शनिवार, 27 जुलाई 2024

भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) योग में विफलता और पुनर्जन्म (श्लोक 33-45)

भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) योग में विफलता और पुनर्जन्म (श्लोक 33-45) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 33

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥

अर्थ:
अर्जुन ने कहा: "हे मधुसूदन, जो योग आपने समानता के साथ (समभाव में) बताया है, मैं इसमें स्थिरता नहीं देख पा रहा हूँ क्योंकि मन बहुत चंचल है।"

व्याख्या:
अर्जुन को योग का अभ्यास कठिन लगता है क्योंकि उनका मानना है कि मन का चंचल स्वभाव इसे स्थिर नहीं रहने देता। वह इस संदर्भ में अपनी शंका व्यक्त कर रहे हैं।


श्लोक 34

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥

अर्थ:
"हे कृष्ण, मन बहुत ही चंचल, अशांत, बलवान और दृढ़ है। इसे वश में करना मैं वायु को रोकने के समान कठिन मानता हूँ।"

व्याख्या:
अर्जुन मन की चंचलता और बलशाली स्वभाव को समझाते हैं और इसे नियंत्रित करने को कठिन बताते हैं। यह ध्यान साधना के सबसे बड़े अवरोध को रेखांकित करता है।


श्लोक 35

श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: हे महाबाहु (अर्जुन), निःसंदेह मन चंचल और नियंत्रण में कठिन है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण ने अर्जुन की शंका को स्वीकार किया और समाधान दिया कि अभ्यास (ध्यान और योग) और वैराग्य (आसक्ति का त्याग) से मन को नियंत्रित किया जा सकता है।


श्लोक 36

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥

अर्थ:
"जिसका मन असंयमित है, उसके लिए योग कठिन है। लेकिन जिसने मन को वश में कर लिया है और प्रयास करता है, वह उचित साधनों से योग को प्राप्त कर सकता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि योग का अभ्यास करने के लिए आत्मसंयम और प्रयत्न अनिवार्य है। संयम और समर्पण के बिना योग संभव नहीं है।


श्लोक 37

अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥

अर्थ:
अर्जुन ने पूछा: "हे कृष्ण, यदि कोई व्यक्ति श्रद्धा के साथ योग का अभ्यास करे लेकिन प्रयास में असफल हो जाए और मन योग में स्थिर न कर सके, तो उसकी क्या गति होती है?"

व्याख्या:
अर्जुन की यह शंका उन लोगों के लिए है जो योग का अभ्यास करते हैं लेकिन पूर्ण सिद्धि प्राप्त नहीं कर पाते। यह प्रश्न आत्मा की स्थिति और उसकी यात्रा के संदर्भ में है।


श्लोक 38

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पतिः॥

अर्थ:
"हे महाबाहु, क्या वह व्यक्ति दोनों ओर से भ्रष्ट हो जाता है, जैसे बादल से अलग हुआ टुकड़ा नष्ट हो जाता है, और ब्रह्म के मार्ग में स्थिर न रहकर भ्रमित हो जाता है?"

व्याख्या:
अर्जुन का डर है कि योग में असफल व्यक्ति सांसारिक सुखों का भी आनंद नहीं ले पाता और आत्मिक उन्नति से भी वंचित हो जाता है।


श्लोक 39

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥

अर्थ:
"हे कृष्ण, कृपया मेरे इस संदेह को पूरी तरह से दूर करें। आपके अलावा इस संदेह को दूर करने वाला और कोई नहीं हो सकता।"

व्याख्या:
अर्जुन श्रीकृष्ण से स्पष्ट उत्तर चाहते हैं क्योंकि वह मानते हैं कि केवल श्रीकृष्ण ही सत्य का ज्ञान देने में सक्षम हैं।


श्लोक 40

श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: हे पार्थ, न इस लोक में और न परलोक में, उस योगाभ्यासी का विनाश होता है। कल्याणकारी कर्म करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि योग का अभ्यास करने वाला व्यक्ति चाहे सिद्धि प्राप्त न करे, फिर भी उसका प्रयास व्यर्थ नहीं जाता। ऐसे व्यक्ति को सदैव शुभ फल प्राप्त होता है।


श्लोक 41

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥

अर्थ:
"योगाभ्यासी जो पूर्णता प्राप्त नहीं करता, वह पुण्यकर्मियों के लोकों में जाकर लंबे समय तक सुख भोगता है और फिर पवित्र और संपन्न परिवार में जन्म लेता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि योगाभ्यासी को उच्च जन्म प्राप्त होता है, जिससे वह अपने पूर्व अभ्यास को फिर से शुरू कर सके।


श्लोक 42

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥

अर्थ:
"या फिर वह बुद्धिमान योगियों के कुल में जन्म लेता है। ऐसा जन्म इस संसार में अत्यंत दुर्लभ है।"

व्याख्या:
योगाभ्यासी के लिए योगियों के परिवार में जन्म लेना विशेष सौभाग्य की बात है, क्योंकि यह आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करता है।


श्लोक 43

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥

अर्थ:
"वहाँ वह अपने पूर्व जन्म की बुद्धि और प्रवृत्ति को प्राप्त करता है और पुनः सिद्धि के लिए प्रयास करता है, हे कुरुनंदन।"

व्याख्या:
यह श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्पष्ट करता है। योगाभ्यासी अपने पिछले जन्म की साधना को आगे बढ़ाता है और योग सिद्धि की ओर अग्रसर होता है।


श्लोक 44

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥

अर्थ:
"अपने पूर्व अभ्यास के कारण वह अनायास ही योग की ओर आकर्षित होता है। योग के जिज्ञासु भी वेदों के कर्मकांड से परे चले जाते हैं।"

व्याख्या:
पिछले जन्म की साधना व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से योग की ओर खींचती है। ऐसे लोग सांसारिक कर्मकांडों से ऊपर उठकर आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।


श्लोक 45

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥

अर्थ:
"प्रयासरत और पापों से शुद्ध हुआ योगी अनेक जन्मों की सिद्धि के बाद परमगति को प्राप्त करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि योग की सिद्धि एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। निरंतर अभ्यास और पवित्रता से व्यक्ति अंततः मोक्ष प्राप्त करता है।


सारांश:

  1. अर्जुन ने मन की चंचलता के कारण योग के अभ्यास में कठिनाई की शंका व्यक्त की।
  2. श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया कि योगाभ्यासी का प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता।
  3. योग में असफल व्यक्ति अगले जन्म में श्रेष्ठ परिवार में जन्म लेकर अपनी साधना जारी रखता है।
  4. पूर्व जन्म का अभ्यास व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से योग की ओर प्रेरित करता है।
  5. निरंतर प्रयास और पवित्रता से योगी अंततः परमगति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।

शनिवार, 20 जुलाई 2024

भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) ध्यानस्थ योगी के लक्षण (श्लोक 18-32)

भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) ध्यानस्थ योगी के लक्षण (श्लोक 18-32) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 18

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥

अर्थ:
"जब योगी का चित्त पूर्ण रूप से नियंत्रित होकर आत्मा में स्थिर हो जाता है और वह सभी कामनाओं से मुक्त हो जाता है, तब उसे योग में स्थिर कहा जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक योग की परिपूर्ण अवस्था को परिभाषित करता है। योगी जब आत्मा में स्थित होकर सभी इच्छाओं और सांसारिक आसक्तियों से मुक्त हो जाता है, तभी वह योग में स्थिर होता है।


श्लोक 19

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥

अर्थ:
"जैसे हवा रहित स्थान में दीपक की लौ स्थिर रहती है, उसी प्रकार योग में स्थित और अपने मन को संयमित करने वाले योगी का चित्त स्थिर रहता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ध्यान की गहन अवस्था को समझाने के लिए दीपक की लौ का उदाहरण देता है। मन शांत और स्थिर होना चाहिए, जैसे हवा से रहित स्थान में दीपक की लौ।


श्लोक 20-21

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्वतः॥

अर्थ:
"जहाँ योगाभ्यास द्वारा चित्त शांत और नियंत्रित हो जाता है, और जहाँ योगी आत्मा में आत्मा का अनुभव कर आनंदित होता है, वहाँ वह परम सुख का अनुभव करता है, जो बुद्धि से समझने योग्य है और इंद्रियों से परे है। उस अवस्था में स्थित होकर वह सत्य से विचलित नहीं होता।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्म-साक्षात्कार और परमानंद की स्थिति का वर्णन करता है। इस अवस्था में योगी को आत्मा का साक्षात्कार होता है और वह स्थायी शांति और आनंद का अनुभव करता है।


श्लोक 22

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥

अर्थ:
"जिस स्थिति को प्राप्त करने के बाद योगी किसी अन्य लाभ को उससे श्रेष्ठ नहीं मानता, और जिसमें स्थित होकर वह महान दुःखों से भी विचलित नहीं होता, वही अवस्था परम है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ध्यान योग की सर्वोच्च अवस्था का वर्णन करता है, जहाँ आत्म-साक्षात्कार के बाद सभी सांसारिक लाभ तुच्छ लगने लगते हैं।


श्लोक 23

तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥

अर्थ:
"जिसे दुःखों के संयोग से वियोग (छुटकारा) कहा जाता है, उसे योग जानो। इसे दृढ़ निश्चय और उत्साह के साथ अभ्यास करना चाहिए।"

व्याख्या:
योग का मुख्य उद्देश्य मन और आत्मा को शांत करना और दुःखों से छुटकारा पाना है। यह अभ्यास दृढ़ता और लगन से किया जाना चाहिए।


श्लोक 24

सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥

अर्थ:
"सभी संकल्पों (इच्छाओं) को पूरी तरह से त्यागकर, मन और इंद्रियों को सभी दिशाओं से वश में करते हुए योग का अभ्यास करो।"

व्याख्या:
यह श्लोक योग के लिए आत्म-संयम और इच्छाओं के त्याग की अनिवार्यता को दर्शाता है। इंद्रिय-नियंत्रण के बिना योग संभव नहीं है।


श्लोक 25

शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्॥

अर्थ:
"धीरे-धीरे, धैर्य और बुद्धि के सहारे मन को आत्मा में स्थिर करो और अन्य किसी भी विषय का चिंतन मत करो।"

व्याख्या:
यह श्लोक योग में ध्यान की प्रक्रिया को बताता है। मन को धैर्यपूर्वक आत्मा पर केंद्रित करना चाहिए और उसे भटकने नहीं देना चाहिए।


श्लोक 26

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥

अर्थ:
"जहाँ-जहाँ चंचल और अस्थिर मन भटकता है, वहाँ-वहाँ से उसे नियंत्रित करके आत्मा में लगाओ।"

व्याख्या:
योग का अभ्यास करते समय, मन चंचल हो सकता है। इस चंचलता को आत्मनियंत्रण से रोककर मन को आत्मा पर केंद्रित करना चाहिए।


श्लोक 27-28

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तराजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥

अर्थ:
"जिस योगी का मन शांत है, जिसने रजोगुण को शांत कर लिया है और जो पाप रहित है, वह परम शांति और आनंद को प्राप्त करता है। ऐसा योगी ब्रह्म को स्पर्श करता है और परमानंद का अनुभव करता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक ध्यान की पूर्णता को दर्शाता है, जिसमें योगी आत्मा और ब्रह्म के साक्षात्कार से परमानंद को अनुभव करता है।


श्लोक 29

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥

अर्थ:
"योग में स्थित व्यक्ति सभी प्राणियों में आत्मा को देखता है और आत्मा में सभी प्राणियों को देखता है। वह हर जगह समदर्शी होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मा और ब्रह्म की एकता को दर्शाता है। योगी सभी में ईश्वर की समान उपस्थिति को देखता है और भेदभाव से मुक्त हो जाता है।


श्लोक 30

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

अर्थ:
"जो मुझे सभी जगह देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है, मैं उससे कभी अलग नहीं होता और वह मुझसे अलग नहीं होता।"

व्याख्या:
यह श्लोक योगी की भक्ति और ईश्वर के प्रति उसकी निकटता को दर्शाता है। योगी और भगवान के बीच एकता की अनुभूति होती है।


श्लोक 31

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति मुझे सभी प्राणियों में स्थित देखता है और एकता में स्थित होकर मेरी भक्ति करता है, वह हर स्थिति में योगी रहता है और मुझमें स्थित होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि सच्चा योगी हर प्राणी में भगवान को देखता है और उसकी भक्ति करता है। वह हर स्थिति में ईश्वर से जुड़ा रहता है।


श्लोक 32

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, जो व्यक्ति सभी जगह आत्मा को समान देखता है और दूसरों के सुख-दुःख को अपने समान मानता है, वह परम योगी है।"

व्याख्या:
यह श्लोक समदृष्टि और करुणा के महत्व को बताता है। सच्चा योगी वही है जो दूसरों के अनुभवों को अपने अनुभवों के समान समझता है।


सारांश:

  1. योग का उद्देश्य आत्मा में स्थिर होकर सभी कामनाओं और चंचलता से मुक्त होना है।
  2. योगी सभी प्राणियों में आत्मा और परमात्मा को समान रूप से देखता है।
  3. ध्यान और आत्म-नियंत्रण से मन को स्थिर करना और ब्रह्म का साक्षात्कार करना योग की पूर्णता है।
  4. सच्चा योगी दूसरों के सुख-दुःख को अपने जैसा मानता है और समभाव में स्थित रहता है।

शनिवार, 13 जुलाई 2024

भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) ध्यान की प्रक्रिया और साधना (श्लोक 10-17)

 भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) ध्यान की प्रक्रिया और साधना (श्लोक 10-17) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 10

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥

अर्थ:
"योगी को एकांत में स्थिर होकर सदा अपने मन को संयमित करते हुए ध्यान लगाना चाहिए। उसे न किसी वस्तु की इच्छा होनी चाहिए और न ही किसी प्रकार का संग्रह करना चाहिए।"

व्याख्या:
यह श्लोक ध्यानयोग की प्राथमिक शर्तों को बताता है। योगी को एकांत में साधना करनी चाहिए, इच्छाओं और भौतिक संग्रह से मुक्त रहना चाहिए, और मन को पूर्ण रूप से संयमित करना चाहिए।


श्लोक 11-12

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥

अर्थ:
"योगी को शुद्ध स्थान में न अधिक ऊँचे और न अधिक नीचे स्थान पर चित्त को स्थिर रखने वाला आसन लगाना चाहिए, जिसमें कुश, मृगचर्म और कपड़ा बिछा हो। उस आसन पर बैठकर, मन और इंद्रियों को नियंत्रित करते हुए, आत्मा की शुद्धि के लिए ध्यान योग का अभ्यास करना चाहिए।"

व्याख्या:
यह श्लोक ध्यान के लिए उपयुक्त स्थान, आसन, और शारीरिक अवस्था का वर्णन करता है। यह दिखाता है कि ध्यान के लिए स्थिरता और शुद्धता आवश्यक है।


श्लोक 13-14

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥

अर्थ:
"योगी को अपने शरीर, सिर, और गर्दन को सीधा और स्थिर रखना चाहिए, दृष्टि को अपनी नासिका के अग्रभाग पर केंद्रित रखना चाहिए और अन्य दिशाओं में न देखना चाहिए। शांत मन, भय रहित होकर, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, अपने मन को मुझ (भगवान) में स्थिर करना चाहिए।"

व्याख्या:
यह श्लोक ध्यान की शारीरिक स्थिति और मानसिक एकाग्रता का वर्णन करता है। योगी को शारीरिक स्थिरता और मानसिक शांति के साथ अपने मन को भगवान में लगाना चाहिए।


श्लोक 15

युञ्जन्नेवं सदा योगं आत्मनं रहसि स्थितः।
एकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥

अर्थ:
"इस प्रकार सदा योग का अभ्यास करते हुए, एकांत में स्थिर होकर, आत्मा को संयमित करते हुए, और निराशा तथा संग्रह से मुक्त होकर ध्यान योग में स्थित रहना चाहिए।"

व्याख्या:
यह श्लोक योगी को साधना का मार्ग दिखाता है, जिसमें भौतिक इच्छाओं और संग्रह का त्याग और मानसिक शांति आवश्यक है।


श्लोक 16

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥

अर्थ:
"हे अर्जुन, जो अत्यधिक भोजन करता है या बिल्कुल नहीं खाता, और जो अधिक सोता है या जागता रहता है, वह योग में सफल नहीं हो सकता।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि योग में संतुलन और संयम आवश्यक है। अत्यधिक भोजन, उपवास, नींद, या जागरण योग के मार्ग में बाधा बनते हैं।


श्लोक 17

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥

अर्थ:
"जो व्यक्ति आहार, विहार (आचरण), कार्य, सोने और जागने में संतुलन रखता है, उसका योग दुःखों को नष्ट करने वाला होता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि योग का अभ्यास करने के लिए जीवन में संतुलन और अनुशासन आवश्यक है। संतुलित जीवन शैली ही योग साधना को सफल बनाती है और दुःखों को समाप्त करती है।


सारांश:

  1. योग का अभ्यास एकांत और शुद्ध स्थान में करना चाहिए।
  2. आसन स्थिर और शरीर सीधा होना चाहिए, और मन को भगवान में एकाग्र करना चाहिए।
  3. जीवन में संतुलन और संयम योग की सफलता के लिए अनिवार्य है।
  4. योगी को भौतिक इच्छाओं और संग्रह से मुक्त रहना चाहिए।
  5. संतुलित आहार, नींद, और कार्यप्रणाली योग को दुःखों का नाश करने वाला बनाती है।

शनिवार, 6 जुलाई 2024

भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) योगी के लक्षण और कर्म का महत्व (श्लोक 1-9)

 भागवत गीता: अध्याय 6 (ध्यानयोग) योगी के लक्षण और कर्म का महत्व (श्लोक 1-9) का अर्थ और व्याख्या


श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥

अर्थ:
"भगवान ने कहा: जो व्यक्ति कर्मफल का आश्रय न लेकर, केवल अपने कर्तव्य का पालन करता है, वही सच्चा संन्यासी और योगी है। वह नहीं जो केवल अग्नि का त्याग करता है या अकर्मण्य रहता है।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण समझाते हैं कि सच्चा संन्यास बाहरी कर्मों का त्याग नहीं, बल्कि कर्मों के फल की आसक्ति का त्याग है। निष्काम कर्मयोग ही सच्चे संन्यास और योग का मार्ग है।


श्लोक 2

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन॥

अर्थ:
"हे पाण्डव, जिसे संन्यास कहा गया है, उसे ही योग समझो। क्योंकि जो संकल्प (आसक्ति) का त्याग नहीं करता, वह योगी नहीं बन सकता।"

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि संन्यास और योग एक ही हैं, क्योंकि दोनों का उद्देश्य आसक्ति का त्याग है। बिना संकल्प का त्याग किए योग संभव नहीं है।


श्लोक 3

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥

अर्थ:
"जो योग की ओर अग्रसर है, उसके लिए कर्म (कर्तव्य पालन) साधन है। और जो योग में स्थिर हो चुका है, उसके लिए शांति (मन की स्थिरता) साधन है।"

व्याख्या:
योग की प्रारंभिक अवस्था में कर्म करना आवश्यक है। लेकिन जब व्यक्ति योग में स्थिर हो जाता है, तब आंतरिक शांति और ध्यान ही उसका साधन बन जाता है।


श्लोक 4

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥

अर्थ:
"जब व्यक्ति इंद्रियों के विषयों और कर्मों में आसक्त नहीं होता और सभी संकल्पों का त्याग कर देता है, तब उसे योगारूढ़ (योग में स्थिर) कहा जाता है।"

व्याख्या:
यह श्लोक योग की पूर्ण अवस्था को परिभाषित करता है। योगारूढ़ व्यक्ति इंद्रियों के विषयों और भौतिक इच्छाओं से मुक्त होता है।


श्लोक 5

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥

अर्थ:
"मनुष्य को अपने द्वारा ही अपना उद्धार करना चाहिए और स्वयं को पतन की ओर नहीं ले जाना चाहिए। क्योंकि आत्मा ही उसकी मित्र है और आत्मा ही उसका शत्रु।"

व्याख्या:
यह श्लोक आत्मसंयम और आत्म-प्रेरणा का महत्व बताता है। व्यक्ति की सफलता और असफलता का निर्धारण उसके आत्मसंयम और आचरण से होता है।


श्लोक 6

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥

अर्थ:
"जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसके लिए आत्मा मित्र के समान है। लेकिन जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है, उसके लिए आत्मा शत्रु के समान है।"

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि आत्म-संयम व्यक्ति के जीवन का मूल है। संयमित आत्मा मित्र के समान सहयोगी होती है, जबकि असंयमित आत्मा शत्रु के समान व्यवहार करती है।


श्लोक 7

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥

अर्थ:
"जिसने अपने आत्मा को जीत लिया है और जो शांत है, उसके लिए परमात्मा में स्थिति स्थिर है। वह शीत-उष्ण, सुख-दुःख और मान-अपमान में समान रहता है।"

व्याख्या:
योग में स्थित व्यक्ति परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता। वह परमात्मा के साथ स्थिर रहता है और द्वंद्वों में समभाव बनाए रखता है।


श्लोक 8-9

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥
सुखं वन्दे च दु:खं वन्दे च सामनं वन्दे भूतं वन्दे।

अर्थ:
"जो व्यक्ति ज्ञान और विज्ञान से संतुष्ट है, जिसने इंद्रियों को वश में कर लिया है, जो स्थिर है और जिसने मिट्टी, पत्थर और सोने में समानता देखी है, वह योगी कहलाता है।"

व्याख्या:
सच्चा योगी वह है जो बाहरी वस्तुओं और भौतिक सुख-दुःख से निर्लिप्त रहता है। वह ज्ञान से परिपूर्ण और समदर्शी होता है।


श्लोक 9

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥

अर्थ:
"जो मित्र, शत्रु, तटस्थ, मध्यस्थ, द्वेष करने वाले, बंधु, सज्जन और पापी – सभी में समान दृष्टि रखता है, वही श्रेष्ठ है।"

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि सच्चा योगी सभी के प्रति समभाव रखता है। वह न किसी से द्वेष करता है और न किसी के प्रति पक्षपात करता है।


सारांश:

  1. सच्चा योग और संन्यास कर्मफल की आसक्ति का त्याग है, न कि केवल बाहरी कर्म का।
  2. आत्म-संयम, इंद्रिय-नियंत्रण, और आंतरिक शांति योग की अनिवार्य शर्तें हैं।
  3. योगी सभी द्वंद्वों (सुख-दुःख, मान-अपमान) में समान रहता है।
  4. सच्चा योगी समदर्शी होता है और सभी के प्रति समान दृष्टि रखता है।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...