शनिवार, 24 अप्रैल 2021

महावीर स्वामी

 महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर थे। उन्होंने अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य और अचौर्य जैसे पंचमहाव्रतों का प्रचार किया और जैन धर्म को एक संगठित और स्पष्ट स्वरूप प्रदान किया। महावीर स्वामी का जीवन, उनकी शिक्षाएं और उनके सिद्धांत न केवल जैन धर्म के अनुयायियों के लिए बल्कि पूरी मानवता के लिए प्रेरणादायक हैं।


महावीर स्वामी का जीवन परिचय:

  1. जन्म:

    • महावीर स्वामी का जन्म 599 ईसा पूर्व (कुछ परंपराओं के अनुसार 540 ईसा पूर्व) में वज्जि संघ के कुंडग्राम (वर्तमान बिहार) में हुआ था।
    • उनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक कुल के राजा थे और माता त्रिशला लिच्छवि राजकुल की राजकुमारी थीं।
    • उनका जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को हुआ, जिसे महावीर जयंती के रूप में मनाया जाता है।
  2. मूल नाम:

    • उनका बचपन का नाम वर्धमान था, जिसका अर्थ है "समृद्धि लाने वाला।"
  3. बाल्यकाल:

    • वर्धमान बचपन से ही साहसी, दयालु और असाधारण बुद्धि वाले थे।
    • उनके अदम्य साहस के कारण उन्हें "महावीर" नाम दिया गया।
  4. गृहस्थ जीवन:

    • उनका विवाह यशोदा से हुआ और उन्हें प्रियदर्शन नामक एक पुत्री हुई।
    • 30 वर्ष की आयु में उन्होंने सांसारिक जीवन त्याग दिया और मोक्ष की खोज में संन्यास ले लिया।

आध्यात्मिक यात्रा:

  1. संन्यास ग्रहण:

    • महावीर स्वामी ने 30 वर्ष की आयु में राजसुख और पारिवारिक जीवन को त्यागकर संन्यास लिया।
    • उन्होंने कठोर तपस्या करते हुए 12 वर्षों तक ध्यान और साधना की।
  2. कैवल्य ज्ञान:

    • 12 वर्षों की तपस्या के बाद ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य ज्ञान (पूर्ण ज्ञान) की प्राप्ति हुई।
    • इसके बाद वे जिन (विजेता) कहलाए और तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
  3. धर्म का प्रचार:

    • उन्होंने अपने ज्ञान का प्रचार किया और अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य और अचौर्य के पंचमहाव्रतों का पालन करने का उपदेश दिया।
    • उन्होंने 72 वर्षों तक धर्म का प्रचार किया और अनेक शिष्यों को दीक्षित किया।

महावीर स्वामी की शिक्षाएं:

महावीर स्वामी की शिक्षाएं सादगी, अहिंसा और नैतिकता पर आधारित थीं।

  1. अहिंसा (Non-violence):

    • "सभी जीवों के प्रति दया और करुणा रखो।"
    • उन्होंने सिखाया कि किसी भी प्राणी को शारीरिक, मानसिक या वाणी द्वारा कष्ट न दिया जाए।
  2. सत्य (Truth):

    • सत्य बोलना और सत्य के मार्ग पर चलना, जैन धर्म का प्रमुख आधार है।
  3. अपरिग्रह (Non-possessiveness):

    • संसार की वस्तुओं का संग्रह करने से मोह बढ़ता है। संतोष और त्याग से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।
  4. ब्रह्मचर्य (Celibacy):

    • इंद्रियों पर नियंत्रण रखना और संयमपूर्वक जीवन जीना आवश्यक है।
  5. अचौर्य (Non-stealing):

    • दूसरों की वस्तुओं को लेने या चोरी करने से बचना चाहिए।
  6. सय्यम (Self-discipline):

    • इंद्रियों और इच्छाओं पर नियंत्रण रखना आत्मा की शुद्धि के लिए आवश्यक है।
  7. अनेकांतवाद (Pluralism):

    • सत्य को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा और समझा जा सकता है। किसी भी विचार या मत को एकमात्र सत्य मानना उचित नहीं है।

महावीर स्वामी का मोक्ष:

  • महावीर स्वामी ने 72 वर्ष की आयु में 527 ईसा पूर्व (कुछ परंपराओं के अनुसार 468 ईसा पूर्व) में पावापुरी (वर्तमान बिहार) में दीपावली के दिन निर्वाण प्राप्त किया।
  • उनके निर्वाण दिवस को महानिर्वाण के रूप में मनाया जाता है।

महावीर स्वामी का योगदान:

  1. जैन धर्म का पुनर्गठन:

    • महावीर स्वामी ने जैन धर्म को संगठित किया और इसे एक व्यवस्थित रूप दिया।
    • उन्होंने जैन धर्म के अनुयायियों के लिए श्रमण और श्रावक का मार्ग स्पष्ट किया।
  2. आध्यात्मिकता और नैतिकता:

    • उनकी शिक्षाओं ने समाज में अहिंसा, करुणा और नैतिकता को बढ़ावा दिया।
  3. जैन धर्म के ग्रंथ:

    • उनके उपदेशों को उनके प्रमुख शिष्य गणधर ने अगम साहित्य के रूप में संकलित किया।
  4. समाज सुधार:

    • उन्होंने जातिवाद, भेदभाव और अंधविश्वासों का खंडन किया।
    • सभी प्राणियों को समान माना और उनके कल्याण का मार्ग दिखाया।

महावीर स्वामी का महत्व:

महावीर स्वामी न केवल जैन धर्म के अनुयायियों के लिए आदर्श हैं, बल्कि उनकी शिक्षाएं पूरी मानवता के लिए प्रेरणादायक हैं। उनका जीवन संदेश देता है कि आत्म-संयम, अहिंसा, और नैतिकता के माध्यम से जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है।

उनकी शिक्षाएं आज भी पर्यावरण संरक्षण, सह-अस्तित्व और मानवता के कल्याण के लिए प्रासंगिक हैं।

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

आदि शंकराचार्य

 आदि शंकराचार्य भारतीय दर्शन, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत के महान प्रवर्तक, संत और दार्शनिक थे। वे भारतीय आध्यात्मिकता और धर्म के पुनरुद्धार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महापुरुष माने जाते हैं। उन्होंने हिंदू धर्म को एकीकृत और व्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया और चार मठों (पीठों) की स्थापना की।


आदि शंकराचार्य का जीवन परिचय:

  1. जन्म:

    • आदि शंकराचार्य का जन्म केरल के कालड़ी नामक गाँव में 788 ईस्वी (अनुमानित) में एक नंबूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
    • उनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्यांबा था।
    • जन्म से ही वे अत्यंत प्रतिभाशाली और असाधारण बुद्धि वाले थे।
  2. सन्यास ग्रहण:

    • बचपन से ही वे वैराग्य और आध्यात्मिकता की ओर आकर्षित थे।
    • छोटी उम्र में उन्होंने अपनी माता की अनुमति से सन्यास ले लिया और ज्ञान की खोज में निकल पड़े।
  3. गुरु गोविंद भगवत्पाद:

    • उन्होंने मध्य प्रदेश के ओंकारेश्वर में गुरु गोविंद भगवत्पाद से अद्वैत वेदांत का ज्ञान प्राप्त किया।
    • उनके गुरु ने उन्हें वेदांत के गूढ़ रहस्यों को समझने और उसका प्रचार करने का आदेश दिया।

आदि शंकराचार्य का योगदान:

  1. अद्वैत वेदांत का प्रचार:

    • आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत (अर्थात् "अद्वैत" = "द्वैत का अभाव") का विस्तार किया।
    • उनके अनुसार, "ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है और आत्मा ब्रह्म के समान है।"
    • उन्होंने समझाया कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं और उन्हें अलग समझना केवल अज्ञानता है।
  2. चार मठों की स्थापना:

    • आदि शंकराचार्य ने हिंदू धर्म के पुनर्गठन के लिए भारत के चार दिशाओं में चार मठों (पीठों) की स्थापना की:
      • उत्तर: ज्योतिर्मठ (उत्तराखंड)
      • दक्षिण: श्रृंगेरी मठ (कर्नाटक)
      • पूर्व: गोवर्धन मठ (पुरी, ओडिशा)
      • पश्चिम: शारदा मठ (द्वारका, गुजरात)
    • इन मठों के माध्यम से उन्होंने धर्म और वेदांत के ज्ञान को संरक्षित और प्रसारित किया।
  3. शास्त्रों की व्याख्या:

    • उन्होंने प्रमुख वेदांत ग्रंथों जैसे उपनिषदों, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्र पर टीका लिखी।
    • उनकी रचनाएं सरल, स्पष्ट और गहन ज्ञान से परिपूर्ण हैं।
  4. सांस्कृतिक और धार्मिक पुनर्जागरण:

    • उस समय भारत में धर्म के नाम पर कई अंधविश्वास और अनुष्ठान प्रचलित थे।
    • उन्होंने तर्क और वेदांत के माध्यम से इन गलत धारणाओं का खंडन किया।
    • विभिन्न मतों और पंथों को एकजुट करके सनातन धर्म को मजबूत किया।
  5. मठों के संन्यासी क्रम:

    • उन्होंने दशनामी संप्रदाय की स्थापना की, जिसमें संन्यासियों को दस श्रेणियों (सरस्वती, गिरी, पुरी, भारती आदि) में विभाजित किया गया।
  6. भक्ति और स्तोत्र रचना:

    • आदि शंकराचार्य ने भक्ति को भी महत्व दिया और अनेक प्रसिद्ध स्तोत्रों की रचना की, जैसे:
      • शिवानंद लहरी
      • भज गोविंदम्
      • सौंदर्य लहरी
      • अन्नपूर्णा स्तोत्रम
      • निर्वाण षटकम्

प्रमुख शिक्षाएं:

  1. अद्वैत वेदांत का सिद्धांत:

    • केवल एक ही सत्य है, और वह है ब्रह्म। सब कुछ उसी ब्रह्म का रूप है।
    • संसार एक माया (भ्रम) है, और आत्मा का परमात्मा से अलग होना अज्ञानता है।
  2. ज्ञान का महत्व:

    • मुक्ति (मोक्ष) केवल ज्ञान के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है।
  3. सर्व धर्म समभाव:

    • उन्होंने धर्मों और मतों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया।
  4. व्यक्तिगत अनुशासन:

    • साधना, तप और आत्म-नियंत्रण को जीवन का आधार बताया।

प्रमुख ग्रंथ और रचनाएं:

  • प्रस्थान त्रयी पर भाष्य:
    • ब्रह्मसूत्र भाष्य
    • भगवद्गीता भाष्य
    • उपनिषद भाष्य
  • अन्य रचनाएं:
    • भज गोविंदम्
    • मनोबोधम्
    • तत्व बोध

समाधि:

  • कहा जाता है कि उन्होंने 32 वर्ष की अल्पायु में केदारनाथ (उत्तराखंड) में मोक्ष प्राप्त किया।

आदि शंकराचार्य का प्रभाव:

  • उन्होंने भारतीय संस्कृति को धर्म, दर्शन और आध्यात्मिकता के माध्यम से एक नई दिशा दी।
  • उनका अद्वैत वेदांत आज भी भारतीय दर्शन का मूल आधार है।
  • उनके द्वारा स्थापित मठ और संस्थाएं आज भी सनातन धर्म और वेदांत की परंपराओं को आगे बढ़ा रही हैं।

आदि शंकराचार्य भारतीय इतिहास के उन महान विभूतियों में से एक हैं, जिन्होंने न केवल भारतीय धर्म को समृद्ध किया, बल्कि उसे पुनर्जीवित और संरक्षित भी किया। उनका जीवन और शिक्षाएं आज भी विश्वभर में प्रेरणा का स्रोत हैं।

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

महर्षि पतंजलि

 महर्षि पतंजलि भारतीय दर्शन, योग और व्याकरण के महान ऋषि माने जाते हैं। वे योग दर्शन के प्रणेता और अष्टांग योग के सिद्धांतों को स्थापित करने वाले विद्वान हैं। पतंजलि ने भारतीय आध्यात्मिकता और व्यावहारिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें संस्कृत व्याकरण और आयुर्वेद के क्षेत्र में भी अद्वितीय माना जाता है।


महर्षि पतंजलि के जीवन के बारे में:

  1. जन्म और प्रारंभिक जीवन:

    • पतंजलि के जीवन के बारे में ऐतिहासिक जानकारी सीमित है। वे महर्षि होने के साथ-साथ दिव्य व्यक्तित्व के रूप में पूजनीय हैं।
    • कुछ मान्यताओं के अनुसार, पतंजलि भगवान आदिशेष (शेषनाग) के अवतार थे, जो भगवान विष्णु के साथ जुड़े हुए हैं।
    • उनके नाम का अर्थ है "जो अंजलि मुद्रा में (हाथ जोड़कर) गिरा", यह संकेत करता है कि उनका अवतरण दिव्य है।
  2. कार्य क्षेत्र:

    • पतंजलि ने मुख्य रूप से तीन क्षेत्रों में कार्य किया: योग, आयुर्वेद और व्याकरण।
    • उनके योगदान को त्रिपदियां कहा जाता है:
      • योग (आध्यात्मिकता और ध्यान)
      • व्याकरण (संस्कृत भाषा)
      • चिकित्सा (आयुर्वेद)

पतंजलि का योगदान:

  1. योगसूत्र:

    • पतंजलि ने योगसूत्र की रचना की, जो योग दर्शन का मूलभूत ग्रंथ है। यह चार अध्यायों (पाद) में विभाजित है:
      1. समाधि पाद (योग के सिद्धांत)
      2. साधना पाद (योग के अभ्यास)
      3. विभूति पाद (योग से प्राप्त सिद्धियां)
      4. कैवल्य पाद (आत्मा की मुक्ति)
    • पतंजलि ने योग को "चित्तवृत्ति निरोध" के रूप में परिभाषित किया, जिसका अर्थ है मन की चंचलता को नियंत्रित करना।
  2. अष्टांग योग:

    • महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंगों का वर्णन किया, जिसे अष्टांग योग कहा जाता है:
      1. यम (नैतिक अनुशासन)
      2. नियम (व्यक्तिगत अनुशासन)
      3. आसन (शारीरिक स्थिरता)
      4. प्राणायाम (श्वास नियंत्रण)
      5. प्रत्याहार (इंद्रियों का संयम)
      6. धारणा (एकाग्रता)
      7. ध्यान (ध्यान)
      8. समाधि (आध्यात्मिक एकता)
    • इन आठ अंगों के माध्यम से व्यक्ति आत्म-शुद्धि, मानसिक शांति और आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर सकता है।
  3. संस्कृत व्याकरण:

    • पतंजलि ने संस्कृत भाषा के व्याकरण पर महाभाष्य नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखा। यह पाणिनि और कात्यायन के व्याकरण सिद्धांतों का व्याख्या ग्रंथ है।
    • महाभाष्य ने संस्कृत भाषा को संरक्षित और प्रचलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  4. आयुर्वेद:

    • पतंजलि ने आयुर्वेद में भी योगदान दिया। वे शरीर और मन के संतुलन पर जोर देते थे। उनके विचारों ने आयुर्वेद को योग के साथ जोड़ा।

महर्षि पतंजलि की शिक्षाएं:

  • चित्त की शुद्धि: मन को शुद्ध और स्थिर करना योग का प्रमुख लक्ष्य है।
  • साधना का महत्व: योग के अभ्यास से आत्मा को परमात्मा से जोड़ा जा सकता है।
  • स्वास्थ्य और संतुलन: शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए योग और आयुर्वेद का पालन आवश्यक है।
  • ध्यान और एकाग्रता: ध्यान के माध्यम से आत्मा की मुक्ति संभव है।

पतंजलि और योग दर्शन:

महर्षि पतंजलि के योगसूत्र भारतीय दर्शन के षड्दर्शन (छह दर्शनों) में से एक है। यह सांख्य दर्शन के आधार पर निर्मित है और व्यक्ति को आत्मा की स्वतंत्रता (कैवल्य) तक पहुंचाने का मार्ग दिखाता है।


महर्षि पतंजलि का महत्व:

  • महर्षि पतंजलि को "योग का पिता" कहा जाता है।
  • उनकी शिक्षाएं न केवल प्राचीन भारत में, बल्कि आज भी पूरे विश्व में योग और ध्यान का आधार हैं।
  • उनका दर्शन व्यक्ति को आध्यात्मिक और भौतिक जीवन में संतुलन प्राप्त करने की प्रेरणा देता है।

आधुनिक युग में पतंजलि का प्रभाव:

आज के युग में पतंजलि के योगसूत्र योग प्रथाओं का आधार हैं। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस और योग के प्रति बढ़ती जागरूकता महर्षि पतंजलि के अमूल्य योगदान को दर्शाती है।

महर्षि पतंजलि का ज्ञान न केवल भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है, बल्कि विश्वभर में लोगों के लिए जीवन जीने की प्रेरणा का स्रोत है।

शनिवार, 3 अप्रैल 2021

महर्षि वाल्मीकि

 महर्षि वाल्मीकि भारतीय संस्कृति और साहित्य के आदिकवि के रूप में विख्यात हैं। वे रामायण के रचयिता और भारतीय धर्म-दर्शन के एक महान संत थे। महर्षि वाल्मीकि को भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।


महर्षि वाल्मीकि के जीवन के बारे में:

  1. जन्म और प्रारंभिक जीवन:

    • महर्षि वाल्मीकि का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, लेकिन वे अपने बचपन में समाज से कटे हुए एक साधारण व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे।
    • कहा जाता है कि उनका वास्तविक नाम रत्नाकर था। वे प्रारंभ में एक डाकू थे, जो जंगल में राहगीरों को लूटते थे।
  2. परिवर्तन का प्रसंग:

    • एक दिन नारद मुनि ने उन्हें सत्य का मार्ग दिखाया। उन्होंने रत्नाकर से पूछा कि वे जिनके लिए यह पाप कर रहे हैं (अपने परिवार के लिए), क्या वे उनके पापों का भागी बनेंगे?
    • जब रत्नाकर को यह पता चला कि उनका परिवार उनके पापों का भार नहीं उठाएगा, तो उन्होंने अपराध का जीवन छोड़कर तपस्या करने का निश्चय किया।
    • नारद मुनि के मार्गदर्शन में उन्होंने "राम" नाम का जाप शुरू किया। कठोर तप के कारण उनके शरीर पर चींटियों का ढेर (वाल्मीकि) लग गया। इसके बाद वे महर्षि वाल्मीकि के रूप में प्रसिद्ध हुए।

वाल्मीकि का योगदान:

  1. रामायण:

    • महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की, जो विश्व का प्रथम महाकाव्य (आदिकाव्य) माना जाता है। इसे संस्कृत में लिखा गया है और इसमें सात कांड (बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड) हैं।
    • रामायण में भगवान राम के जीवन, उनके आदर्श चरित्र, धर्म, सत्य और न्याय की शिक्षाएं समाहित हैं।
  2. श्लोक रचना की उत्पत्ति:

    • यह माना जाता है कि महर्षि वाल्मीकि ने संसार का पहला श्लोक रचा। यह घटना तब हुई जब उन्होंने एक शिकारी को क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को मारते हुए देखा। उन्होंने उस दुःख और करुणा के भाव में एक श्लोक की रचना की: 
      मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
      यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।
      
  3. सीता माता का आश्रय:

    • जब माता सीता को भगवान राम ने त्याग दिया, तब महर्षि वाल्मीकि ने उन्हें अपने आश्रम में आश्रय दिया। वहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ और उनका पालन-पोषण हुआ। उन्होंने लव और कुश को रामायण सुनाई और रामायण की शिक्षा दी।
  4. धार्मिक और सामाजिक संदेश:

    • महर्षि वाल्मीकि का जीवन इस बात का प्रमाण है कि कोई भी व्यक्ति अपने कर्मों को बदलकर धर्म और सच्चाई के मार्ग पर चल सकता है। उनका जीवन परिवर्तन और आत्म-सुधार का प्रतीक है।

वाल्मीकि और उनके संदेश:

  • धर्म और सत्य का पालन: महर्षि वाल्मीकि ने सिखाया कि सत्य और धर्म का पालन ही जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य होना चाहिए।
  • समानता और न्याय: वे जाति और वर्ग के भेदभाव को नकारते थे। उनके अनुसार, सभी मनुष्य समान हैं और उनका मूल्य उनके कर्मों से निर्धारित होता है।

वाल्मीकि जयंती:

महर्षि वाल्मीकि की स्मृति में हर वर्ष वाल्मीकि जयंती मनाई जाती है। इसे विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और वाल्मीकि समुदाय द्वारा मनाया जाता है।


महर्षि वाल्मीकि का महत्व:

महर्षि वाल्मीकि न केवल भारतीय साहित्य के आदिकवि हैं, बल्कि वे आध्यात्मिकता और आत्म-परिवर्तन के आदर्श उदाहरण भी हैं। उनका जीवन और रचनाएं आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।

भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष (श्लोक 54-78)

 यहां भागवत गीता: अध्याय 18 (मोक्ष संन्यास योग) के श्लोक 54 से 78 तक का अर्थ और व्याख्या दी गई है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म...