाने दिया, लेकिन सुदामा के नाम का उल्लेख होते ही भगवान श्री कृष्ण स्वयं महल से बाहर आए।
  • श्री कृष्ण ने सुदामा का स्वागत किया और उन्हें गले से लगा लिया। उन्होंने सुदामा के पैरों को धोकर उन्हें धोकर अपने महल में आमंत्रित किया।

4. सुदामा की भिक्षाटन की दीन-हीन अवस्था:

  • भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा से पूछा कि वे कहाँ से आए हैं और क्यों आए हैं।
  • सुदामा ने उन्हें बताया कि वे बहुत गरीब हैं और भगवान श्री कृष्ण के पास आने के लिए वे अपने जीवन की कठिनाइयों को पार करते हुए आए हैं।
  • श्री कृष्ण ने देखा कि सुदामा के पास भगवान को भेंट देने के लिए केवल कुछ मुट्ठी चिउड़े थे। उन्होंने वह चिउड़े ले लिए और वे उन्हें भगवान श्री कृष्ण के भोजन में मिला दिया।

5. श्री कृष्ण का वरदान:

  • भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा की सच्ची भक्ति और प्रेम को समझा। उन्होंने तुरंत अपनी कृपा से सुदामा को धन्य बना दिया।
  • श्री कृष्ण ने सुदामा से कहा कि वे उनके पुराने मित्र हैं और इसलिए उनकी सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने सुदामा को ऐश्वर्य, धन और सुख-समृद्धि से परिपूर्ण किया।
  • सुदामा को बहुत सारे रत्न, आभूषण, धन और सुख-समृद्धि से भरपूर घर मिला।

6. सुदामा का वापस लौटना:

  • सुदामा जब द्वारका से लौटे, तो उन्होंने देखा कि उनका घर और जीवन पूरी तरह बदल चुका था। उनका घर अब रत्नों और सोने से भरा हुआ था।
  • वह बहुत प्रसन्न और आभारी हो गए, और भगवान श्री कृष्ण की स्तुति करते हुए धन्यवाद अर्पित किया।

कहानी से शिक्षा:

  1. सच्ची मित्रता:
    श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता बिना किसी स्वार्थ के थी। यह दर्शाता है कि सच्चे मित्र कभी एक-दूसरे से कुछ नहीं चाहते, बल्कि एक-दूसरे के सुख-दुःख में सहभागी होते हैं।

  2. भगवान की कृपा:
    श्री कृष्ण ने सुदामा की भक्ति, श्रद्धा और प्रेम को स्वीकार किया और उन्हें अपनी अनंत कृपा से धन्य बना दिया। इससे यह संदेश मिलता है कि भगवान अपने सच्चे भक्तों का कभी तिरस्कार नहीं करते और उनकी भक्ति के बदले उन्हें आशीर्वाद देते हैं।

  3. धन और भक्ति का संबंध:
    यह कहानी यह भी सिखाती है कि भक्ति और विश्वास के सामने धन का कोई मूल्य नहीं होता। सुदामा गरीब थे, लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने उनके भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें अपार धन और सुख दिया।


श्री कृष्ण और सुदामा की यह कहानी यह दर्शाती है कि भगवान अपने भक्तों के प्रति न केवल अपने प्रेम और समर्थन का प्रदर्शन करते हैं, बल्कि उनकी भक्ति का प्रतिफल भी उन्हें देते हैं।

शनिवार, 21 नवंबर 2020

यदुवंश का अंत भगवान श्रीकृष्ण के जीवन का एक महत्वपूर्ण और गंभीर प्रसंग

 यदुवंश का अंत भगवान श्रीकृष्ण के जीवन का एक महत्वपूर्ण और गंभीर प्रसंग है। यह घटना हमें यह समझाने का प्रयास करती है कि संसार में कोई भी शक्तिशाली वंश या व्यक्ति, चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो, जब अहंकार और अधर्म के मार्ग पर चलता है, तो उसका पतन निश्चित है। यदुवंश का विनाश ईश्वर की लीला और प्रकृति के चक्र का हिस्सा था।


1. गांधारी का शाप

  • महाभारत के युद्ध के बाद जब दुर्योधन की मृत्यु हुई, तो उसकी माता गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया।
  • गांधारी ने कहा कि यदि श्रीकृष्ण चाहते, तो युद्ध को रोका जा सकता था।
  • उन्होंने शाप दिया कि जैसे कौरव वंश नष्ट हुआ, वैसे ही यदुवंश भी आपसी संघर्ष से नष्ट हो जाएगा।
  • श्रीकृष्ण ने गांधारी के शाप को सहर्ष स्वीकार किया और इसे धर्मचक्र का हिस्सा बताया।

2. यदुवंशियों का अहंकार और पतन

  • महाभारत के युद्ध के बाद यदुवंशियों में शक्ति और संपत्ति के कारण घमंड बढ़ गया।
  • उनके अंदर विनम्रता और धर्म का अभाव हो गया।
  • यदुवंशियों के बीच आपसी झगड़े और असहमति बढ़ने लगी।

3. ऋषियों का शाप

  • एक बार यदुवंश के कुछ युवकों ने महर्षि दुर्वासा, वशिष्ठ, और नारद जैसे ऋषियों के साथ मजाक किया।
  • उन्होंने एक युवक को महिला के रूप में सजाकर ऋषियों से पूछा कि उनके गर्भ से कौन जन्म लेगा।
  • ऋषियों ने क्रोधित होकर शाप दिया कि यह गर्भ (जो वास्तव में एक मूसल में बदल गया) यदुवंश का विनाश करेगा।
  • यदुवंशी इस शाप को हल्के में ले गए और मूसल को पीसकर समुद्र में फेंक दिया।

4. प्रभास क्षेत्र में वंश का नाश

  • समुद्र में फेंका गया मूसल पीसकर तिनकों में बदल गया, और उन तिनकों ने एक दिन यदुवंश के विनाश में प्रमुख भूमिका निभाई।
  • एक दिन यदुवंशी प्रभास क्षेत्र में उत्सव मना रहे थे।
  • शराब के नशे में उनके बीच विवाद शुरू हो गया।
  • आपसी झगड़ा इतना बढ़ गया कि उन्होंने एक-दूसरे को पीट-पीटकर मार डाला।
  • मूसल के तिनके हथियार बन गए, और उन्होंने उसी से एक-दूसरे को नष्ट कर दिया।

5. बलराम का समाधि ग्रहण

  • यदुवंश के विनाश के बाद भगवान बलराम ने अपना शरीर त्याग दिया।
  • वे समुद्र के किनारे ध्यानमग्न होकर अपनी आत्मा को त्यागकर सर्प (शेषनाग) के रूप में अपने दिव्य लोक चले गए।

6. श्रीकृष्ण का देह त्याग

  • यदुवंश का विनाश होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने प्रभास क्षेत्र में एक वृक्ष के नीचे योगमुद्रा में ध्यानमग्न होकर अपने जीवन का समापन किया।
  • जरा नामक शिकारी ने उनकी एड़ी में तीर मारा, और श्रीकृष्ण ने देह त्याग कर वैकुंठ लौट गए।

7. यदुवंश के पतन का आध्यात्मिक संदेश

  • अहंकार का विनाश: यदुवंशियों के अंत का मुख्य कारण उनका अहंकार और धर्म से विचलन था।
  • प्रकृति का चक्र: हर वंश और शक्ति का उत्थान और पतन निश्चित है।
  • संयम और विनम्रता: शक्ति और समृद्धि के साथ विनम्रता और धर्म का पालन आवश्यक है।
  • ईश्वर की योजना: यह घटना यह दर्शाती है कि हर कार्य ईश्वर की योजना का हिस्सा है।

8. नए युग की शुरुआत

  • यदुवंश के अंत के साथ द्वापर युग का समापन हुआ।
  • इसके बाद कलियुग का आरंभ हुआ, जो धर्म और अधर्म के बीच संतुलन बनाए रखने का युग है।

निष्कर्ष

यदुवंश का अंत एक शिक्षाप्रद घटना है, जो बताती है कि शक्ति, संपत्ति, और अहंकार से विनाश निश्चित है। यह घटना श्रीकृष्ण की लीला का हिस्सा थी, जो मानव जीवन को धर्म, संयम, और विनम्रता का महत्व सिखाती है। यदुवंश का विनाश यह भी दर्शाता है कि सृष्टि में हर घटना ईश्वर के नियोजन का हिस्सा है।

शनिवार, 14 नवंबर 2020

श्रीकृष्ण का मोक्ष और देह त्याग

 श्रीकृष्ण का मोक्ष और देह त्याग एक महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक प्रसंग है। उनके जीवन की अंतिम घटना भी उनके जीवन का सार प्रस्तुत करती है, जिसमें धर्म, सत्य, और कर्म के प्रति उनकी निष्ठा परिलक्षित होती है।


1. यदुवंश का अंत

  • महाभारत युद्ध के बाद श्रीकृष्ण ने यदुवंश को उजड़ते हुए देखा।
  • गांधारी के शाप और यदुवंश के बढ़ते अहंकार के कारण आपसी कलह ने वंश का विनाश कर दिया।
  • श्रीकृष्ण ने इसे प्रकृति का नियम मानते हुए स्वीकार किया और इसे धर्मचक्र का हिस्सा बताया।

2. प्रभास क्षेत्र में निवास

  • यदुवंश के विनाश के बाद श्रीकृष्ण ने अपने अंतिम दिन प्रभास क्षेत्र (वर्तमान गुजरात) में बिताने का निर्णय लिया।
  • उन्होंने सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर योगनिद्रा में प्रवेश किया।

3. जरा नामक शिकारी का प्रसंग

  • जब श्रीकृष्ण एक वृक्ष के नीचे योगमुद्रा में ध्यानमग्न थे, तब जरा नामक शिकारी ने उनकी बाईं एड़ी पर तीर चलाया।
  • जरा ने उन्हें हिरण समझकर तीर मारा था।
  • तीर उनके शरीर के उसी स्थान पर लगा जहां उन्हें महाभारत के युद्ध के समय गांधारी के शाप के कारण एक कमजोर बिंदु के रूप में चिह्नित किया गया था।

4. जरा का पश्चाताप और क्षमा

  • जरा ने अपने अपराध का एहसास होते ही भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी।
  • श्रीकृष्ण ने उसे तुरंत क्षमा कर दिया और कहा कि यह घटना उनके पृथ्वी पर अवतार समाप्त करने का साधन थी।
  • उन्होंने उसे बताया कि यह ईश्वर की योजना का हिस्सा था।

5. देह त्याग

  • श्रीकृष्ण ने योगमुद्रा में ध्यान करते हुए अपनी लीला समाप्त की।
  • उन्होंने अपनी आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप, अर्थात् विष्णु के रूप में लौटा लिया।
  • उनके शरीर को देह मानने वाले लोग इसे अंत समझ सकते हैं, लेकिन यह उनके दिव्य स्वरूप की लीला का समापन था।

6. मोक्ष का संदेश

श्रीकृष्ण का देह त्याग इस बात का प्रतीक है कि:

  1. आत्मा अमर है: देह नश्वर है, लेकिन आत्मा शाश्वत है।
  2. कर्म और धर्म का पालन: अपने जीवन में कर्म और धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है।
  3. संसार के बंधनों से मुक्ति: सांसारिक कर्तव्यों को पूर्ण कर मनुष्य ईश्वर में विलीन हो सकता है।
  4. निष्काम जीवन: श्रीकृष्ण ने स्वयं को कभी भी सांसारिक मोह या अहंकार से नहीं जोड़ा।

7. पृथ्वी से विष्णु रूप में वापसी

  • श्रीकृष्ण ने पृथ्वी पर विष्णु के आठवें अवतार के रूप में अपने कर्तव्यों को पूर्ण किया।
  • उन्होंने अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना की, और फिर अपने लोक (वैकुंठ) में लौट गए।

8. श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ उनके मोक्ष में भी परिलक्षित होती हैं

  • क्षमा और करुणा: उन्होंने शिकारी जरा को तुरंत क्षमा कर दिया।
  • संतुलन: उन्होंने अपने जीवन का हर कार्य संतुलन और धर्म के अनुरूप किया।
  • अहंकार का त्याग: उन्होंने अपने जीवन और मृत्यु को भी ईश्वर की योजना के अनुसार स्वीकार किया।

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण का मोक्ष और देह त्याग यह सिखाता है कि जीवन का उद्देश्य धर्म का पालन, सत्य की रक्षा, और सांसारिक मोह से मुक्त होकर आत्मा की पूर्णता प्राप्त करना है। उनका जीवन और मृत्यु दोनों ही मानव जाति के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन हैं।

शनिवार, 7 नवंबर 2020

भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ

 भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ मानव जीवन को दिशा देने वाली और जीवन के सभी पहलुओं को स्पर्श करने वाली हैं। उनके उपदेशों का सार भगवद्गीता, महाभारत, और उनकी विभिन्न लीलाओं में मिलता है। ये शिक्षाएँ न केवल आध्यात्मिक, बल्कि सांसारिक जीवन के लिए भी प्रासंगिक हैं।


1. कर्म का सिद्धांत

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"

  • श्रीकृष्ण ने सिखाया कि मनुष्य को केवल अपने कर्म करने का अधिकार है, लेकिन कर्म के फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।
  • जीवन में लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करें और फल के बारे में चिंता छोड़ दें।

2. धर्म और अधर्म का ज्ञान

  • धर्म का पालन करना जीवन का मूल कर्तव्य है।
  • अधर्म के रास्ते पर चलने वाले का अंत निश्चित है, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो।
  • धर्म की रक्षा के लिए कर्म करना आवश्यक है, जैसा कि उन्होंने अर्जुन को युद्ध में प्रेरित किया।

3. आत्मा का अमरत्व

"न जायते म्रियते वा कदाचित्।"

  • आत्मा न जन्म लेती है और न मरती है। यह अमर और अविनाशी है।
  • मृत्यु केवल शरीर का अंत है, आत्मा का नहीं।
  • यह शिक्षा भय, शोक और मोह से मुक्ति का मार्ग दिखाती है।

4. समत्व का संदेश

"योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।"

  • जीवन में सफलता और असफलता, सुख और दुःख में समान भाव रखना चाहिए।
  • समत्व योग का अभ्यास करना ही सच्चा धर्म है।

5. भक्ति और शरणागति

"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।"

  • भगवान की शरण में जाने से सभी पापों का नाश होता है।
  • भक्ति योग से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
  • भक्ति में प्रेम, समर्पण और विश्वास का होना आवश्यक है।

6. स्वधर्म का पालन

"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।"

  • प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वधर्म (स्वयं के कर्तव्यों) का पालन करना चाहिए, चाहे वह कठिन ही क्यों न हो।
  • दूसरों के धर्म का अनुकरण करना हानिकारक हो सकता है।

7. अहंकार का त्याग

  • अहंकार विनाश का कारण है।
  • श्रीकृष्ण ने सिखाया कि विनम्रता, क्षमा और दूसरों के प्रति करुणा का भाव ही सच्चा गुण है।
  • अपने अहंकार को त्यागकर ईश्वर की महिमा को स्वीकार करना चाहिए।

8. संगति का महत्व

  • संगति का प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर पड़ता है।
  • सज्जनों की संगति (सत्संग) से जीवन में सकारात्मकता और उन्नति आती है।

9. योग का महत्व

"योगः कर्मसु कौशलम्।"

  • श्रीकृष्ण ने कर्मयोग, ज्ञानयोग, और भक्तियोग का संदेश दिया।
  • उन्होंने बताया कि योग का अर्थ केवल ध्यान नहीं, बल्कि जीवन में कर्म करते हुए ध्यानस्थ रहना है।

10. मोह और आसक्ति से मुक्ति

  • मोह और आसक्ति मनुष्य के ज्ञान को ढक देती है।
  • जीवन में निर्लिप्त भाव से कर्म करने की शिक्षा दी।
  • जैसे कमल का फूल जल में रहकर भी उससे अलग रहता है, वैसे ही मनुष्य को सांसारिक कार्यों में निर्लिप्त रहना चाहिए।

11. परिवार और समाज के प्रति जिम्मेदारी

  • श्रीकृष्ण ने सिखाया कि अपने परिवार और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना महत्वपूर्ण है।
  • व्यक्ति को अपने हित से पहले समाज और धर्म का हित देखना चाहिए।

12. सत्य और न्याय की स्थापना

  • सत्य और न्याय की विजय अनिवार्य है।
  • अधर्म, अन्याय, और अहंकार का अंत निश्चित है।
  • धर्मयुद्ध (धर्म के लिए युद्ध) में भाग लेना कर्तव्य है।

13. सर्व धर्म समभाव

  • सभी धर्म समान हैं, और सबमें एक ही ईश्वर का निवास है।
  • किसी भी व्यक्ति के प्रति भेदभाव नहीं करना चाहिए।

14. प्रकृति और सृष्टि का सम्मान

  • श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पूजा के माध्यम से यह सिखाया कि प्रकृति का सम्मान करना चाहिए।
  • मनुष्य और प्रकृति का संतुलन जीवन के लिए आवश्यक है।

15. आध्यात्मिक स्वतंत्रता

  • व्यक्ति अपने कर्म, भक्ति और ज्ञान के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।
  • किसी भी धर्म या परंपरा से बंधे बिना आत्मा की मुक्ति संभव है।

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण की शिक्षाएँ आज भी मानव जीवन को सही दिशा दिखाने वाली हैं। उन्होंने धर्म, भक्ति, और कर्म का ऐसा मार्ग प्रस्तुत किया, जो न केवल मोक्ष प्राप्ति का साधन है, बल्कि जीवन की सभी समस्याओं का समाधान भी। उनकी शिक्षाएँ हर व्यक्ति के जीवन में प्रेरणा का स्रोत हैं।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...